मेरा पोता घाट से मुझे धक्का देकर हँस रहा था,
जब मैं पानी में हाथ-पाँव मार रही थी।
“इतना नाटक मत करो!” — मेरी बहू ने कहा जब मैं किसी तरह बाहर निकली, हाँफती हुई, पूरी भीगी।
उनके लिए मैं बस एक कमज़ोर बूढ़ी औरत थी —
जो उनके ऐशोआराम की ज़िंदगी चला रही थी,
पर खुद किसी काम की नहीं।
इसलिए मैंने उन्हें वही सोचने दिया।
मैंने “भूलना” शुरू किया, “लड़खड़ाना,” “उलझना।”
मैंने सुना — वे फुसफुसा रहे थे कि मुझे किसी वृद्धाश्रम भेज देना चाहिए,
मुझे बोझ कह रहे थे।
उन्हें नहीं पता था कि मैं हर शब्द, हर अपमान रिकॉर्ड कर रही थी।
जब उन्हें अहसास हुआ कि मेरी सारी बैंक अकाउंट खाली हो चुकी हैं —
वे घबरा गए। पुलिस तक बुला ली।
पर जो सबूतों की फाइल मैंने पीछे छोड़ी थी, उसने यह सुनिश्चित कर दिया
कि उनका असली दुःस्वप्न अब शुरू होने वाला है।
झील ठंडी थी —
पर धोखा उससे भी ठंडा।
सविता चौहान, 74 साल की विधवा,
ने अपने बेटे के परिवार की हर ज़रूरत पूरी की थी —
लखनऊ के बाहरी इलाके में घर की बुकिंग,
पोते दिव्यांश की प्राइवेट स्कूल की फीस,
यहाँ तक कि वह नई SUV भी,
जिसे उसकी बहू वनेसा (अब वंदना शर्मा) हर मोहल्ले में दिखाना पसंद करती थी।
पर उस दोपहर, जिसे वे “परिवार के साथ पिकनिक” कहते थे,
सात साल के दिव्यांश ने मज़ाक में उसे घाट से धक्का दे दिया।
वह नीचे डूबी — पानी फेफड़ों में जलन पैदा कर रहा था —
और ऊपर से हँसी की गूंज आ रही थी।
“इतना ड्रामा मत करो, माँ जी,” —
वंदना हँसते हुए बोली जब सविता काँपती हुई सीढ़ियों से चढ़ी।
“वह बच्चा है, कुछ नहीं हुआ।”
लेकिन सविता के काँपने की वजह पानी नहीं थी,
वह एहसास था — कि जिन लोगों पर उसने अपना सब कुछ लुटाया,
वे अब उसे बेकार समझने लगे थे।
आने वाले हफ्तों में ज़ुबानें ज़हरीली हो गईं।
वंदना हर बार आँखें घुमाती जब सविता अपने चश्मे को ढूँढ नहीं पाती।
“अब तो दिमाग जा रहा है,” वह अपने पति मयंक (सविता का इकलौता बेटा) से कहती।
मयंक बस मोबाइल पर स्क्रॉल करता रहता।
“अब ये बोझ बन गई हैं… वृद्धाश्रम भेज देते हैं।”
वे सोचते थे सविता कुछ नहीं सुनती —
लेकिन सविता सब सुनती थी।
और उसने खेल पलटने का फ़ैसला किया।
रात के खाने में जानबूझकर हाथ ज़्यादा काँपाती,
“भूल” जाती कि पर्स कहाँ रखा,
उन्हें यह यकीन करने दिया कि वह अब बस एक बूढ़ी, कमजोर औरत है।
लेकिन अपने कमरे के पीछे वह बेहद सतर्क थी —
फ़ोन कॉल रिकॉर्ड करती,
चोटों की तस्वीरें खींचती,
हर सबूत को फाइल में जमा करती।
यहाँ तक कि ड्राइंग रूम की लैम्प में एक छोटा रिकॉर्डर भी छिपा दिया।
महीनों तक उसने चुपचाप अपने पैसे सुरक्षित ट्रस्ट में ट्रांसफ़र किए,
जहाँ सिर्फ़ वही साइन कर सकती थी।
परिवार सोचता रहा कि सब कुछ पहले जैसा है।
वे गलत थे।
एक सुबह, सविता नाश्ते के लिए नहीं आई।
मयंक ने कमरा देखा — बिस्तर सधा हुआ, सूटकेस गायब।
दोपहर तक वंदना पुलिस को फोन कर रही थी —
“हमारी माँ गुम हो गई हैं! वो उलझन में रहती हैं, कहीं खुद को नुकसान न पहुँचा लें!”
