आयशा की कहानी: एक नई शुरुआत की तलाश
आयशा, जो 7 महीने की गर्भवती है, एक साधारण लेकिन साफ सलवार कमीज पहने, रिसेप्शन पर खड़ी है। उसके चेहरे पर घबराहट और उम्मीद की मिलीजुली भावना है। वह अपने पेट पर एक हाथ रखकर उसे सहारा दे रही है, जैसे कि वह अपने बच्चे को इस कठिन समय में आश्वस्त करना चाहती हो। आज उसका एक महत्वपूर्ण दिन है, वह एक कंटेंट राइटर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू देने आई है। यह नौकरी उसके और उसके आने वाले बच्चे के लिए बहुत जरूरी है।
जब रिसेप्शनिस्ट उसे बताती है कि मिस्टर कबीर उसका इंटरव्यू लेंगे, आयशा एक गहरी सांस लेकर कैबिन नंबर तीन की ओर बढ़ती है। हर कदम के साथ उसकी धड़कनें तेज हो रही हैं। दरवाजे पर हल्के से दस्तक देने पर अंदर से आवाज आती है, “कम इन।” दरवाजा खोलते ही आयशा का सामना अपने पूर्व पति कबीर से होता है। उनका तलाक 6 महीने पहले हुआ था, और अब वह उसे इस हालत में देखकर स्तब्ध रह जाता है।
कैबिन में एक असहज खामोशी छा जाती है। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं, उनकी आंखों में हजारों अनकहे सवाल और पुराने जख्म हैं। कबीर खुद को संभालने की कोशिश करता है और आयशा से कहता है, “तुम प्लीज बैठो।” आयशा बिना कुछ कहे सामने वाली कुर्सी पर बैठ जाती है, उसकी नजरें नीचे झुकी हुई हैं। कबीर फाइल देखते हुए भी उसका ध्यान पूरी तरह आयशा पर है।
कबीर आयशा से पूछता है, “तुम इतने समय बाद काम क्यों शुरू करना चाहती हो?” यह सवाल उसके लिए एक तीर की तरह चुभता है, क्योंकि यह उस समय को याद दिलाता है जो उसने कबीर के साथ बिताया था। आयशा जवाब देती है, “जिम्मेदारियां इंसान को बहुत कुछ सिखा देती हैं, और कभी-कभी अकेले ही उन्हें निभाना पड़ता है।” कबीर को यह ताना समझ में आता है, और वह आयशा के पेट की तरफ देखता है, फिर नजरें हटा लेता है।
कबीर पूछता है, “तुम इस हालत में काम कैसे करोगी? यह एक तनावपूर्ण काम है।” आयशा उसकी आंखों में देखते हुए कहती है, “तनाव क्या होता है? यह मुझसे बेहतर कौन जानेगा, कबीर? जब आपका पति आपको सिर्फ इसलिए छोड़ दे कि आप उसके सपनों की उड़ान में एक बोझ बन रही हैं, तब तनाव का असली मतलब समझ आता है।” उसकी आवाज भर्रा जाती है, और कबीर के चेहरे का रंग उड़ जाता है।
आयशा कहती है, “कबीर, 6 महीने हो गए, तुमने एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मैं जिंदा हूं या मर गई। तुमने मुझे अपने बड़े घर और महंगी गाड़ियों के सपने के लिए बोझ समझा।” कबीर की आंखों से आंसू बहने लगते हैं। आयशा अपने आंसू पोंछकर खुद को संभालते हुए खड़ी होती है और कहती है, “मुझे यह नौकरी नहीं चाहिए, खासकर तुम्हारे रहम-ओ-करम पर। मैं यहां एक काबिल कैंडिडेट बनकर आई थी, तुम्हारी तलाकशुदा बीवी बनकर नहीं।”
वह अपना रिज्यूमे उठाकर कहती है, “मैं अपने बच्चे को अपने दम पर पाल लूंगी। उसे सिखाऊंगी कि जिम्मेदारियों से भागा नहीं जाता, उन्हें निभाया जाता है।” दरवाजे की तरफ मुड़ते हुए कबीर उसे रोकने की कोशिश करता है, “आयशा, रुको प्लीज। यह मेरा बच्चा है, मेरा भी उस पर हक है।”
आयशा बिना मुड़े कहती है, “हक तब जताया जाता है जब फर्ज निभाया गया हो।” यह कहकर वह दरवाजा खोलकर बाहर चली जाती है। कबीर वहीं खड़ा रह जाता है, उसकी दुनिया एक ही पल में उजड़ गई थी और एक नए अनचाहे सच से आबाद भी हो गई थी। वह अपनी कुर्सी पर बैठकर अपने हाथों में चेहरा छुपा कर रोने लगता है।
आयशा की यह कहानी हमें यह सिखाती है कि कभी-कभी हमें अपने हक के लिए लड़ना पड़ता है। रिश्तों में कठिनाइयाँ आती हैं, लेकिन आत्म-सम्मान और जिम्मेदारी का एहसास सबसे महत्वपूर्ण होता है। आयशा ने जो निर्णय लिया, वह न केवल उसके लिए बल्कि उसके आने वाले बच्चे के लिए भी एक नई शुरुआत की ओर इशारा करता है।
क्या आपको लगता है कि आयशा ने सही निर्णय लिया? अगर आप उसकी जगह होते, तो क्या करते? इस कहानी ने हमें यह सोचने पर मजबूर किया है कि हमें अपने सपनों और जिम्मेदारियों के लिए हमेशा खड़ा रहना चाहिए।