जयपुर में सर्दियों की एक सर्द सुबह थी, जब साठ साल के एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी, श्री राजेश खन्ना, अपने काँपते हाथों में नए हस्ताक्षरित संपत्ति के दस्तावेज़ लिए हुए थे।
बरसों से, उन्होंने अथक परिश्रम किया था—एक-एक रुपया बचाकर, छोटी-मोटी सुख-सुविधाओं से खुद को वंचित रखते हुए—उस दो मंजिला मकान को बनाने के लिए जिसमें वे अब रहते थे। उपनगरों में गर्व से खड़ा वह मकान उनके जीवन का काम, उनकी विरासत और बुढ़ापे का सहारा था।
लेकिन राजेश तर्कशील व्यक्ति होने से पहले एक पिता थे। प्यार और विश्वास के चलते, उन्होंने अभी-अभी अपने सबसे बड़े बेटे, अमित खन्ना और उनकी पत्नी, निशा को ज़मीन का मालिकाना हक हस्तांतरित किया था।
उन्होंने सोचा, “अब वे सुरक्षित महसूस करेंगे। यह सब उनके भविष्य के लिए है। अमित एक बेटे के रूप में अपने कर्तव्य को कभी नहीं भूलेगा।”
वह इससे ज़्यादा गलत नहीं हो सकते थे।
जैसे ही वे पंजीकरण कार्यालय से बाहर निकले, अमित ने ठंडे स्वर में उनकी ओर रुख किया।
“अब से पापा, प्लीज़ इस घर में दखलअंदाज़ी मत करना। अब ये मेरा और निशा का है। यहाँ तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है।”
राजेश जड़ हो गया। ये शब्द किसी भी ज़ख्म से ज़्यादा गहरे चुभ रहे थे।
“अमित… तुम क्या कह रहे हो? ये हमारा घर है।”
लेकिन अमित ने बस नज़रें फेर लीं।
कुछ ही घंटों में, राजेश ने खुद को एक छोटा सा बैग पैक करते हुए पाया—कुछ कपड़े, कुछ यादें।
अमित को पता नहीं था कि उन घिसी हुई कमीज़ों के बीच एक बैंक पासबुक छिपी थी—एक गुप्त बचत खाता जिसमें 10 करोड़ रुपये (करीब 1 करोड़) थे, जो सालों की अनुशासित बचत, सरकारी बॉन्ड और पेंशन रिटर्न से जमा हुए थे।
घर से बाहर जयपुर की ठंडी हवा में कदम रखते ही राजेश ने आखिरी बार पीछे मुड़कर देखा। जिस दरवाज़े को उसने कभी गर्व से रंगा था, अब उसके निर्वासन का प्रतीक बन गया था।
उस शाम, वह सड़क किनारे एक चाय की दुकान पर बैठा था, उसके हाथ ठंड से काँप रहे थे। दुकानदार ने बुज़ुर्ग को अकेला देखकर धीरे से पूछा:
“बाबा जी, इस समय आप कहाँ जा रहे हैं?”
राजेश हल्के से मुस्कुराया।
“बस… आराम करने की जगह ढूँढ रहा हूँ।”
उसे शहर के किनारे एक छोटा सा किराए का कमरा मिला—मुश्किल से दस वर्ग मीटर का, सीलन भरा और मंद रोशनी वाला।
लेकिन उसके लिए, वह साँस लेने की जगह थी।
हर सुबह, वह साइकिल से बाज़ार सब्ज़ियाँ खरीदने जाता, सादा खाना खाता और शामें पार्क की बेंच पर बैठकर बच्चों को खेलते हुए देखता।
उसने अपने बैंक में रखे दस करोड़ रुपये को कभी छुआ तक नहीं।
वह अपनी पेंशन पर, चुपचाप, किफ़ायत से, ज़िंदगी भर की तरह गुज़ारा करता रहा।
रात में, वह अक्सर सोचता:
“अगर अमित को पैसों के बारे में पता होता, तो क्या वह मेरे साथ अलग व्यवहार करता? या मैं अब भी उसके लिए बोझ ही रहता?”
