कहानी का नाम: खामोश सबूत
मेरा नाम कमला देवी है। मेरी उम्र 73 साल है। मैं लखनऊ में अकेली रहती हूँ। आज सुबह मैंने सोचा अपने बेटे मनीष का लैपटॉप साफ कर दूँ। उसने ही कहा था, “माँ, थोड़े पुराने फाइल हटा देना, फोटो फोल्डर ठीक कर देना। स्लो चलता है।”
मैंने चश्मा लगाया, पावर बटन दबाया। स्क्रीन नीली रोशनी में चमकी। मन में बस यही था, कुछ फालतू फाइलें हटानी हैं। बस। डेस्कटॉप खुला। नीचे एक छोटा नोट भी दिखा, “मॉम विजिट – फ्राइडे 4 p.m.”। मैं मुस्कुराई, यह तो मेरा ही शेड्यूल है। फिर डाउनलोड्स खोला। अंदर कई रसीदें और पीडीएफ थे। एक पीडीएफ पर नज़र अटकी: “केमिस्ट_जॉन_बिल_7pm.pdf”। मैंने क्लिक किया। बिल खुला। दवा के नाम थे, पर रकम भारी थी और तारीख कल रात की। कल रात 7 बजे दवा, किसके लिए?
फिर मैंने ब्राउज़र खोला। हिस्ट्री में ऊपर-ऊपर नज़र दौड़ाई। “पेंशन नॉमिनी बदलना कैसे?”, “हेल्थ इंश्योरेंस क्लेम”, “सीनियर केयर होम”, “गायब व्यक्ति, कितने दिन में रिपोर्ट?” मेरा गला सूख गया। यह क्यों पढ़ रहा है? मैंने खुद को समझाया, आईटी में काम करता है, रिसर्च भी हो सकती है।
मैंने पिक्चर्स खोला। “आईडी स्कैन्स” पर उंगली रुक गई। अंदर मेरे आधार कार्ड की पुरानी स्कैन कॉपी और साथ में मेरी क्रिसमस वाली फोटो का क्रॉप, सिर्फ चेहरा। फाइल का नाम था “Ref_Profile_01_Done.jpg”। मेरे चेहरे की अलग से क्रॉप फाइल क्यों?
डॉक्यूमेंट्स में एक “नोट्स” फोल्डर था। अंदर एक टेक्स्ट फाइल खुली। तीन लाइनें साफ दिखीं:
- इंश्योरेंस अपडेट – नॉमिनी।
- डॉक्टर कॉल re: मॉम।
- डोर कैम बैटरी रिप्लेस।
पहली दो लाइनें पढ़कर मेरी उंगलियाँ ठंडी पड़ गईं। मेरे बारे में डॉक्टर क्यों?
मेज पर रखा मेरा छोटा सा पेनड्राइव मुझे दिख गया। मन ने कहा, जो शक है, सब सुरक्षित रख लो। अभी कोई सामना नहीं। मैंने धीरे से पेनड्राइव लगाया, एक नया फोल्डर बनाया और डाउनलोड्स के बिल, नोट्स की चेक-लिस्ट और “Ref_Profile_01” सब कॉपी में डाले। प्रोग्रेस बार आया: 15%… 22%…
तभी स्क्रीन के किनारे WhatsApp वेब का पॉपअप चमका:
- Dr. P. Mehta: प्रिस्क्रिप्शन सेंट।
- Shiv Medico: ऑर्डर रेडी, कलेक्ट।
मेरी साँस अटक गई। प्रिस्क्रिप्शन किसका? मुझे तो किसी नई दवा की ज़रूरत नहीं थी। कॉपी 48% पर थी। मैंने ब्राउज़र हिस्ट्री की एक और लाइन देखी: “माँ ब्लड प्रेशर चेक – 7 p.m. – कैलेंडर”। कोई मेरी दिनचर्या भी नोट कर रहा है।
74%… एक और फाइल आँखों के सामने आई: “Appointments.png”। खोला तो मोबाइल स्क्रीनशॉट था। कॉल लॉग। ऊपर-ऊपर दो कॉल “Dr. P. Mehta”। और एक कॉल “उषा आंटी – ऑन बिहाफ ऑफ माम”। मैं हड़बड़ा गई। उषा भाभी से किसने बात की, मेरी तरफ से?
