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      My husband insulted me in front of his mother and sister — and they clapped. I walked away quietly. Five minutes later, one phone call changed everything, and the living room fell silent.

      27/08/2025

      My son uninvited me from the $21,000 Hawaiian vacation I paid for. He texted, “My wife prefers family only. You’ve already done your part by paying.” So I froze every account. They arrived with nothing. But the most sh0cking part wasn’t their panic. It was what I did with the $21,000 refund instead. When he saw my social media post from the same resort, he completely lost it…

      27/08/2025

      They laughed and whispered when I walked into my ex-husband’s funeral. His new wife sneered. My own daughters ignored me. But when the lawyer read the will and said, “To Leona Markham, my only true partner…” the entire church went de:ad silent.

      26/08/2025

      At my sister’s wedding, I noticed a small note under my napkin. It said: “if your husband steps out alone, don’t follow—just watch.” I thought it was a prank, but when I peeked outside, I nearly collapsed.

      25/08/2025

      At my granddaughter’s wedding, my name card described me as “the person covering the costs.” Everyone laughed—until I stood up and revealed a secret line from my late husband’s will. She didn’t know a thing about it.

      25/08/2025
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    India Story

    जिसे हर कोई ठुकरा रहा था… लेकिन करोड़पति महिला ने थाम लिया उसका हाथ.. फिर..

    rinnaBy rinna09/10/202515 Mins Read
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    जिसे सब ठुकरा रहे थे, उसी का हाथ करोड़पति महिला ने थाम लिया

    छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के एक छोटे से गांव में सुशील का परिवार रहता था। परिवार साधारण था—पिता किसान, मां गृहिणी, एक छोटी बहन निकिता और बड़ा बेटा सुशील। बचपन से ही सुशील जिम्मेदार था। वह गांव के स्कूल में पढ़ता, दोस्तों के साथ मिट्टी में खेलता और हर रोज दिल में यह ख्याल रखता कि एक दिन वह अपने माता-पिता का सहारा बनेगा।

    घर की आमदनी सीमित थी, पर प्यार और सुकून से भरा था। लेकिन ज़िंदगी कब करवट बदल दे, कोई नहीं जानता। सुशील जैसे ही 12वीं में जाने की तैयारी कर रहा था, उसके पिता अचानक बीमार पड़ गए। शुरुआत में सबको लगा साधारण बुखार है, लेकिन बीमारी गहरी होती गई। इलाज के लिए रायपुर शहर जाना पड़ा। डॉक्टरों ने कहा, इलाज लंबा चलेगा और खर्च भी बहुत होगा।

    घर की सारी बचत, मां के गहने, सब गिरवी रख दिए गए। सुशील ने पढ़ाई छोड़कर पिता की सेवा शुरू कर दी। बीमारी दिन-ब-दिन बढ़ती गई। गांव वाले शुरू में सहानुभूति जताते, लेकिन धीरे-धीरे सवाल करने लगे—इतना पैसा कहां से आएगा? कब तक चलेगा यह? सुशील का दिल बैठ जाता, लेकिन पिता को देखते ही खुद को मजबूत कर लेता।

    एक दिन साहूकार ने सलाह दी—जमीन बेच दो, खर्च निकल आएगा। मजबूरी ने पिता को झुका दिया। पुश्तैनी जमीन बिक गई। सुशील के हाथ में पैसे तो आए, पर दिल टूट गया। गांव की मिट्टी, खेतों की खुशबू—सब छिन गया। फिर भी पिता नहीं बच पाए। सात साल तक बीमारी से लड़ने के बाद उन्होंने दम तोड़ दिया। घर में मातम छा गया। मां की आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं लेते। निकिता रो-रो कर भाई से पूछती—भैया, अब हमारा क्या होगा?

    पिता की शोक सभा के बाद असली संकट सामने आया। कर्जदार घर पर आने लगे। कोई कहता—पैसा दो, कोई कहता—घर खाली करो वरना कब्जा कर लेंगे। सुशील जानता था, उसके पास कुछ नहीं बचा। ना जमीन, ना पैसा, ना गहना। सिर्फ एक टूटा-फूटा घर, उम्मीदें और बहन की शादी की जिम्मेदारी। मां ने उसे सांत्वना दी—ऊपर वाला सब देख रहा है, जो भाग्य में लिखा है वही होगा। लेकिन सुशील को तसल्ली नहीं मिली। वह सोचने लगा—अगर मैं कुछ नहीं करूंगा तो मां-बहन को कौन संभालेगा? कौन देगा यह कर्ज?

