कहानी का नाम: इंसाफ की दहाड़
दोपहर का वक्त था। सूरज ऐसा धधक रहा था मानो पूरी धरती को पिघला देना चाहता हो। हवा थमी हुई थी और हर साँस तपिश से भरी। सड़क पर दूर-दूर तक सन्नाटा था। लोग अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे और जो कुछ गिने-चुने बाहर निकले थे, उनके कदम भी तेज़ थे, जैसे धूप की आग से भाग रहे हों।
इन्हीं गलियों में एक 16 बरस की लड़की, रीमा, स्कूल से घर लौट रही थी। उसकी कलाई में पुरानी घड़ी बंधी थी और हाथ में बस्ता थामे वह धीरे-धीरे चल रही थी। चेहरे पर थकान साफ झलक रही थी, लेकिन होठों पर हल्की मुस्कान थी। आज उसके इम्तिहान खत्म हुए थे। कई रातें उसने जाग-जाग कर तैयारी की थी और आखिरकार सुकून से लिख कर आई थी। इसीलिए दिल में हल्कापन था कि अब कुछ दिन चैन से बीतेंगे।
उसने सफेद कमीज और हल्की खाकी सलवार पहन रखी थी, बिल्कुल साधारण मगर साफ-सुथरा। बस्ते में किताबें भरी थीं और हाथ में एक नोटबुक थी जिसके कोनों पर मोड़ और स्याही के धब्बे थे। यही उसकी सबसे बड़ी दौलत थी, मेहनत और सपनों की गवाही।
गली लगभग खाली थी। दूर कहीं कोई पान वाला ऊँघ रहा था और एक-दो दुकानों के शटर आधे गिरे हुए थे। रीमा रोज़ इसी रास्ते से गुज़रती थी। बचपन से वह यही रास्ता जानती थी। कभी किसी ने टोका-टाकी नहीं की। उसके लिए यह गली बिल्कुल घर जैसी थी।
लेकिन उस दिन किस्मत ने कुछ और ही तय कर रखा था।
जैसे ही वह मुख्य सड़क पर पहुँची, सामने अचानक पुलिस की वर्दी में एक आदमी रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। रीमा के कदम वहीं थम गए। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। वो शख्स करीब 40 साल का था। चौड़ा सीना, भारी शरीर, घनी मूँछें और आँखों में अजीब सी कठोरता। उसके चेहरे पर रौब था, मगर वह रौब भरोसे का नहीं, डर का था।
आवाज़ ऊँची और सख्त, “ए लड़की! रुको वहीं!”
रीमा के पैरों तले ज़मीन जैसे खिसक गई। उसने सिर झुकाया और काँपती आवाज़ में बोली, “जी सर, क्या हुआ?”
पुलिस वाले ने ऊपर से नीचे तक उसे घूरा, जैसे कोई शिकारी अपने शिकार को परखता है। फिर भारी आवाज़ में बोला, “तुम्हें पता है तुम गलत लेन से आई हो? यह अपराध है। चाहूँ तो अभी चालान कर दूँ।”
रीमा का दिल धक से रह गया। रोज़ वह यही रास्ता पकड़ती थी, कभी किसी ने कुछ नहीं कहा। उसने डरते-डरते जवाब दिया, “सर, मुझे सच में मालूम नहीं था। मैं तो हमेशा इसी गली से आती हूँ।”
लेकिन उसकी मासूम सफाई सुनकर भी अफसर का चेहरा कठोर ही रहा। बल्कि उसके होठों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान फैल गई। उसने ऊँची आवाज़ में कहा, “बड़ी चालाक हो तुम! कानून तोड़कर बहाने बना रही हो। समझती हो यह मामूली बात है?”
आवाज़ इतनी ऊँची थी कि आसपास के लोग ठिठक कर रुकने लगे। दुकानदार अपनी दुकानों से झाँकने लगे। राहगीर पीछे मुड़कर देखने लगे। धीरे-धीरे एक छोटा सा मजमा इकट्ठा होने लगा।
रीमा का चेहरा पसीने से भीग गया। उसने नोटबुक को सीने से कसकर पकड़ लिया, जैसे वही उसकी ढाल हो। कदम काँप रहे थे, आँखों में डर साफ झलक रहा था। पुलिस वाला उसके और पास आया और धीमे-मगर धमकी भरे लहजे में बोला, “अगर अभी बात खत्म करनी है, तो सीधे-सीधे पैसे निकालो। वरना सबके सामने तेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दूँगा।”
यह सुनते ही रीमा का खून जम गया। गला सूख गया। आँखों में आँसू छलक आए। उसने हकलाकर कहा, “सर, मैं तो बस एक छात्रा हूँ। मेरे पास पैसे कहाँ से आएँगे?”