87%… तभी नीचे गेट की हल्की चरमराहट सुनाई दी। हमारी सीढ़ियों की तीसरी पायदान हमेशा ‘कर्र’ करती है। दो सेकंड बाद वही आवाज़ आई। किसी के चढ़ने की। मेरी धड़कन गले तक आ गई। आज तो उसे देर रात लौटना था।
95%… 100%। “कॉपी कंप्लीट” लिखा आया। मैंने फौरन पेनड्राइव इजेक्ट किया, उसे अपनी स्वेटर की जेब में सरका दिया और फैमिली फोटोज का साधारण सा फोल्डर खोला।
दरवाज़े पर चाबी घूमने की आवाज़ साफ आई। मैंने कुर्सी से उठकर गला साफ किया, चेहरे पर सामान्य सी मुस्कान लाई, हाथों की हल्की थरथराहट दुपट्टे के पल्लू में छिपा ली।
दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला। मनीष भीतर आया। “अरे माँ, आप यहाँ? इतनी जल्दी?”
मैंने मुस्कुराया, “तुमने ही कहा था ना लैपटॉप थोड़ा साफ कर देना। बस फोटो वाले फोल्डर ठीक कर रही हूँ।”
मनीष पास आया, उसकी नज़र एक पल के लिए लैपटॉप के यूएसबी पोर्ट पर गई। फिर वह सहज बनकर बोला, “अच्छा है। बस वर्क फोल्डर्स को मत छेड़ना।”
वह दो कप चाय लेकर लौटा, साथ में एक छोटी सी बोतल और एक स्ट्रिप भी ट्रे पर रख दी। बोला, “डॉ. प्रकाश मेहता ने कहा, आप इन विटामिंस से बेहतर महसूस करेंगी। दिन में एक, बस अभी ले लीजिए।”
मैंने कहा, “अभी नहीं बेटा। मैं ठीक हूँ।”
वह मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गया। उसकी नज़र मेरी आँखों में थी, पर मुस्कान आँखों तक नहीं पहुँची। उसने धीरे से पूछा, “आज उषा आंटी को फोन करके आपने डिनर कैंसिल क्यों किया?”
मेरे भीतर जैसे कुछ ठिठक गया। मैंने बिना पलक झपकाए कहा, “मैंने? मैंने तो नहीं किया।”
“माँ, आपने ही किया था,” वह बहुत नरमी से बोला। “आपके फोन से कॉल लॉग है। कोई बात नहीं, कभी-कभी भूल हो जाती है।”
मैंने भीतर ही भीतर खुद से कहा, शांत रहो। सबूत जेब में है। मैंने मोबाइल पर्स में खिसका दिया और चुपचाप रिकॉर्डिंग ऑन कर दी।
“चलो, मैं अब चलूँगी,” मैंने कहा।
वह उठ खड़ा हुआ, कमरे के दरवाज़े के पास ऐसे खड़ा हुआ कि निकलने के लिए मुझे उसके बहुत पास से गुजरना पड़े। “अरे, रुक जाइए। बारिश होने वाली है। सीढ़ियाँ गीली होंगी, फिसलन होगी।”