पैसों का ज़िक्र नहीं हुआ।
पर सविता ने सिर्फ़ खाली कमरा नहीं छोड़ा था —
बल्कि एक सील बंद लिफ़ाफ़ा,
जिस पर लिखा था: “निरीक्षक निधि शर्मा के नाम।”
उसमें महीनों के सबूत थे —
रिकॉर्डिंग, बैंक स्टेटमेंट्स,
और एक चिट्ठी जिसमें लिखा था कि
उसका अपना परिवार उसे कचरे की तरह फेंकना चाहता था।
इंस्पेक्टर निधि शर्मा ने उस फाइल को तीन बार पढ़ा।
यूएसबी में सब कुछ था —
वंदना की अपमानजनक बातें,
मयंक की आवाज़ — “कब तक झेलना है इसे,”
यहाँ तक कि यह चर्चा कि “वो चली जाए तो सब कुछ हमारा हो जाएगा।”
कानून में क्रूरता अपराध नहीं थी,
लेकिन यह उनके लालच और मंशा का साफ़ सबूत था।
बैंक के रिकॉर्ड ने सब कुछ और साफ़ कर दिया —
सविता के नाम से किए गए छिपे लेनदेन,
ग़लत हस्ताक्षर, और ट्रांसफ़र के प्रयास।
जब निधि ने मयंक और वंदना को पूछताछ के लिए बुलाया,
उनकी हिम्मत डगमगा गई।
“हम तो बस चाहते हैं माँ सुरक्षित रहें,” मयंक बोला।
वंदना चिल्लाई — “वो सब बना रही हैं!”
लेकिन जब निधि ने पैसों के बारे में पूछा,
वंदना का जवाब बहुत जल्दी आ गया — “कौन से पैसे?”
उधर सविता नैनीताल के एक छोटे होटल में अपने पुराने नाम से ठहरी थी।
उसकी पुरानी सहकर्मी जया मेहरा, जो कभी पैरालीगल रही थी,
उसने ही ट्रस्ट और कानूनी दस्तावेज़ तैयार करवाए थे।
सविता भागी नहीं थी —
वह बस इंतज़ार कर रही थी कि सच्चाई सामने आए।
जल्द ही मीडिया में खबर फैल गई —
“गायब दादी” की कहानी ने सबका ध्यान खींच लिया।
समाचार चैनलों पर सविता की मुस्कुराती तस्वीरें दिखाई देने लगीं।
जनता का गुस्सा बढ़ा —
“इतनी मदद करने के बाद भी परिवार ने इन्हें अकेला छोड़ दिया?”
पीछे से निधि शर्मा मामला मज़बूत कर रही थी —
बैंक रिकॉर्ड, कॉल रिकॉर्ड, और पड़ोसियों के बयान इकट्ठे करते हुए।
पता चला, वंदना ने तो बैंक में सविता बनकर फोन भी किया था!
दो हफ्ते बाद, पुलिस ने उनके घर पर छापा मारा।
कंप्यूटर, मोबाइल, और एक नोटबुक मिली —
जिसमें लिखा था: “संपत्ति का अनुमान।”
निधि ने ड्राइंग रूम की वही लैम्प देखी —
जहाँ से उसे सविता की रिकॉर्डिंग मिली।
अब सबूत मुकम्मल थे।
वंदना पर वृद्ध उत्पीड़न और आर्थिक धोखाधड़ी के आरोप लगे।
मयंक पर सह-षड्यंत्र का।
महीनों बाद, अदालत में सुनवाई शुरू हुई।
सविता गवाह बनकर पेश हुई —
नेवी ब्लू साड़ी में, आत्मविश्वास से भरी।
“मैं बूढ़ी हूँ,” उसने कहा,
“पर अदृश्य नहीं।”
पूरा कोर्टरूम सन्न रह गया।
मयंक सिर झुकाए बैठा था,
वंदना घूर रही थी।
मीडिया ने उसे नाम दिया —
“वह दादी जिसने न्याय के लिए आवाज़ उठाई।”
अंत में, अदालत ने फैसला सुनाया —
वंदना को दो साल की जेल,
मयंक को सशर्त रिहाई और परामर्श।
सविता ने कोई जश्न नहीं मनाया।
वह अदालत के बाहर बेंच पर बैठी,
गिरती पत्तियों को देखती रही।
उसकी दोस्त जया आई, बोली —
“तुमने कर दिखाया।”
सविता मुस्कुराई —
“मुझे नहीं करना चाहिए था…
पर शायद किसी को तो शुरू करना ही पड़ता है।”
उसने अपने ट्रस्ट के पैसे से एक संस्था बनाई —
“स्पष्ट स्वर” (Voz Clara)
जहाँ बुज़ुर्गों को सिखाया जाता था कि
कैसे अपने अधिकार और संपत्ति की रक्षा करें।
वह अब देहरादून के एक छोटे अपार्टमेंट में रहती है,
कानूनी सहायता केंद्र में सप्ताह में दो दिन मदद करती है।
दिव्यांश कभी-कभी मिलने आता है —
शर्मिंदा, उलझन में,
पर सविता उसे दोष नहीं देती।
वह बड़ों को दोष देती है।
उसकी मेज़ पर एक ही तस्वीर रखी है —
वह, झील के किनारे, मुस्कुराती हुई।
वह तस्वीर उसे याद दिलाती है —
धोखे की नहीं, बल्कि बच जाने की।
वह न तो कमज़ोर थी,
न भुलक्कड़ —
और अब, वह खत्म नहीं हुई थी।