लेकिन उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उल्टा उसके चेहरे पर और गहरी मुस्कान फैल गई। भीड़ अब और बढ़ चुकी थी। कुछ लोग मोबाइल से वीडियो बनाने लगे। सबको पता था कि लड़की निर्दोष है लेकिन कोई आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर रहा था। रीमा समझ गई कि यह आदमी उसकी मजबूरी को अपनी ताकत बना चुका है।
डर उसके दिल में चाकू की तरह उतर रहा था। उसने आसमान की तरफ देखा जैसे मदद की उम्मीद कर रही हो। भीड़ में खुसर-फुसर होने लगी। किसी ने कहा, “बेचारी बच्ची।” दूसरा बोला, “कुछ मत बोलो, पुलिस से पंगा मत लो।”
रीमा की आँखों से आँसू गिरने लगे। उसने रुँधे गले से कहा, “सर, आप क्यों कर रहे हैं ऐसा? मैंने क्या गलती की है?”
अफसर ने उसकी कलाई पकड़ कर कस दी और दाँत पीसकर कहा, “गलती बस इतनी है कि तू कमज़ोर है, और कमज़ोर को ताकतवर हमेशा झुकाता है।”
यह शब्द रीमा के दिल को चीर गए। उसने ज़ोर से हाथ छुड़ाने की कोशिश की, मगर उसकी पकड़ लोहे की तरह मज़बूत थी। रीमा चीख पड़ी, “छोड़ो मुझे! मैंने कुछ गलत नहीं किया!”
भीड़ हिल गई। कुछ लोगों ने सिर झुका लिया। कोई आगे नहीं बढ़ा। कैमरों की चमक और लोगों की फुसफुसाहट माहौल को और डरावना बना रहे थे। अफसर ने फिर धमकी दी, “अभी के अभी ₹1 लाख निकालो, वरना ऐसा सबक सिखाऊँगा कि ज़िंदगी भर याद रखोगी।”
रीमा काँपते हुए बोली, “मेरे पास बस यह नोटबुक है और जेब में थोड़े से पैसे।”
अफसर ने भीड़ की ओर मुड़कर ज़हरीली हँसी के साथ कहा, “देखो इसे! कानून तोड़ा और अब गलती मानने को तैयार नहीं। अब देखना कानून की सख्ती।”
लोग एक-दूसरे को देखने लगे। किसी के दिल में गुस्सा था, मगर सबकी ज़ुबान बंद थी। डर सब पर भारी था। रीमा का दिल डूब रहा था। उसने दबी आवाज़ में दुआ की, “खुदा, मुझे इस ज़ुल्म से बचा ले।” लेकिन चारों तरफ बस बेबसी थी। पुलिस वाला उसकी कलाई और कसकर पकड़ रहा था। भीड़ खामोश थी, और रीमा को लग रहा था, उसकी मासूम ज़िंदगी अब अँधेरे में धकेल दी जाएगी।
सार्वजनिक क्रूरता
रीमा की आँखों से आँसू लगातार बह रहे थे। भीड़ बढ़ चुकी थी, मगर सब खामोश थे। कोई आगे आकर उसका हाथ पकड़ने की हिम्मत नहीं कर रहा था। हर चेहरा डर और बेबसी से जकड़ा हुआ था।
पुलिस वाला अब और भी बेकाबू हो चुका था। उसने जेब से मोटी रस्सी निकाली और ठंडी आवाज़ में बोला, “बहुत बोलती हो। अब देखो मैं तुम्हारा क्या हाल करता हूँ।”
रीमा दहशत से काँप उठी। वह पीछे हटना चाहती थी, मगर उसकी कलाई अब भी उस आदमी की पकड़ में थी। भीड़ ने हड़कंप में साँस रोकी। कुछ औरतों ने अपना चेहरा हाथों से ढक लिया।
अचानक अफसर झपटा और रीमा के पैरों को पकड़ कर रस्सी से बाँध दिया। रीमा चीख पड़ी, “छोड़ो मुझे! मैंने कुछ गलत नहीं किया! मुझे मत छुओ!” मगर उसकी पुकारें धूप में पिघलती हवा की तरह बेअसर रहीं।
रस्सी ने उसके पाँव जकड़ लिए और अगले ही पल, अफसर ने उसे पास खड़े लोहे के खंभे से उल्टा लटका दिया।
लोग दंग रह गए। रीमा का सिर नीचे और पैर ऊपर। उसके खुले बाल हवा में झूल रहे थे। चेहरा सुर्ख हो गया था, आँखों में खून उतर आया। माहौल सन्नाटे से भर गया। औरतें सिसक उठीं। कुछ नौजवानों ने कहा, “यह ज़्यादती है, कुछ करना चाहिए।” लेकिन दूसरे तुरंत डर कर बोले, “चुप रहो, वरना हमें भी लटका देगा।”
रीमा चीख रही थी, “मुझे उतारो! खुदा के लिए मुझे छोड़ दो! मैं शर्मिंदा हो रही हूँ! मैंने कोई जुर्म नहीं किया!”
