क्या इंसानियत का कोई मोल होता है?
क्या आज की दुनिया में कोई किसी अनजान लावारिस इंसान के लिए अपनी रातों की नींद और दिन का चैन कुर्बान कर सकता है? और अगर कोई ऐसा करता है, तो क्या उसकी नेकी का कोई सिला मिलता है?
यह कहानी है कविता की। एक ऐसी ही नर्स की जिसने एक लावारिस बेबस मरीज में अपने पिता की छवि देखी और उसकी सेवा में अपना सब कुछ लगा दिया। उसे नहीं पता था कि वह मरीज कौन है, कहाँ से आया है। पर ठीक एक महीने बाद, जब उस मरीज का अरबपति बेटा विदेश से लौटा, तो उस सरकारी अस्पताल में जो हुआ उसने दौलत और इंसानियत के बीच की हर दीवार को गिरा दिया। तो चलिए, कविता की इस निस्वार्थ सेवा और उसके अविश्वसनीय परिणाम की इस कहानी को महसूस करते हैं।
अध्याय 1: बेड नंबर 24 का मरीज़
दिल्ली का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल। यहाँ की हवा में दवाओं की गंध, मरीजों के कराहने की आवाजें और डॉक्टरों और नर्सों की भागदौड़ घुली रहती थी। यह एक ऐसी दुनिया थी जहाँ हर रोज़ जिंदगी और मौत के बीच जंग चलती थी। इसी जंग की एक सिपाही थी कविता, 28 साल की, जो पिछले 5 सालों से इस अस्पताल के जनरल वार्ड में नर्स का काम कर रही थी।
वह एक छोटे से गांव से आई थी और उसके सपने भी छोटे थे: बस अपने बूढ़े माँ-बाप की देखभाल करना और अपने छोटे भाई की पढ़ाई पूरी करवाना। कविता के लिए उसकी ड्यूटी सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि एक मिशन थी। जहाँ दूसरी नर्सें काम को बोझ समझकर निपटाती थीं, वहीं कविता हर मरीज की तकलीफ को अपना समझकर उसकी सेवा करती थी। इसी नरमी और दयालुता के कारण मरीज उसे ‘दीदी’ कहकर पुकारते थे।
पर अस्पताल का सिस्टम और कुछ कर्मचारियों का कठोर व्यवहार अक्सर उसके दिल को दुखाता था, खासकर तब जब कोई लावारिस मरीज आता था। एक लावारिस मरीज, यानी एक ऐसा इंसान जिसका इस दुनिया में कोई नहीं होता। ऐसे मरीजों को अक्सर अस्पताल के एक कोने वाले बिस्तर पर डाल दिया जाता था, जहाँ उनकी कोई खास परवाह नहीं की जाती थी।
एक महीने पहले ऐसा ही एक मरीज आया था। पुलिस को वह एक पार्क की बेंच पर बेहोशी की हालत में मिला था। एक बूढ़ा आदमी, कोई 70 साल का। उसके कपड़े तो ठीक-ठाक थे पर उसकी हालत बहुत खराब थी। डॉक्टरों ने बताया कि उसे ब्रेन हैमरेज हुआ है और वह गहरे कोमा में है, बचने की उम्मीद ना के बराबर। उसे लावारिस मानकर वार्ड के सबसे आखिरी बिस्तर, बेड नंबर 24 पर डाल दिया गया।
बाकी सबके लिए वह सिर्फ बेड नंबर 24 था, पर कविता के लिए वह एक बेबस इंसान था। उसे उस बूढ़े आदमी के झुर्रियों भरे चेहरे में अपने गांव में रहते पिता की झलक दिखाई दी। उस दिन से कविता ने उस लावारिस मरीज की जिम्मेदारी खुद उठा ली। उसने मन ही मन उसे ‘बाबा’ कहना शुरू कर दिया।
