क्या देशभक्ति सिर्फ सरहदों पर बंदूक उठाने का नाम है?
या यह उस गरीब के दिल में भी जलती है जो अपनी एक वक्त की रोटी उस वर्दी वाले को खिलाकर खुद को धन्य समझता है जो देश के लिए अपनी जान हथेली पर लिए घूमता है। क्या नेकी का कोई मोल होता है? और अगर होता है तो क्या किस्मत उसका कर्ज चुकाने के लिए खुद चलकर आती है?
यह कहानी है बलवंत सिंह की। एक ऐसे ही बूढ़े ढाबे वाले की जिसके लिए फौजी की वर्दी भगवान का रूप थी। उसने अपनी सारी जमा पूंजी और अपनी बेटी के भविष्य की चिंता को एक तरफ रखकर सरहद जा रहे भूखे प्यासे फौजियों को अपने हाथों से खाना खिलाया और बदले में एक पैसा तक नहीं लिया। उसने तो बस अपना फर्ज निभाया था। पर कुछ महीने बाद जब इसी सेना का एक काफिला दोबारा उसके टूटे फूटे ढाबे पर रुका तो वे अपने साथ सिर्फ यादें नहीं बल्कि एक ऐसी सौगात लेकर आए थे जिसने ना सिर्फ बलवंत सिंह की बल्कि उसकी आने वाली सात पुश्तों की तकदीर को हमेशा के लिए बदल दिया।
यह कहानी है एक छोटे से त्याग और उसके उस अविश्वसनीय परिणाम की जो आपकी आंखों में आंसू और दिल में भारतीय सेना के लिए सम्मान को हजार गुना बढ़ा देगी।
अध्याय 1: फौजी ढाबा
पठानकोट से जम्मू की ओर जाने वाले नेशनल हाईवे पर पहाड़ों की तलहटी में एक छोटा सा, लगभग गुमनाम सा ढाबा था। नाम था ‘शेर-ए-पंजाब फौजी ढाबा’। यह कोई आलीशान रेस्टोरेंट नहीं था। बांस के खंभों पर टिकी एक टिन की छत, कुछ पुरानी लकड़ी की बेंचें और मेजें, और एक कोने में धुएं से काली हो चुकी एक रसोई। पर इस ढाबे की हवा में एक अजीब सा अपनापन और खाने में घर जैसी मोहब्बत थी।
इस ढाबे के मालिक और एकमात्र रसोइए थे 70 साल के सरदार बलवंत सिंह। सफेद लंबी दाढ़ी, सिर पर नीली पगड़ी और चेहरे पर जिंदगी के तजुर्बों की गहरी लकीरें। पर उन लकीरों के बीच उनकी आंखों में एक ऐसी चमक थी जो किसी फौजी में ही देखने को मिलती है। बलवंत सिंह की जिंदगी, संघर्ष और स्वाभिमान की एक लंबी दास्तान थी। जवानी में वह खुद फौज में भर्ती होना चाहते थे, पर परिवार की जिम्मेदारियों ने उन्हें रोक लिया।
उनका यह सपना उनके इकलौते बेटे विक्रम ने पूरा किया था। विक्रम भारतीय सेना में कैप्टन था। पर 4 साल पहले कश्मीर में आतंकियों से हुई एक मुठभेड़ में कैप्टन विक्रम सिंह देश के लिए शहीद हो गए थे। उस हादसे में विक्रम की पत्नी भी चल बसी थी, और अपने पीछे छोड़ गई थी अपनी 5 साल की बेटी प्रिया। अब इस दुनिया में बलवंत सिंह का प्रिया के सिवा कोई नहीं था। प्रिया ही उनकी जिंदगी थी, उनका हौसला थी और उनके जीने का एकमात्र मकसद थी।
अब वह 12 साल की हो चुकी थी और पास के एक सरकारी स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। वह पढ़ने में बहुत होशियार थी और डॉक्टर बनना चाहती थी। बलवंत सिंह अपनी इस पोती के सपने को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत करते। ढाबे से जो कुछ कमाई होती उससे घर का खर्च और प्रिया की पढ़ाई का खर्चा चलता था। कमाई बस इतनी थी कि दो वक्त की रोटी और थोड़ी बहुत बचत हो पाती। प्रिया की आगे की पढ़ाई और डॉक्टरी का खर्चा किसी पहाड़ जैसा था, जिसे देखकर बलवंत सिंह की हिम्मत अक्सर जवाब दे जाती। पर वह अपनी पोती के सामने कभी अपनी चिंता जाहिर नहीं करते थे।
अगस्त का महीना था। उमस भरी गर्मी। दोपहर का वक्त था और ढाबे पर ज्यादा भीड़ नहीं थी। बलवंत सिंह अपनी रसोई में रोटियां सेक रहे थे और प्रिया बाहर बैठी अपने स्कूल का होमवर्क कर रही थी। तभी धूल उड़ाते हुए सेना के तीन बड़े ट्रक ढाबे के सामने आकर रुके। उनमें से करीब 20-25 फौजी उतरे। उनकी वर्दियां धूल से सनी हुई थीं, चेहरे थकान से मुरझाए हुए थे, पर आंखों में एक गजब की दृढ़ता और अनुशासन था।