उसकी नोटबुक हाथ से छूट कर ज़मीन पर गिरी और हवा में पन्ने बिखर गए। वही नोटबुक, जिसमें उसके सपने लिखे थे, अब मिट्टी में लथपथ होकर तिर रही थी।
पुलिस वाला अकड़ कर बोला, “याद रखो सब लोग! यह है कानून का अंजाम! जो मेरी बात नहीं मानेगा, उसका यही हाल होगा!”
भीड़ खामोश थी। मोबाइल कैमरे चमक रहे थे। हर कोई इस खौफनाक नज़ारे को कैद कर रहा था, मगर किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि रीमा को छुड़ाए। रीमा का शरीर काँप रहा था। उसके गालों पर आँसू और खून की लालिमा मिलकर दर्दनाक तस्वीर बना रहे थे।
भीड़ से आवाजें उठीं, “हे भगवान, यह तो ज़ुल्म है। कोई इसे रोके!” लेकिन सबके पैर जमे रहे।
पिता की दहाड़
इसी बीच, अचानक बूटों की भारी आहट सुनाई दी। धूप में बूटों की खट-खट गूँज उठी। भीड़ दो हिस्सों में बँटने लगी, लोग पीछे हटने लगे। भीड़ को चीरते हुए एक शख्स सामने आया। लंबा कद, सीना तना हुआ, चेहरे पर गुस्से की लाली और आँखों में बिजली।
यह थे कर्नल दीपक वर्मा, रीमा के पिता।
वो रोज़ की तरह खामोश इंसान नहीं दिख रहे थे। आज उनके चेहरे पर बाप का लावा फूट रहा था।
जैसे ही उनकी नज़र अपनी बेटी पर पड़ी, जो खंभे से उल्टी लटकी हुई थी, उनके कदम थम गए। एक पल को वह पत्थर बन गए। फिर चेहरे पर खून उतर आया, आँखों में आग जल उठी।
रीमा ने रोते हुए पुकारा, “पापा! मुझे बचाइए!”
यह पुकार दीपक वर्मा के दिल को चीर गई। उनका सीना गरजा। वो शेर की तरह दहाड़े, “किसकी हिम्मत हुई कि मेरी बेटी को इस हाल में लटकाया?”
भीड़ सन्न हो गई। पुलिस वाला चौंका, मगर अपनी अकड़ बनाए रखने के लिए बोला, “सर, यह लड़की गलत रास्ते से आई थी। मैं इसे अनुशासन सिखा रहा था।”
दीपक वर्मा आगे बढ़े, हर कदम पर ज़मीन काँप रही थी। उन्होंने ठंडी मगर गूँजदार आवाज़ में कहा, “यह अनुशासन है? मासूम बच्ची को सबके सामने ज़लील करना? यह ज़ुल्म है, और ज़ुल्म बर्दाश्त नहीं होगा!”
भीड़ से पहली बार तालियों की आवाज़ उठी। औरतों की आँखें भर आईं। कुछ नौजवानों ने कहा, “हाँ, सही कहा! यह ज़ुल्म है!”
पुलिस वाले के चेहरे पर घबराहट की झलक आई, मगर उसने ज़िद से कहा, “सर, आप फौजी हैं, मगर यहाँ कानून पुलिस का है। हम जिसे चाहे सज़ा दें। कोई बीच में नहीं आ सकता।”
दीपक वर्मा उसकी ओर लपके। अफसर पीछे हटना चाहता था, लेकिन वर्मा की दहाड़ ने उसे जकड़ लिया। “याद रखो! वर्दी अवाम की हिफाज़त के लिए होती है, ज़ुल्म के लिए नहीं! तुमने ना सिर्फ मेरी बेटी को ज़लील किया, बल्कि इस वर्दी को भी दागदार किया है!”