    आखिर उसने ठान लिया—रायपुर जाऊंगा, कोई भी काम करूंगा, पैसा लाऊंगा, घर का बोझ उठाऊंगा। दूसरे दिन सुबह मां से विदा ली, थोड़ा सा खाना बांधा और बस से रायपुर शहर निकल पड़ा। दिल में डर भी था, उम्मीद भी। गांव की पगडंडी से शहर की चौड़ी सड़क तक का यह सफर उसके जीवन की सबसे बड़ी यात्रा बनने वाला था।

    शहर की सड़कों पर उतरते ही सुशील को अजीब सा खालीपन महसूस हुआ। गांव की साफ हवा, टूटती-फूटती सड़कें, अपने लोगों का स्नेह छोड़कर वह जिस दुनिया में आया था, वह अजनबी थी, तेज थी और कभी-कभी बेरहम भी। ऊंची इमारतें उसकी निगाहें चुरा लेतीं, दुकानें रंग-बिरंगी रोशनी से चमकतीं और लोग किसी मंजिल की ओर भागते नज़र आते। सुशील के पास शहर में रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी। उसने सोचा—पहले काम मिल जाए, फिर रहने की सोचना।

    वह उन इलाकों में पहुंच गया जहां कॉलोनियों में बड़ी-बड़ी हवेलियां थीं। उसे लगा—ऐसी जगहों पर नौकर रखने की जरूरत होगी। दिन की शुरुआत उत्साह भरी थी। एक-एक बंगले के गेट पर जाकर खटखटाया। किसी से विनती की, अपने परिवार की हालत बताकर काम मांगा। शुरुआत में कई लोग दरवाजे के पीछे से झांकते और फिर बिना कोई बात किए दरवाजा बंद कर देते। कुछ नम्र स्वर में कहते—यहां तो पहले से लोग लगे हैं, हमें किसी की जरूरत नहीं। कुछ लोग शक भरे स्वर में पूछते—अजनबी हो, क्यों आए हो? उनके शब्दों में ठंडी दूरी थी, मानो शहर की हवा ने भी दीवार खड़ी कर ली हो।

    दिन पूरी तरह निकल गया। शाम की हल्की रोशनी आई तो थकान और निराशा ने सुशील को जकड़ लिया। पेट में भूख थी, मगर उससे ज्यादा डर था—मां-बहन का कर्ज कैसे चुकाएगा? कमरे में रात बिताने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। वह एक चौपाल के पास बैठ गया और लोगों की चर्चा सुनता रहा। किसी घर में शादी हो रही थी, कोई बच्चों के साथ हंस रहा था। सबका जीवन उसकी नजर में जैसे एक फिल्म था, पर उसमें सुशील का किरदार कहां?

    दूसरे दिन फिर कोशिश की। सुबह से दोपहर तक कई घरों के दरवाजे खटखटाए। किसी ने दरवाजा खोला तो डर के मारे अंदर घुस गया, कुछ नहीं कहा। किसी ने कहा—हम सेवा के लिए नहीं रखते, यहां भरोसा चाहिए। कुछ ने बस औरत की आवाज में कहा—अच्छा, जाओ किसी और जगह चले जाओ। हर मना करने के बाद उसके कदम भारी होते गए, पर दिल में उम्मीद की एक टिमटिमाती लौ थी। एक जगह तो मिलेगी।

    एक कॉलोनी में उसने देखा—बाहरी गेट पर खूबसूरती से बना बड़ा सा घर, गार्ड, फूलों की सजावट। वह वहां खटखटाने गया। गार्ड ने उसकी तरफ झुर्रीदार निगाह से देखा—क्या चाहिए? सुशील ने जवाब दिया—काम चाहिए, किसी भी तरह का। मैं देखभाल, खाना बनाना, सफाई—जो चाहिए कर लूंगा। मेरे घर में जिम्मेदारियां हैं, बहन की शादी और मां का साया। कृपया मदद कर दीजिए।