उसकी आँखों में ठंडक सी चमकी। “तुम हट जाओ बेटा। मुझे निकलने दो।”
वह एक इंच भी नहीं हिला। “बस यह गोली ले लीजिए माँ।”
“नहीं। डॉक्टर के बिना मैं कुछ नहीं लेती।”
उसने गहरी साँस ली। फिर स्वर बदला, बहुत मुलायम पर भीतर सख्ती। “माँ, आप थकान में निर्णय गलत लेने लगी हैं। पिछले महीने आप चाबियाँ भूल गई थीं।”
यह झूठ था। “मैंने चाबियाँ नहीं भूली थीं। तुम्हारे पास डुप्लीकेट है। तुम आए थे। गार्ड के रजिस्टर में एंट्री है।”
उसने धीमे से हँसकर कहा, “कितनी बातें याद रहती हैं आपको।”
ग्राउंड फ्लोर के पास पहुँचते ही बाहर अचानक तेज़ बारिश शुरू हो गई। मैंने टैक्सी ऐप खोला।
“फोन दीजिए माँ, मैं ड्राइवर से बात कर लूँ।”
“नहीं, मैं कर लूँगी,” मैंने मोबाइल कसकर पकड़ा।
उसने बाहर वाले दरवाज़े के बजाय गली की तरफ खुलने वाला छोटा साइड गेट खोल दिया, जहाँ शेड नहीं था। फिर बहुत सहज तरीके से जैकेट की जेब में हाथ डाला। एक सेकंड के लिए धातु की पतली चमक मेरी नज़र में आई। एक पतला, पारदर्शी कैप वाला इंजेक्शन। उसने झट से हथेली में छुपा लिया।
मुझमें बिजली सी दौड़ गई। “मुझे जाने दो, मनीष,” मैंने शांत पर सख्त आवाज़ में कहा।
“डरिए मत माँ, बस यह दवा…”
“नहीं!” मैंने कहा और साइड से निकलने की कोशिश की। उसने रास्ता फिर से रोक दिया।
मैंने ज़ोर से कहा, “गुड इवनिंग शर्मा जी!” और साथ ही गेट की तरफ देखा जैसे कोई हमें देख रहा हो।
मनीष फुसफुसाया, “चुप। अब चलिए ऊपर।”
मैंने दाहिनी तरफ झपट कर धक्का दिया और उसके कंधे को काटते हुए बाहर की तरफ दौड़ पड़ी। पीछे से उसके कदमों की भारी आवाज़ आई। माँ! उसका स्वर सख्त हो गया। रुक जाइए!
मेरी कलाई किसी लोहे की पकड़ में फँस गई। मनीष ने पीछे से पकड़ लिया था। फोन फिसल कर ज़मीन पर गिरा, पानी में सरकता हुआ किनारे चला गया।
“कितना ड्रामा, माँ?” उसने दाँत पीसकर कहा।
मैंने पूरी ताकत से अपनी एड़ी उसके जूते पर मारी। वह एक पल को डगमगाया, मेरी कलाई छूटी। मैंने आखिरी कोशिश की, अपनी आवाज़ को जितना हो सके उतना ऊँचा किया। “बचाओ! कोई है? सुनिए!”
