कहानी का नाम: वो खाली मेज़
मैंने नेवी नीली साड़ी पहनी। बालों को साफ-सुथरे जुड़े में समेटा और बैंक्वेट हॉल के बाहर खड़ी हो गई। सामने गेंदे के फूलों की झालरें थीं। शहनाई की रिकॉर्डिंग धीमे बज रही थी और दरवाज़े पर गेस्ट रजिस्ट्रेशन की टेबल। तीन दिन पहले जो कार्ड आया था उसमें बस तारीख, समय और लोकेशन था। ना ‘माँ ज़रूर आइए’ ना कोई गर्माहट। फिर भी मैं आई क्योंकि बेटे की ज़िंदगी का यह बड़ा दिन था और क्योंकि उसे मैं ही यहाँ तक लाई थी।
अंदर कदम रखते ही फुसफुसाहटें उठीं। नज़रें मुझ पर टिकीं, सम्मान से नहीं, असहजता से। रजिस्ट्रेशन टेबल पर बैठी प्लानर ने ऊपर देखा। चेहरे पर औपचारिक सी मुस्कान। फिर लिस्ट में आँखें दौड़ाईं।
“मैडम, आपका नाम… उम… यहाँ नहीं है,” उसने धीरे से कहा, जैसे कोई काँटा निगल लिया हो। “सीटिंग थोड़ा टाइट है। ब्राइड साइड बोली थी… लिमिटेड स्पेस।”
मैंने एक पल उसके चेहरे को देखा। फिर लिस्ट को। अक्षरों की भीड़ में मेरा नाम कहीं नहीं था। “ठीक है,” मैं बोली।
तभी आरव सामने आया। काले टक्सीडो में, वही मेरा बेटा। पर जैसे किसी और का लग रहा हो। उसने मुझे देखकर आधे सेकंड को ठिठका। फिर चेहरे पर मजबूर सी मुस्कान खींच दी। “मॉम… आपने आने का…”
“मैं मिस नहीं करती,” मैंने कहा।
उसने नज़रें चुरा लीं। पीछे रिया, उसकी मंगेतर, ने एक तेज़ सपाट नज़र मुझ पर डाली। जैसे पूछ रही हो, ये यहाँ क्यों?
प्लानर फिर आगे बढ़ी। “मैडम प्लीज़ बुरा मत मानिए। आप गेस्ट लिस्ट में नहीं हैं। रिया के परिवार ने…”
मैंने हाथ उठाकर उसे रोका। “ठीक है,” मैंने शांत स्वर में कहा।
आरव ने कुछ कहना चाहा। “मॉम, बात सुनो…”
लेकिन मैं बस मुड़ी और बाहर निकल आई। गले में कोई गाँठ नहीं थी। आँखों में आँसू भी नहीं। बस एक खालीपन जो ठंडी हवा की तरह अंदर तक उतरता चला गया। सड़क पर ऑटो, गाड़ियाँ, हॉर्न… सब वैसे ही थे जैसे हमेशा होते हैं। दुनिया चल रही थी। बस मेरे भीतर कुछ रुक गया था।
मैंने कार स्टार्ट की और चला दी, रेडियो बंद। शहर के मोड़ों पर मेरे अपने कदमों की आहट गूँजती रही। यादें एक-एक करके लौटती रहीं। वो रातें जब डबल शिफ्ट की, वो महीने जब घर के खर्च घटाए, वो त्यौहार जिन पर अपने लिए साड़ी नहीं खरीदी। आरव के बोर्ड एग्ज़ाम, उसकी कोचिंग की फीस… मैंने अपनी चूड़ियाँ तक गिरवी रख दी थीं, और फिर एक-एक करके छुड़ाई।
जब आरव 16 का था, मैंने एक छोटा सा फैसला किया था। मैं एक ‘वेडिंग फंड’ बनाऊँगी। किसी को बताए बिना। टिफिन सर्विस से आई कमाई, छुट्टियों में लिए गए स्पेशल ऑर्डर, ऑफिस के बाद के होम बेकरी केक… थोड़ा-थोड़ा जोड़कर सालों में वो रक़म बड़ी होती गई। एफडी, आरडी, फिर एक समर्पित अकाउंट। मैंने कागज़ात भी सहेज कर रखे। कोई नहीं जानता था, क्योंकि किसी को जानना ज़रूरी नहीं था।
घर पहुँची तो शाम उतर रही थी। रसोई की पीली रोशनी में केतली रखी। भाप उठने लगी। मैंने लैपटॉप खोला। इनबॉक्स में ‘इवेंट कोऑर्डिनेशन – फाइनल अप्रूवल’ लिखा मेल ऊपर चमक रहा था। सुबह भेजा गया था। वही अंतिम पेमेंट लिंक, वही कन्फर्मेशन चेक बॉक्स, जिसे टिक किए बिना कुछ रिलीज़ नहीं होना था। सारे वेंडर, बैंक्वेट, कैटरिंग, डेकोर, साउंड, मेकअप, फोटोग्राफी… सबका कंसोलिडेटेड इनवॉइस।