    गार्ड ने थोड़ी देर देखा और दरवाजा थोड़ा सा खोल दिया। भीतर से एक औरत आई, मध्यम आयु की, चेहरे पर थकावट, पर आंखों में मजबूती। वह थी रंजू देवी, इसी कॉलोनी की नामी महिला। उसके पति लंबे समय से बीमार थे, कंपनी भी धीमी पड़ गई थी। रंजू देवी ने पूछा—तुम कौन हो, किस काम की तलाश है? सुशील ने अपना हाल बयां कर दिया—गांव में पिता की बीमारी, सारा धन खत्म, घर पर कर्ज, जिम्मेदारियां। उसकी आवाज में सच्ची मजबूरी थी।

    रंजू देवी ने उसकी आंखों में देखा, कुछ पल रुकी। फिर बोली—मेरे पति लंबे समय से बिस्तर पर हैं, दिन-रात देखभाल नहीं हो पाती। हमें एक भरोसेमंद आदमी चाहिए, जो घर के काम और पति की देखभाल कर सके। तुम कर लोगे? सुशील का दिल छलांग लगा उठा। उसने बिना देर किए कहा—मैडम, मैं सब कर लूंगा। बस काम दीजिए।

    रंजू देवी ने सोचकर कहा—ठीक है, अगर तेरे मन में जिम्मेदारी है तो आ जाओ। पहले कुछ दिनों का ट्रायल रहेगा। यही क्षण सुशील की जिंदगी का पहला मोड़ था। वह घर में दाखिल हुआ। बड़े हॉल में बिखरे दस्तावेज, एक तरफ बिस्तर पर वृद्ध शख्स। रंजू देवी के चेहरे पर चिंता थी—कंपनी का बोझ और पति की हालत दोनों ने उसे थका दिया था।

    सुशील को छोटा कमरा और खाने-पीने की व्यवस्था मिली। काम की शर्तें तय हुईं। सुशील ने जो ₹1000 मांगे थे, रंजू देवी ने कहा—कम है, मैं तुम्हें ₹20,000 दूंगी, लेकिन काम पूरा समर्पण से करना होगा। सुशील ने खुशी से हामी भरी। उसके लिए यह राशि किसी वरदान से कम नहीं थी।

    पहले हफ्ते में उसने सुबह उठकर बिस्तर की देखभाल, दवाइयां, सफाई और कंपनी के कागजों में छोटी-छोटी मदद की। देखा कि रंजू देवी रात-दिन सक्रिय रहती, कंपनी के क्लर्क से मिलती, फाइलें संभालती और फिर पति की हालत देखती। धीरे-धीरे महीनों के साथ सुशील का भरोसा उसकी पहचान बन गया। वह कभी देर से काम नहीं करता, पति को पलटने में मदद करता, दवाइयां समय पर देता और छोटे-मोटे कामों में हाथ बंटाता।

    रंजू देवी ने सीसीटीवी कैमरों की मदद से कुछ हफ्तों तक उसकी निगरानी की। सचमुच भरोसा होने लगा। सुशील की ईमानदारी ने रंजू देवी के दिल पर असर किया। उसने देखा—यह लड़का सिर्फ तनख्वाह के लिए नहीं, बल्कि परिवार की जिम्मेदारी से जूझते हुए आया है। उसने सुशील को अपने घर का हिस्सा समझना शुरू कर दिया। वहीं सुशील भी अपने अंदर एक अजीब जुड़ाव महसूस करने लगा। रातों में वह बीमार मरीज की तकलीफों से जूझता, रंजू देवी की छोटी-छोटी चिंता के पल देखता, तो दिल में कोई नरम स्थान जगता, पर खुद को बार-बार कहता—तू यहां काम करने आया है, भावनाओं में मत पड़।

    समय के साथ मेहनत का फल दिखने लगा। परिवार के लिए पैसे भेजे जाने लगे, रोजमर्रा के खर्च कम हुए, कर्जदारों का दबाव भी कम हुआ। निकिता की शादी की तैयारी शुरू हुई। सुशील ने कुछ रिश्ते देखे, चुनने की कोशिश की, पर दिल में उलझन बनी रही—कहीं मेहनत के साथ-साथ कुछ और भी बदल रहा था।