कॉलोनी की दो-तीन खिड़कियाँ हल्की सी खुलीं। गार्ड की केबिन से टॉर्च की पतली किरण हमारी तरफ घूमी। मनीष ठिठका। जेब से वही पतला सा इंजेक्शन उसने आधा बाहर निकाला, जैसे धमकी।
“इधर रोशनी डालो!” मैंने गार्ड की तरफ फिर पुकारा।
टॉर्च की किरण अब बिल्कुल पास आई। “यह अभी खत्म कर देते हैं, माँ,” उसने बहुत धीमे स्वर में कहा। मैंने पलट कर गेट की चिटकनी खींची। उसने मेरा कंधा पकड़ा। हम दोनों पानी में, रोशनी में, एक पल के लिए जूझते रह गए।
तभी गार्ड की सीटी बहुत पास बजी। तीखी, सीधे कान के भीतर। मैंने पूरी ताकत से गेट की चिटकनी ऊपर धकेली। चिटकनी ‘खट’ से खुली। मैं बाहर की तरफ उछली। पीछे से मनीष का हाथ फिर मेरी बाँह पर आया और उसी क्षण उसके दूसरे हाथ में चमकीली सुई सी चीज़ मेरे बाजू की तरफ बढ़ी।
“कौन है वहाँ?” शर्मा जी दौड़ते हुए पहुँचे।
मनीष का हाथ एक पल को ढीला पड़ा। उसने चेहरा सामान्य बना लिया। “माँ फिसल गई थीं, मैं पकड़ रहा था।”
लेकिन मैं गेट के बाहर थी। “शर्मा जी,” मैंने हाँफते हुए कहा, “रजिस्टर में समय लिख दीजिए। आज यहाँ ऊँची आवाज़ हुई। झगड़ा हुआ। गवाही चाहिए होगी।” मैंने अपना गीला फोन उठाया। रिकॉर्डिंग अभी भी चल रही थी। “और कृपया, टॉर्च थोड़ी देर मेरे बेटे की तरफ रखिए। मुझे सब साफ चाहिए।”
मैंने एक ऑटो पकड़ा और सीधे एक नेट कैफे पहुँची। मैंने काँपते हाथों से पेनड्राइव लगाया, सारे सबूत गूगल ड्राइव पर अपलोड किए और अपनी बैंक वाली दोस्त पुष्पा और पड़ोसन उषा भाभी को भेज दिए। उषा भाभी तुरंत पहुँचीं। उनकी मदद से, मैंने गार्ड से सीसीटीवी फुटेज और रजिस्टर की फोटो भी मंगवा ली। सब कुछ डिजिटल रूप से सुरक्षित हो गया।
अगले दिन एक युद्ध था। मैं अस्पताल गई, जहाँ डॉक्टर ने मेरे शरीर में एक अज्ञात दवा के निशान की पुष्टि की। मैं वकील रथु कोहली के पास गई। मैं पुलिस स्टेशन गई। हर कदम पर, मेरे पास सबूत थे: लैपटॉप की फाइलें, ऑडियो रिकॉर्डिंग, सीसीटीवी क्लिप, मेडिकल रिपोर्ट, गार्ड का बयान।
एक हफ्ते बाद, पुलिस मनीष के घर पहुँची। डिजिटल सबूतों के आधार पर, उन्होंने उसका लैपटॉप और फोन ज़ब्त कर लिया। जाँच में पता चला कि फर्जी ईमेल, संदिग्ध “स्वास्थ्य कर्मियों” को कॉल, और मेरे बैंक खाते में हेरफेर की कोशिशें, सब उसी के डिवाइस से हुई थीं।
अदालत ने एक अस्थायी सुरक्षा आदेश जारी किया, मनीष को मुझसे दूर रहने का निर्देश दिया। मेरे बैंक और बीमा खाते सुरक्षित कर दिए गए। मैंने उस बारिश की रात को अपना बेटा खो दिया था, पर मैंने खुद को बचा लिया था।
जब सब शांत हुआ, तो मैंने सोसाइटी की वरिष्ठ महिलाओं के साथ एक छोटी सुरक्षा बैठक शुरू की। हम डिजिटल सुरक्षा, फर्जी कॉल और सबूतों के महत्व के बारे में बात करते। उषा भाभी हँसकर कहतीं, “कमला, अब तुम हमारी कप्तान हो।” मैं बस कहती, “नहीं भाभी, उस रात दबा दी गई मेरी आवाज़, आप सब ने मिलकर वापस लौटा दी।”
मैं आज भी वही कमला हूँ। लेकिन अब मेरे दरवाज़े पर एक छोटी पर्ची भी चिपकी है: “OTP किसी को नहीं। दवा डॉक्टर से ही। परेशानी में 112।” और दिल में एक पक्की बात: परिवार रिश्तों से बनता है, पर सुरक्षा सबूतों से।
मैंने अपनी आवाज़ वापस पाई, ताकि आप अपनी आवाज़ कभी खोएँ नहीं।