वह अपनी ड्यूटी खत्म होने के बाद भी घंटों बाबा के पास बैठी रहती। वह रोज उनके शरीर को स्पंज करती, कपड़े बदलती और समय पर उनकी नली से जाने वाली खुराक का ध्यान रखती। जब दूसरे कर्मचारी कहते, “क्यों अपना वक्त बर्बाद कर रही हो कविता? इसका कोई नहीं है, दो-चार दिन का मेहमान है,” तो कविता मुस्कुरा कर कहती, “कोई नहीं है, तभी तो हम हैं। नर्स का फर्ज सिर्फ दवा देना नहीं, सेवा करना भी होता है।”
वह अक्सर बाबा से बातें करती, भले ही वे कोमा में थे। वह उन्हें अपने गांव के किस्से सुनाती, अपनी माँ की बातें बताती। उसने अपनी छोटी सी तनख्वाह से पैसे बचाकर बाबा के लिए एक नया कंबल और कुछ साफ कपड़े भी खरीदे थे।
पूरा एक महीना गुजर गया। बाबा की हालत में कोई सुधार नहीं था, पर कविता ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी।
अध्याय 2: एक अप्रत्याशित वापसी
और फिर एक दिन, एक चमत्कार हुआ।
उस दिन सुबह अस्पताल के बाहर एक काले रंग की चमचमाती बेंटले कार आकर रुकी। ऐसी गाड़ी उस सरकारी अस्पताल के परिसर में शायद पहली बार आई थी। गाड़ी से एक नौजवान उतरा, कोई 30-32 साल का, एक महंगा इटालियन सूट पहने हुए। वह था राजीव मेहरा, लंदन का एक बहुत बड़ा बिजनेसमैन।
वह भागता हुआ अस्पताल के रिसेप्शन पर पहुँचा। उसने अपने फोन से एक तस्वीर दिखाते हुए पूछा, “क्या यह आदमी यहाँ भर्ती है? इनका नाम रामनाथ मेहरा है।” रिसेप्शनिस्ट ने रजिस्टर देखकर कहा, “नहीं सर, इस नाम का कोई मरीज यहाँ नहीं है।” राजीव का दिल बैठ गया। वह पिछले एक महीने से अपने पिता को पागलों की तरह ढूंढ रहा था। कुछ साल पहले बिजनेस को लेकर बाप-बेटे में अनबन हुई थी, लेकिन वह अपने पिता से बहुत प्यार करता था।
वह निराश होकर लौटने ही वाला था कि तभी एक वार्ड बॉय ने तस्वीर देखकर कहा, “अरे साहब, यह तो अपने वार्ड के बेड नंबर 24 वाले लावारिस बाबा हैं।” “लावारिस?” यह शब्द राजीव के कानों में जहर की तरह लगा। वह गुस्से और बेचैनी में वार्ड बॉय के पीछे भागा।
जब वह वार्ड के अंदर पहुँचा, तो उसने देखा कि आखिरी बिस्तर पर उसके पिता लेटे हुए थे। उनकी यह हालत देखकर राजीव का कलेजा मुंह को आ गया। वह डॉक्टरों पर चिल्लाने ही वाला था कि तभी उसकी नजर एक नर्स पर पड़ी जो बड़े प्यार से उसके पिता का चेहरा पोंछ रही थी।
वह धीरे-धीरे बातें कर रही थी, “बाबा, आज आप बिल्कुल ठीक लग रहे हैं। देखिए, मैंने आपके लिए यह ताजे फूल रखे हैं।” यह कविता थी। राजीव कुछ पल चुपचाप खड़ा उसे देखता रहा। वार्ड बॉय ने धीरे से कहा, “साहब, अगर आज आपके पिताजी जिंदा हैं, तो सिर्फ इस कविता दीदी की वजह से। इन्होंने ही इन्हें बाबा नाम दिया है।” राजीव की आंखें भर आई। वह धीरे-धीरे चलकर कविता के पास पहुँचा।