और सबसे ऊपर वही लाइन जो मैंने महीनों पहले तय करवाई थी: “फाइनल साइन-ऑफ अप्रूवल क्लाइंट: मीरा सिन्हा।”
मैं कुर्सी पर सीधी बैठ गई। केतली से उठती भाप ने काँच पर हल्का धुंध बना दिया। मैंने टचपैड पर उंगलियाँ रखीं, स्क्रॉल किया। अंतिम ब्रेकअप। एडवांस पहले ही मेरे अकाउंट से गया था। फाइनल भुगतान पर मेरा ‘हाँ’ बाकी था। मेरा बेटा नहीं जानता था कि आखिरी कलम किसके हाथ में है। शायद किसी को पता नहीं था।
फोन साइड में वाइब्रेट हुआ। “आरव कॉलिंग”। उसका नाम चमका, फिर ठहर गया। मैंने उठाया नहीं। कितनी ही कॉल्स पहले भी तो मिस हुई थीं मेरी, जो उसने नहीं उठाईं।
मैंने स्क्रीन पर वापस नज़र डाली। ‘कन्फर्म’ का बटन था और उसके बगल में छोटा सा ‘डिक्लाइन’। मेरे अंदर एक शांत खाली जगह थी जिसमें शोर की जगह तर्क गूँज रहा था। उन्होंने कहा था, माँ के लिए सीट नहीं। मैंने उनकी आवाज़ सुनी, अपने भीतर उतारी और फिर अपने ही स्वर में जवाब पाया: अगर टेबल पर मेरे लिए जगह नहीं, तो उस टेबल का किराया भी मैं क्यों दूँ?
मैंने कर्सर ‘कन्फर्म’ से हटाकर ‘डिक्लाइन’ पर रोका। उंगली स्थिर रही। एक सेकंड… दो… तीन… बाहर कहीं किसी ने पटाखा चलाया होगा। हल्की सी आवाज़ आई, फिर चुप्पी।
मैंने क्लिक कर दिया।
स्क्रीन पर एक छोटा सा डायलॉग बॉक्स उभरा: “आर यू श्योर?”
जैसे दुनिया आखिरी बार पूछ रही हो। पक्का। मैंने गहरी साँस ली, चाय का घूँट लिया और ‘यस’ दबा दिया।
लैपटॉप की रोशनी स्थिर हो गई। केतली की सीटी बंद थी। मेरा दिल भी। उस क्षण मुझे किसी भी तरह की खुशी नहीं हुई। ना बदले का जोश, ना जीत का नशा। बस वो संतुलन, जो बहुत देर से एक तरफ झुका हुआ था, धीरे-धीरे अपने स्थान पर लौटता महसूस हुआ।
मैंने लैपटॉप बंद किया, खिड़की के पर्दे खींच दिए और रोशनी बुझा दी। कमरे में मेरी साँसें साफ सुनाई दे रही थीं। फोन फिर वाइब्रेट हुआ। इस बार अनजान नंबर। फिर दूसरा। फिर तीसरा। मैंने सबको साइलेंट पर डाल दिया। कल जो होगा देखा जाएगा। आज बस इतना जानना था: मैंने अपनी जगह, अपनी इज़्ज़त, अपनी आवाज़ किसी और के सर्टिफिकेट से नहीं, अपने निर्णय से तय की है।
रात गहराती गई। कहीं दूर से शहनाई की धुन की तरह ही हल्का शोर आता रहा। पर मेरे घर के भीतर शांति थी। मैं बिस्तर पर लेटी और आँखें बंद कर लीं। वही तीन शब्द बार-बार कानों में पड़े: सीट नहीं बनी। और हर बार मेरे भीतर से एक दृढ़ जवाब निकला: अब बनेगी भी नहीं। मैं अपनी टेबल खुद सजाऊँगी।
अगली सुबह, दुनिया बाहर वैसी ही थी, पर तूफान मेरे फोन की स्क्रीन पर था। मिस्ड कॉल्स, वेडिंग टीम के मैसेज, और अंत में ‘मल्होत्रा आंटीज ग्रुप’ जैसे किसी ग्रुप से मैसेज। मैंने शांति से अदरक वाली चाय बनाई। दरवाज़े की घंटी बजी, लगातार और ज़ोर से।
एक युवा रिपोर्टर थी, साथ में एक टीवी वैन। “मीरा सिन्हा जी?” उसने विनम्रता से पूछा, कैमरा ऑन था। “कहानी वायरल हो रही है। क्या यह सच है…”
“यह लाइव है?” मैंने सीधे पूछा।
“शाम के बुलेटिन के लिए,” वो बोली। “बस एक लाइन, आपने ऐसा क्यों किया?”