    एक शाम जब घर का माहौल सामान्य था, रंजू देवी ने ध्यान से सुशील से कहा—तुम्हारी आवाज में उस बात की झलक है जो तुम छिपाते हो। तुम अपने परिवार के लिए गहरे जूझ रहे हो। सुशील ने झट से कहा—मैडम, मेरा काम है आपकी सेवा, बाकी सब बातें बाद में। लेकिन रंजू देवी चुप नहीं रही। उसने कहा—क्या तुमने सोचा है, आने वाला जीवन क्या होगा? तुम्हारे और तुम्हारे परिवार की जिम्मेदारी…

    रंजू देवी की नजरों में भरोसा और कुछ अधिक था। सुशील ने मुस्कुराकर कहा—मैडम, मैं सब कुछ कर लूंगा, आप चिंता मत कीजिए। दोनों के बीच अब एक बंधन बन चुका था, जितना समय बीतता गया, उतना ही वह मजबूत होता गया।

    कहानी में हमेशा सब कुछ सुचारू नहीं चलता। आगे आने वाले पल दोनों के लिए नए सबक लेकर आए। कठिन फैसले, समाज की नजरों का सामना और एक ऐसे मोड़ का इंतजार, जहां प्यार, जिम्मेदारी और मजबूरी तीनों एक साथ टकराएंगे।

    रंजू देवी के पति की हालत बिगड़ने लगी। डॉक्टरों ने कहा—अब ज्यादा उम्मीद मत रखिए। एक रात सुशील दवा देने गया, देखा—सांसें धीमी हो गईं। डॉक्टर बुलाया गया। कुछ ही देर बाद डॉक्टर ने सिर झुकाकर कहा—अब यह हमारे बीच नहीं रहे। घर में सन्नाटा छा गया। रंजू देवी टूटकर जमीन पर बैठ गई। सुशील ने उन्हें थाम लिया, पर खुद भी अंदर से बिखर गया।

    अगले दिन शोक सभा हुई, रिश्तेदार आए, रोना-धोना हुआ, सब लौट गए। जब भीड़ छंट गई, घर में सिर्फ तीन लोग रह गए—रंजू देवी, सुशील और अकेलापन। शोक सभा के तीन दिन बाद सुशील ने अपना सामान बांधना शुरू किया। सोच रहा था—अब यहां रहने का क्या मतलब? नौकरी जिस वजह से मिली थी, वह तो खत्म हो गई।

    जैसे ही वह बाहर निकलने लगा, अचानक पीछे से आवाज आई—सुशील! रंजू देवी खड़ी थी, आंखें लाल थीं, चेहरे पर उदासी थी। वह दौड़कर आई और सुशील का हाथ पकड़ लिया—तुम कहां जा रहे हो? सुशील ने सिर झुका कर कहा—मैडम, जिस काम के लिए आपने रखा था, वह तो अब खत्म हो गया। मुझे यहां रहना शोभा नहीं देता।

    रंजू देवी की आंखें भर आईं—सुशील, तुम मत जाओ। तुम्हारे बिना यह घर मुझे काटने को दौड़ेगा। जब रिश्तेदार चले गए, तब मुझे समझ आया—यहां सिर्फ तुम हो, जिस पर मैं भरोसा कर सकती हूं। तुम रहो, मैं तुम्हें वही तनख्वाह दूंगी, बस मत जाओ।

    सुशील हैरान रह गया। वह सोच भी नहीं सकता था कि करोड़पति महिला उससे ऐसा कहेंगी। लेकिन उसके दिल में कहीं एक आवाज उठी—तुम भी तो इसी घर के हिस्से हो चुके हो। आखिरकार उसने रुकने का फैसला किया।

    दिन गुजरते गए। अब घर में कोई बीमार शख्स नहीं था, लेकिन खालीपन बड़ा था। सुशील रंजू देवी के छोटे-मोटे काम करने लगा—कभी दफ्तर से कागज लाना, कभी बाजार से सामान। वह हर समय मौजूद रहता। धीरे-धीरे उनके बीच अनकहा लगाव बनने लगा। जब रंजू देवी थक कर लौटती, सुशील चाय बनाकर दे देता। कभी मजेदार बातें करता, कभी मां-बहन की खबरें बताता। रंजू देवी को लगता—यह लड़का उनके अकेलेपन का सहारा बन गया है।

    जहां प्यार होता है, वहां टकराव भी आता है। एक दिन मोहल्ले की किसी औरत ने ताना मार दिया—रंजू, तुम्हारे घर में यह नौजवान दिन-रात क्यों रहता है? लोग बातें बना रहे हैं। रंजू देवी ने अनसुना करने की कोशिश की, लेकिन रात को बेचैन हो गई। सोचने लगी—क्या सच में लोग गलत सोच रहे हैं? क्या मैं गलत हूं?