भीड़ में जोश उठने लगा। लोग चिल्लाने लगे, “हाँ, यही सच है! वर्दी का नाम बदनाम कर रहे हो!”
अफसर का गुरूर टूटने लगा। उसने बचाव में कहा, “मैं तो बस अपना फर्ज़ निभा रहा था।”
वर्मा ने उसकी आँखों में उंगली तानते हुए दहाड़ा, “यह फर्ज़ नहीं, बुज़दिली है! फर्ज़ होता तो एक मासूम बच्ची को सबके सामने अपमानित नहीं करते!”
दीपक वर्मा खंभे के पास पहुँचे, रस्सी देखी। उन्होंने पुलिस अफसर का कॉलर पकड़ कर ज़ोर से झटका। अफसर लड़खड़ा कर पीछे गिर पड़ा। भीड़ गरज उठी। नारे लगने लगे, “ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाओ! इंसाफ चाहिए!”
वर्मा ने पुलिस वाले की छाती पर ज़ोरदार घूँसा मारा। वो ज़मीन पर गिर गया, होंठ फट गए, खून बह निकला। लोग जो अब तक खामोश थे, जोश में आ गए।
दीपक वर्मा ने खंभे की रस्सी पकड़ी और पूरी ताकत से खींची। रस्सी टूट गई और रीमा नीचे गिरी, मगर उनके हाथों में आकर सुरक्षित हो गई। रीमा अपने पिता के गले लग गई और रो पड़ी। “पापा, मुझे बहुत डर लग रहा था। मैंने सोचा कोई नहीं आएगा।”
वarma ने उसके माथे को चूमते हुए कहा, “अब कोई तुम्हें हाथ नहीं लगा सकता। तुम सुरक्षित हो। मैं हूँ तुम्हारे साथ।”
भीड़ की आँखें नम हो गईं। लोग ताली बजाने लगे। पुलिस वाला ज़मीन पर पड़ा था, मगर अब भी हाँफते हुए बोला, “मैं पुलिस हूँ। मेरा अधिकार है। कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।”
वर्मा ने बेटी को सीने से लगाया और भीड़ की ओर मुड़कर कहा, “यह मामला सिर्फ मेरी बेटी का नहीं है। यह हर बेटी का है। अगर आज हम खामोश रहे, तो कल और बच्चियाँ यूँ ही ज़लील होंगी। उठो, ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ बुलंद करो!”
भीड़ गूँज उठी, “इंसाफ चाहिए! इंसाफ चाहिए!”
न्याय का उदय
पुलिस वाले की अकड़ टूटी हुई थी। होंठ फटे, चेहरे पर खून और आँखों में हार की धुंध। भीड़ अब उसके खिलाफ खड़ी हो चुकी थी। हर कोई चीख रहा था, “भ्रष्ट पुलिस मुर्दाबाद!”
रीमा अपने पिता की बाहों में थी। चेहरा आँसुओं से भीगा, मगर अब उसकी आँखों में डर की जगह उम्मीद चमक रही थी।
भीड़ के कैमरे, मोबाइल फोन, सब इस मंज़र को रिकॉर्ड कर रहे थे। चंद ही घंटों में यह वीडियो पूरे शहर में फैल गया, फिर शहर से निकलकर मुल्क भर में। सोशल मीडिया पर हर जगह एक ही आवाज़ गूँज रही थी: “रीमा को इंसाफ दो! भ्रष्ट अफसर को सज़ा दो!”
लोग अपने ज़ख्म याद करने लगे। और हर कोई लिख रहा था, “रीमा सिर्फ एक लड़की नहीं, वह हमारी आवाज़ है।”
सरकार पर दबाव बढ़ने लगा। टीवी चैनल्स पर बहस होने लगी। अखबारों ने हेडलाइन छापी: “एक मासूम की चीख ने हिला दिया पूरा मुल्क।”
आखिरकार, आदेश जारी हुआ कि उस पुलिस अफसर को तुरंत गिरफ्तार किया जाए। हथकड़ियाँ लगाकर भीड़ के सामने लाया गया। लोग गरज उठे, “शेम! शेम! इंसाफ चाहिए!”
कुछ दिन बाद, मामला अदालत में पहुँचा। कमरा-अदालत खचाखच भरा हुआ था। कटघरे में बैठा वही पुलिस अफसर अब वर्दी से महरूम था, हथकड़ियों में जकड़ा हुआ, सिर झुका हुआ।
वकील ने वीडियो सबूत के तौर पर पेश किए। बड़ी स्क्रीन पर रीमा की चीखें गूँजीं, “पापा, बचाइए मुझे!” पूरा कमरा सन्न रह गया।
जज ने कड़क आवाज़ में पूछा, “क्या यह सब तुमने किया?”