मैंने चाय का एक घूँट लिया। “जब कोई कहे कि टेबल पर तुम्हारी जगह नहीं,” मैंने शांति से कहा, “तो टेबल वापस ले लेना चाहिए।”
मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया। बाहर का शोर बढ़ने लगा था। वेंडर्स के मैसेज आने लगे: “मैडम, फाइनल अप्रूवल रुका हुआ है। अगर आज क्लियर नहीं हुआ तो कल की बुकिंग अपने आप रिलीज़ होगी।” हर मैसेज एक याद दिला रहा था: बीती रात का क्लिक गुस्से का बटन नहीं था, एक अनुबंध का अधिकार था जिस पर मेरा नाम था।
सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो गया था जिसमें मैं वेन्यू से बाहर निकल रही थी। कमेंट्स की बाढ़ थी: ‘क्वीन मूव!’, ‘माँ को सीट नहीं तो पैसे भी नहीं!’, और तंज भी: ‘ड्रामा क्वीन’, ‘बेटे की लाइफ बर्बाद की’। घर लौटी तो दरवाज़े पर एक सफेद लिफाफा पड़ा था। अंदर कांपते हाथों से लिखी एक धमकी: “तुमने मेरी बेटी की ज़िंदगी बर्बाद की। तुम्हें इसकी कीमत देनी पड़ेगी।” मैंने कागज़ को मोड़ा और कूड़ेदान में डाल दिया। धमकियाँ जितनी तेज़ होती हैं, उतनी ही खोखली।
दरवाज़े की घंटी फिर बजी। इस बार आरव था। चेहरा उतरा हुआ, आँखें सूजी हुईं। “मॉम…”
“बैठो,” मैंने कहा। “मुझे पता नहीं था कि उन्होंने लिस्ट से…” वो बुदबुदाया।
“और तुमने पता लगाने की ज़रूरत भी नहीं समझी,” मैंने उसकी बात काटी। वो चुप। “मैं सब ठीक कर दूँगा,” उसने कहा।
“बिना सम्मान के क्या ठीक होता है, आरव?” मैंने उसकी आँखों में देखकर पूछा। वो नज़रें झुका गया।
तभी, मेरे फोन पर एक अनजान नंबर से व्हाट्सएप मैसेज आया: “लीगल नोटिस तैयार है। हर्जाना, मानहानि, ट्रैवल कॉस्ट, सब जोड़ेंगे। कल 11 बजे तक बात नहीं की तो कोर्ट।” नीचे दो लाल विस्मयादिबोधक चिह्न थे।
मैंने जवाब नहीं दिया। मैंने अपनी वकील, नंदिता मेहरा को फोन किया। “नंदिता, लीगल नोटिस आ गया है,” मैंने कहा।
“स्क्रीनशॉट भेजिए,” उसकी स्थिर आवाज़ आई। “और कोई कॉल बैक नहीं। अब से हमारी तरफ से ही बात होगी।”
नंदिता सिर्फ वकील नहीं थी, वो एक रणनीतिकार थी। उसने कॉन्ट्रैक्ट देखा और वो पंक्ति ढूँढ निकाली जिस पर मैंने ज़ोर दिया था: “यदि भुगतानकर्ता क्लाइंट को कार्यक्रम से व्यक्तिगत रूप से वंचित किया जाए, तो वह बिना कारण बताए संपूर्ण व्यवस्था रद्द कर सकती है।”
“यह केस का दिल है,” नंदिता ने कहा। “और यही टीवी पर जाएगा, ताकि कोई भावनात्मक ड्रामा बोलकर कानून को दबा ना दे।”
अगले दिन, यह कहानी एक पारिवारिक नाटक नहीं, एक कानूनी लड़ाई बन चुकी थी। एक टीवी चैनल ने एक कानूनी विशेषज्ञ को बुलाया, जिसने लाइव पुष्टि की: “यदि कॉन्ट्रैक्ट में फाइनल साइन-ऑफ क्लाइंट के नाम पर सुरक्षित है, और उसी क्लाइंट को इवेंट में एंट्री से वंचित किया जाता है, तो रद्द करने का अधिकार वैध बनता है। नैतिक भी, कानूनी भी।”