    सुशील ने उनकी परेशानी भांप ली। उसने कहा—मैडम, अगर मेरी वजह से आपको परेशानी हो रही है, तो मैं चला जाता हूं। रंजू देवी घबरा गई—नहीं, तुम कहीं मत जाओ। लोग क्या कहते हैं, मैं नहीं देखती। मुझे सिर्फ यह दिखता है कि तुमने मेरी जिंदगी को संभाला है।

    उनकी आंखों से आंसू बह निकले। सुशील का दिल भी भीग गया, लेकिन उसने खुद को रोका—मैडम, आप बड़ी हैं, मैं छोटा। मेरा और आपका मेल नहीं। उस रात रंजू देवी करवटें बदलती रहीं, सुशील का चेहरा बार-बार सामने आता रहा।

    सुबह उठते ही उन्होंने निश्चय कर लिया—अब वह अपने दिल की बात कहेंगी। अगले दिन जब सुशील चाय लेकर आया, रंजू देवी ने कहा—सुशील, मैंने तुम्हारे बिना रहकर देख लिया। मैं एक दिन भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। क्यों न हम दोनों शादी कर लें?

    सुशील चौंक गया—मैडम, आप… आप मुझसे शादी? यह कैसे हो सकता है? आप करोड़पति हैं, मैं तो गांव का गरीब लड़का। हमारा कोई मेल नहीं है। रंजू देवी ने दृढ़ स्वर में कहा—मुझे नहीं पता मैं अमीर हूं या गरीब। मुझे बस इतना पता है कि तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी अधूरी है। तुम कहो, क्या तुम मुझसे शादी करोगे?

    सुशील का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वह जानता था, वह भी मन ही मन रंजू देवी को चाहने लगा था। लेकिन उसकी आंखों में मां और बहन का चेहरा घूम गया। उसने धीरे से कहा—मैडम, शादी का फैसला मेरा अकेला नहीं होगा। मेरी मां की मर्जी सबसे ऊपर है। अगर मां राजी होंगी, तभी मैं हां कह सकता हूं।

    रंजू देवी ने तुरंत कहा—तो अभी फोन लगाओ। मैं खुद सुनना चाहती हूं। सुशील ने कांपते हाथों से फोन मिलाया। मां की आवाज आई—बेटा, सब ठीक तो है? सुशील ने हिचकते हुए सब बता दिया—रंजू देवी का प्रस्ताव, उनकी अच्छाई, उनका सहारा और बहन निकिता की शादी की जिम्मेदारी लेने का वादा।

    मां कुछ पल चुप रहीं, फिर बोलीं—बेटा, अगर यह औरत इतनी नेक है कि तेरा और तेरी बहन का जीवन संभालने को तैयार है, तो मैं क्यों रोकूं? तू वही कर जो तेरे दिल को सुकून दे।

    सुशील की आंखें भर आईं। अब फैसला साफ था। लेकिन उसने कहा—मैडम, पहले मेरी बहन की शादी करनी होगी, उसके बाद ही मैं आपकी शादी के बारे में सोच सकता हूं। रंजू देवी ने मुस्कुराकर कहा—ठीक है, मैं इंतजार करूंगी। पहले निकिता की शादी होगी, फिर हमारी।

    अब सुशील का जीवन एक नए मोड़ पर था। उसने गांव जाकर रिश्ते देखने शुरू किए। कई लोग उसकी गरीबी देखकर पीछे हट गए। कुछ ने सीधे कह दिया—दहेज कितना दोगे? सुशील का खून खौल उठा, लेकिन उसने खुद को संभाला। आखिरकार एक अच्छे परिवार से रिश्ता तय हो गया। लड़का पढ़ा-लिखा और समझदार था।