अफसर ने धीमी आवाज़ में सिर झुका कर कहा, “जी, लेकिन मैं अनुशासन सिखा रहा था।”
भीड़ भड़क उठी, “झूठ है! यह ज़ुल्म था, अनुशासन नहीं!”
जज ने हथौड़ा बजाकर खामोशी कायम कराई। फिर गहरी आवाज़ में बोला, “तुमने ना सिर्फ एक छात्रा को शारीरिक कष्ट दिया, बल्कि उसकी इज़्ज़त और आत्मसम्मान को भी रौंदा। कानून का पहरेदार होकर तुमने कानून का ही गला घोंटा। इसका अंजाम भुगतना होगा।”
अदालत का फैसला आया: “आरोपी को नौकरी से बर्खास्त किया जाता है और कठोर कैद की सज़ा दी जाती है। याद रखो, कोई भी वर्दी जनता पर ज़ुल्म करने की इजाज़त नहीं देती!”
यह सुनते ही पूरा हॉल तालियों और नारों से गूँज उठा। “इंसाफ मिल गया! इंसाफ मिल गया!”
रीमा ने काँपते हाथों से अपने पिता का हाथ पकड़ा और आहिस्ता से कहा, “पापा, यह सब आपकी हिम्मत की वजह से हुआ।”
दीपक वर्मा ने बेटी की ओर देखा और प्यार से मुस्कुराए, “नहीं बेटी, यह तुम्हारी सच्चाई और साहस की वजह से हुआ। तुमने ज़ुल्म सहा, मगर झूठ के आगे झुकी नहीं। यही तुम्हारी असली ताकत है।”
अगले दिन अखबारों ने बड़े अक्षरों में लिखा: “रीमा को इंसाफ मिल गया: बहादुरी और सच्चाई की जीत।”
यह फैसला पूरे मुल्क में उम्मीद की एक नई किरण बन गया। लेकिन रीमा के लिए दर्द वहीं खत्म नहीं हुआ था। रात को अक्सर उसे वही खौफनाक ख्वाब आते। खुद को उल्टा लटका हुआ देखना, भीड़ की नज़रें और पुलिस वाले की ज़हरीली मुस्कान। वह चीख कर उठ जाती और उसके पिता दौड़ कर उसके पास आ जाते।
धीरे-धीरे उसके दिल में हिम्मत लौटने लगी। स्कूल वापसी का दिन आया। गेट पर कदम रखते ही पूरा स्कूल तालियों से गूँज उठा। बच्चों ने पोस्टर बना रखे थे: “हिम्मत की मिसाल, रीमा।”
प्रिंसिपल ने आगे बढ़कर उसके सिर पर हाथ रखा और कहा, “बेटा, तुमने साबित कर दिया कि सच्चाई और बहादुरी के सामने ज़ुल्म ज़्यादा देर टिक नहीं सकता।”
रीमा की आँखें भर आईं, मगर इस बार यह आँसू कमज़ोरी के नहीं, बल्कि गर्व और सुकून के थे।
रीमा मुस्कुराई। यह वही लड़की थी जिसे कुछ दिन पहले सबके सामने उल्टा लटका कर अपमानित किया गया था। आज वही सबकी प्रेरणा बन गई थी।
एक शाम घर के आँगन में बैठी रीमा ने पिता का हाथ थामा और बोली, “पापा, अगर आप उस दिन ना आते, तो शायद मेरी ज़िंदगी अँधेरे में डूब जाती।”
दीपक वर्मा ने उसकी आँखों में देखा और मुस्कुराकर कहा, “बेटी, सच हमेशा जीतता है। लेकिन सच को जिताने के लिए किसी को आगे बढ़ना पड़ता है। उस दिन तुम्हारी चीखें लाखों की आवाज़ बन गईं। यह जीत तुम्हारी है।”
धीरे-धीरे यह कहानी सिर्फ एक घटना नहीं रही, बल्कि एक आंदोलन बन गई। रीमा का नाम मिसाल की तरह लिया जाने लगा। लोग कहने लगे, “अगर एक आम छात्रा ज़ुल्म के खिलाफ खड़ी हो सकती है, तो हम सब क्यों नहीं?” रीमा की कहानी ने साबित कर दिया कि हिम्मत हो, तो कमज़ोर से कमज़ोर आवाज़ भी सबसे बुलंद नारा बन सकती है।