एक अनजान अमीर आदमी को देखकर वह थोड़ी सहम गई। “जी, कहिए।” राजीव ने हाथ जोड़ लिए। “मेरा नाम राजीव मेहरा है, और यह लावारिस मरीज मेरे पिता हैं, श्री रामनाथ मेहरा।” कविता की आंखें आश्चर्य से फैल गई। “आपके पिता? तो आप इतने दिनों से कहाँ थे?” राजीव ने नजरें झुका लीं। “मैं लंदन में था। मैं आपका एहसान कैसे चुकाऊं?” कविता ने उसे बीच में ही रोक दिया, “एहसान कैसा साहब? यह तो मेरा फर्ज था।”
राजीव को लगा जैसे इस साधारण सी नर्स के सामने उसका अरबों का साम्राज्य बौना पड़ गया हो। उसने फौरन एक एयर एंबुलेंस का इंतजाम करने को कहा। फिर वह कविता की ओर मुड़ा। “कविता जी, मैं अपने पिता को ले जा रहा हूँ, पर जाने से पहले मैं आपके लिए कुछ करना चाहता हूँ।” उसने एक बड़ी रकम का चेक काटकर कविता को देने लगा। कविता ने हाथ पीछे कर लिए। “माफ कीजिएगा साहब, मैं यह नहीं ले सकती।” कविता ने दृढ़ता से कहा, “अगर आप सच में कुछ करना चाहते हैं, तो बस यह दुआ कीजिएगा कि बाबा जल्दी ठीक हो जाएं।”
पूरा अस्पताल प्रशासन यह नजारा देखकर दंग था। जिस लावारिस मरीज को वे बोझ समझ रहे थे, वह देश का इतना बड़ा उद्योगपति निकला।
अध्याय 3: इंसानियत की विरासत
राजीव कविता की इस निस्वार्थता के आगे नतमस्तक हो गया। उसने एक ऐसा फैसला लिया जिसने वहाँ मौजूद हर इंसान को हैरान कर दिया। उसने अस्पताल के डीन को बुलाया। “डीन साहब, मैं अपने पिता के नाम पर इस शहर में एक सुपर स्पेशलिटी चैरिटेबल अस्पताल बनवाना चाहता हूँ, जहाँ हर गरीब और लावारिस मरीज का मुफ्त में इलाज होगा।” उसने कविता की ओर देखा। “और मैं चाहता हूँ कि उस अस्पताल की मुख्य ट्रस्टी और हेड एडमिनिस्ट्रेटर कविता जी हों।” कविता के पैरों तले जमीन खिसक गई। “साहब, मैं तो एक मामूली नर्स हूँ।” राजीव मुस्कुराया, “कविता जी, जो इंसान बिना किसी रिश्ते के किसी की इतनी सेवा कर सकता है, उससे बड़ी जिम्मेदारी कोई नहीं संभाल सकता। आपकी इंसानियत ही आपकी सबसे बड़ी काबिलियत है।” उसने आगे कहा, “आपकी आगे की पढ़ाई, हॉस्पिटल मैनेजमेंट का कोर्स, सब विदेश में होगा। इसका सारा खर्चा मेहरा फाउंडेशन उठाएगा।” कविता के पास कहने के लिए शब्द नहीं थे।
कुछ महीनों बाद, रामनाथ मेहरा जी बिल्कुल ठीक हो गए। बाप-बेटे के बीच की दूरियां भी मिट गईं। उन्होंने कविता को अपनी बेटी की तरह अपना लिया। और कुछ सालों बाद, शहर के बीचोंबीच एक शानदार रामनाथ मेहरा चैरिटेबल हॉस्पिटल खड़ा था, जिसकी डायरेक्टर थी कविता। वह आज भी उतनी ही नरमी और दयालुता से मरीजों की सेवा करती थी, पर अब उसके पास हजारों ‘बाबा’ और ‘अम्मा’ की जिम्मेदारियां थीं।