यह सोचकर उसे बहुत दुःख हुआ, लेकिन उसने कड़वाहट को पनपने नहीं दिया।
एक दोपहर, राजेश अपने पुराने दोस्त, सेवानिवृत्त सहकर्मी, श्री शर्मा से मिलने गया। कहानी सुनने के बाद, शर्मा ने गहरी साँस ली।
“राजेश, तुमने पैसों को गुप्त रखकर सही किया। कुछ सबक मुश्किल से सीखने पड़ते हैं। लालच को अपने दिल में दोबारा जगह मत बनाने दो। अभी अपने लिए जियो।”
राजेश मंद-मंद मुस्कुराया। हालाँकि, उसकी आँखों में उसका दुःख साफ़ झलक रहा था।
“शायद। लेकिन अब भी, मेरे मन का एक हिस्सा उम्मीद करता है कि अमित को एहसास हो कि उसने क्या किया है—मेरी खातिर नहीं, बल्कि अपनी इंसानियत की खातिर।”
महीने बीत गए। आस-पड़ोस के लोग कानाफूसी करने लगे।
“उसने अपना घर अपने बेटे को दे दिया और उसे घर से निकाल दिया गया। बेचारा।”
“आजकल माता-पिता बहुत ज़्यादा भरोसा करते हैं। खून के रिश्ते अब कुछ मायने नहीं रखते।”
राजेश ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। वह अपने किराए के कमरे के बाहर गमलों में लगे छोटे-छोटे पौधों को पानी देता और पुराने हिंदी गाने गुनगुनाता रहता।
इस बीच, अमित की दुनिया बिखरने लगी।
जिस रियल एस्टेट व्यवसाय में उसने निवेश किया था, वह दिवालिया हो गया। कर्ज़ बढ़ता गया। घर—जो कभी उसकी शान का प्रतीक था—एक बोझ बन गया।
संग्रहकर्ता दरवाज़ा खटखटाने लगे। बैंक ने ज़ब्ती की धमकी दी।
हताशा में, अमित को अपने पिता की याद आई।
प्यार से नहीं।
बल्कि ज़रूरत से।
एक शाम राजेश ने अपने दरवाज़े पर दस्तक सुनी।
जब उसने दरवाज़ा खोला, तो अमित वहीं खड़ा था – अस्त-व्यस्त, पीला, उसकी आँखें अपराधबोध से भरी थीं।
“पापा… मुझे माफ़ करना। मुझसे गलती हो गई। कृपया घर वापस आ जाइए। आपके बिना घर सूना-सूना सा लगता है।”
राजेश ने चुपचाप उसकी तरफ़ देखा।
वह न चिल्लाया, न रोया।
उसने बस दो कप चाय डाली, एक मेज़ पर सरका दिया और कहा:
“बैठिए।”
घड़ी धीरे-धीरे चलती रही। दोनों में से कोई भी काफ़ी देर तक नहीं बोला।
पुरानी लकड़ी की शेल्फ पर, कुछ फाइलों के पीछे छिपी, दस करोड़ की पासबुक जस की तस पड़ी थी – सब कुछ की मूक गवाह।
जब वे वहाँ बैठे, तो हवा भारी थी – गुस्से से नहीं, बल्कि अनकहे सवालों से।
अमित ने अपना सिर नीचे कर लिया।
“पापा, मैं लालची था। मुझे लगता था कि मैं ज़्यादा जानता हूँ। मैं भूल गया था कि मुझे सब कुछ किसने दिया।”
राजेश आखिरकार शांत लेकिन स्थिर स्वर में बोला।
“बेटा, माफ़ी माँगने जैसी चीज़ नहीं है—यह बदलाव के ज़रिए साबित होती है।”
उसने पैसों का ज़िक्र नहीं किया।
उसने उन रातों का ज़िक्र नहीं किया जो उसने अकेलेपन में बिताई थीं।
उसने बस इतना कहा:
“अमित, तुम्हें अपना घर फिर से बनाना है—ईंटों से नहीं, बल्कि प्यार से।”
उस रात, अमित के जाने के बाद, राजेश खिड़की के पास बैठा जयपुर की टिमटिमाती रोशनियों को घूर रहा था।
उसने अलमारी से पासबुक निकाली, उसे बहुत देर तक पकड़े रखा, और खुद से फुसफुसाया:
“शायद एक दिन, उसे असली दौलत का मतलब समझ आ जाएगा।”
किसी को नहीं पता कि उस दिन के बाद राजेश ने क्या फैसला किया—क्या उसने अमित को पैसों से मदद की या उसे आखिरी साँस तक छिपाए रखा।
लेकिन पड़ोसियों का कहना है कि अपने आखिरी सालों में वह ज़्यादा मुस्कुराते रहते थे।
उन्हें गुमनाम रूप से अनाथालयों को दान देते और शहर में “द खन्ना फ़ाउंडेशन फ़ॉर द एल्डरली” नाम से एक छोटी सी लाइब्रेरी बनवाते देखा गया।
शायद यही उनका अपना बेटा भूला हुआ सबक सिखाने का तरीका था। “भारत में कहते हैं: ‘धन से बड़ा रिश्ता होता है, और रिश्तों से बड़ा ईमान।’ श्री राजेश खन्ना ने अपना घर तो खो दिया, लेकिन अपनी इज्जत नहीं।
उन्होंने अपने बेटे का सम्मान तो खो दिया, लेकिन अपनी करुणा नहीं।
क्योंकि असली दौलत बैंक खातों में बंद नहीं होती—
वह उस दिल में होती है जो माफ़ कर देता है,
भले ही दुनिया इसके लायक न हो।