कलम उसी के पास थी जिसने भुगतान किया था।
उस रात, आरव का एक लंबा, उलझा हुआ ईमेल आया। “मैं बीच में फँस गया… सबको खुश करना चाहता था…” और फिर वो एक पंक्ति जिसने स्क्रीन की रोशनी ठंडी कर दी: “मॉम, मुझे लगता है मैंने उसे तुम्हारे ऊपर चुन लिया।”
मैंने सिर कुर्सी से टिका दिया। मैं जानती थी, कभी-कभी एक वाक्य ही सब कुछ तय कर देता है। मैंने छोटा सा जवाब टाइप किया: “बिना सम्मान के कुछ ‘ठीक’ नहीं होता, आरव। कल प्रेस के सामने सच सुना जाएगा। तुम चाहो तो पीछे नहीं, बगल में खड़े होना।”
धमकियाँ और भी घटिया हो गईं। मेरी रसोई की खिड़की से ली गई मेरी तस्वीर मुझे ईमेल की गई। फिर आरव की उसके ऑफिस में। मेरा फेसबुक अकाउंट हैक कर लिया गया और एक झूठी माफी पोस्ट की गई।
“बहुत हुआ,” नंदिता ने कहा। “अब हम हमला करेंगे।”
उसकी सलाह पर, मैंने अपनी कहानी खुद लिखी। गुस्से से नहीं, तथ्यों से। एक माँ का अकेला पालन-पोषण, एक गुप्त वेडिंग फंड, दरवाज़े पर हुआ अपमान, और आखिरी साइन-ऑफ का अधिकार। लेख एक बड़े डिजिटल पोर्टल पर छपा और आग की तरह फैल गया। जनमत का रुख पूरी तरह बदल गया।
ब्रांड्स ने रिया से दूरी बनानी शुरू कर दी। उसका ‘वेडिंग इन्फ्लुएंसर’ पेज शांत हो गया। अंत में, उन्होंने हार मान ली।
अगले दिन शाम 5 बजे, उसी बैंक्वेट हॉल में, दर्जनों कैमरों के सामने, रिया और उसकी माँ ने एक सार्वजनिक, लिखित माफी पढ़ी। उन्होंने अपने अपमानजनक व्यवहार को स्वीकार किया, कानूनी खर्चों का भुगतान करने पर सहमति जताई और मुझे बदनाम न करने का वादा किया।
जब सब खत्म हो गया, मैंने माइक लिया। मैंने बस एक पंक्ति कही: “जब लोग आपको मेज़ पर सीट न दें, तो अपनी खुद की मेज़ बनाइए।”
बाहर, आरव मेरा इंतज़ार कर रहा था। “मैंने सगाई तोड़ दी,” उसने कहा। “और… माफ करना माँ। मुझे यह कहने में बहुत देर हो गई।”
मैंने सिर हिलाया। “घर चलो, चाय पिएंगे।”
दो दिन बाद, मैंने बैंक्वेट हॉल को फोन किया। “वो तारीख मेरे लिए बुक रखिए,” मैंने कहा। “एक डिनर होगा। उन महिलाओं के लिए जिन्हें कभी कहा गया था ‘तुम्हारे लिए सीट नहीं’। इवेंट का नाम होगा: दूसरी मेज़।”
उस रात, वो लंबी मेज़ सजी, शादी के लिए नहीं, एकजुटता के लिए। वो औरतें, जिन्हें कभी हाशिये पर धकेल दिया गया था, एक साथ बैठीं। आरव, मेरा बेटा, वहाँ था, मेहमान के तौर पर नहीं, बल्कि सेवा करने वाले के तौर पर, एक मौन प्रायश्चित के रूप में।
उस मेज़ पर, मोमबत्तियों की रोशनी में, कोई फैसला नहीं था, सिर्फ समझ थी। और मुझे पता था कि यह मेज़, जिसे मैंने खुद बनाया था, मुझसे कोई नहीं छीन सकता।