    रंजू देवी ने खुद आगे बढ़कर कहा—खर्च की चिंता मत करो, सब मैं करूंगी। शादी की तैयारियां शुरू हो गईं। गांव के लोग हैरान थे—इतना खर्च कहां से आया? सुशील कब से इतना संपन्न हो गया? पर सुशील चुप रहा। उसे किसी को सफाई देने की जरूरत नहीं थी। बस दिल में खुशी थी कि बहन की जिंदगी सुरक्षित हाथों में जा रही है।

    शादी का दिन आया, ढोल नगाड़े बजे, घर-आंगन सज गया। मां की आंखों में आंसू थे—खुशी के। निकिता ने भाई के गले लगकर कहा—भैया, अगर तुम ना होते तो मैं आज यह दिन कभी ना देख पाती। सुशील ने बहन के सिर पर हाथ रखा—अब तेरा घर तेरा ससुराल है, खुश रहना।

    शादी धूमधाम से पूरी हुई। मां ने राहत की सांस ली। पिता की तस्वीर के सामने दिया जलाकर कहा—देखिए जी, हमारी बेटी का घर बस गया।

    अब बारी थी सुशील और रंजू देवी की। शादी का नाम आते ही रिश्तेदारों और गांव वालों ने कानाफूसी शुरू कर दी—अरे, सुशील तो नौकर था उस औरत का। करोड़पति विधवा और गरीब लड़का, यह रिश्ता कैसे हो सकता है? यह तो समाज के खिलाफ है।

    लेकिन सुशील ने ठान लिया था—अब वह पीछे नहीं हटेगा। उसे मां का आशीर्वाद और रंजू देवी का साथ मिल चुका था। उसने सबको जवाब दिया—जिस औरत ने मेरे मुश्किल वक्त में मेरा साथ दिया, मेरी बहन का हाथ थाम लिया, वही मेरी जिंदगी की सच्ची साथी है। बाकी लोग क्या कहते हैं, मुझे परवाह नहीं।

    मां ने भी दृढ़ आवाज में कहा—अगर रंजू ने मेरे बेटे को सहारा दिया है, तो वह मेरे लिए बेटी समान है। मैं इस रिश्ते के खिलाफ नहीं हूं।

    धीरे-धीरे विरोध की आवाजें धीमी होने लगीं। शादी का दिन आया। मंडप सजा, रंजू देवी ने लाल साड़ी पहनी, माथे पर सिंदूर। सुशील साधारण धोती-कुर्ता में था, लेकिन चेहरे पर आत्मविश्वास चमक रहा था। मंडप में जब दोनों ने एक-दूसरे को वरमाला पहनाई, तो हर किसी की आंखें नम हो गईं। लोगों ने समझ लिया—यह रिश्ता सिर्फ अमीर-गरीब का नहीं, बल्कि भरोसे और इंसानियत का है।

    विवाह पूरा हुआ। मां ने बेटे-बहू को आशीर्वाद दिया। निकिता और उसके पति भी खुशी-खुशी शामिल हुए। शादी के बाद सुशील अपनी मां को भी रायपुर ले आया। अब घर में फिर से रौनक लौट आई। रंजू देवी ने सुशील को अपनी कंपनी में अहम पद दिया। भले ही वह बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन जिम्मेदारियों को निभाने की उसकी आदत कंपनी को संभालने में मददगार साबित हुई।

    कुछ सालों बाद रंजू देवी और सुशील के घर एक बेटे ने जन्म लिया। पूरा परिवार खुशी से झूम उठा। मां ने पोते को गोद में उठाकर कहा—अब मेरा जीवन सफल हो गया।

    आज सुशील और रंजू देवी की कहानी रायपुर ही नहीं, पूरे इलाके में मशहूर हो गई। लोग कहते—देखो, कैसे एक गरीब लड़के ने ईमानदारी और मेहनत से किस्मत बदल दी। पैसा ही सब कुछ नहीं होता, इंसानियत सबसे बड़ा धन है।

    सुशील खुद कई बार सोचता—अगर मैंने उस दिन हार मान ली होती, दरवाजे खटखटाना छोड़ दिया होता, तो शायद आज यह जीवन कभी ना मिलता।

    इस कहानी से यही सीख मिलती है—जिंदगी चाहे कितनी भी कठिन क्यों ना हो, अगर इंसान मेहनत और सच्चाई के रास्ते पर डटा रहे तो किस्मत भी एक दिन उसका साथ देती है। रिश्ते खून या जाति से नहीं, भरोसे और इंसानियत से बनते हैं।

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