बलवंत सिंह ने जैसे ही फौजियों को देखा, उनके हाथ एक पल के लिए रुक गए। उनके दिल में एक साथ कई भावनाएं उमड़ पड़ीं। अपने बेटे की याद, फौजी वर्दी के लिए सम्मान और इन जवानों के लिए एक पिता जैसी ममता। वह फौरन अपनी रसोई से बाहर आए। “आओ पुत्तर! आओ जी आयां नूं!” उनकी आवाज में एक गहरी गर्मजोशी थी।
फौजी बेंचों पर बैठ गए। उनके लीडर, एक रौबदार मूंछों वाले सूबेदार मेजर गुरमीत सिंह ने बलवंत सिंह से पूछा, “बाऊजी, खाना मिलेगा? जवान बहुत भूखे हैं। लंबा सफर तय करके आए हैं और सरहद पर जा रहे हैं।” ‘सरहद’, यह शब्द सुनते ही बलवंत सिंह का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। “हाँ-हाँ पुत्त, क्यों नहीं? आज तो मेरे ढाबे की किस्मत खुल गई कि देश के रक्षक खुद मेरे यहाँ मेहमान बनकर आए हैं। तुम लोग हाथ-मुंह धो लो, मैं अभी गरमा-गरम खाना लगाता हूँ।”
और फिर अगले 1 घंटे तक बलवंत सिंह ने अपनी उम्र और अपनी थकान को भुलाकर एक जुनून के साथ काम किया। उन्होंने खुद ताजी रोटियां सेकीं, दाल में घर के बने मक्खन का तड़का लगाया, आलू-गोभी की सब्जी बनाई और साथ में सलाद काटा। प्रिया भी दौड़-दौड़ कर सबको पानी पिला रही थी, उसकी नन्ही आंखों में भी उन फौजियों के लिए एक गहरा सम्मान था।
फौजियों ने कई दिनों बाद ऐसा स्वादिष्ट और घर जैसा खाना खाया था। खाना खाने के बाद सूबेदार गुरमीत सिंह बिल चुकाने के लिए बलवंत सिंह के पास आए। “बाऊजी, कितना पैसा हुआ?” बलवंत सिंह, जो अब तक चूल्हे के पास बैठे उन जवानों को तृप्ति से खाना खाते देख रहे थे, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने हाथ जोड़ लिए। “नहीं पुत्तर, पैसे नहीं।” “क्यों बाऊजी? कोई कमी रह गई क्या खाने में?” गुरमीत सिंह ने हैरानी से पूछा। “नहीं पुत्तर, कमी मेरे खाने में नहीं, मेरी किस्मत में रह गई थी जो आज तुम लोगों ने आकर पूरी कर दी।” बलवंत सिंह की आवाज भर्रा गई। “तुम लोग इस देश की रखवाली के लिए अपनी जान देने जा रहे हो। जब तुम जागते हो, तब हम यहाँ चैन से सोते हैं। और मैं, एक बूढ़ा बाप, तुम लोगों को एक वक्त की रोटी खिलाकर उसके पैसे लूं? नहीं पुत्तर, मुझसे यह पाप नहीं होगा।”
यह बात सुनकर सभी जवान निशब्द हो गए। “बाऊजी, हम आपकी भावनाओं की कद्र करते हैं, पर हम मुफ्त में खाना नहीं खा सकते।” “पुत्तर, आज तो मुझे नियम-कानून मत सिखाओ। मेरा भी एक बेटा था, कैप्टन विक्रम सिंह।” बलवंत सिंह ने दीवार पर लगी अपने बेटे की तस्वीर की ओर इशारा किया। “वह भी तुम्हारी तरह इसी वर्दी में देश की सेवा करते हुए शहीद हो गया। आज जब मैंने तुम सबको खाते हुए देखा, तो मुझे लगा जैसे मेरा विक्रम ही वापस आ गया है। आज तुम सब मेरे विक्रम हो, और कोई बाप अपने बच्चों से खाने के पैसे नहीं लेता।”
यह सुनकर वहाँ मौजूद हर फौजी की आंखें नम हो गईं। सूबेदार गुरमीत सिंह ने आगे बढ़कर बलवंत सिंह को गले लगा लिया। “बाऊजी, आप सिर्फ एक ढाबे वाले नहीं, एक सच्चे देशभक्त और एक महान पिता हैं।” उन्होंने बहुत जोर दिया, पर बलवंत सिंह ने एक भी पैसा लेने से साफ इंकार कर दिया। चलते समय गुरमीत सिंह ने अपनी जेब से एक छोटा सा आर्मी का प्रतीक चिन्ह निकाला और बलवंत सिंह के हाथ में रख दिया। “इसे अपने पास रखिएगा बाऊजी। यह हमारी तरफ से आपके लिए एक छोटी सी सलामी है। और वादा रहा, जब भी हम इस रास्ते से गुजरेंगे, आपके हाथ की बनी रोटी खाने जरूर आएंगे।” फौजी चले गए, पर बलवंत सिंह की आंखों में एक अजीब सी तृप्ति और शांति छोड़ गए।
अध्याय 2: तूफान का आना
फौजियों के जाने के बाद, जिंदगी फिर से अपनी पुरानी रफ्तार पर लौट आई। पर अब मुश्किलें बढ़ने वाली थीं। कुछ ही हफ्तों में मानसून आ गया। इस साल बारिश ने जैसे सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। टीन की छत में जगह-जगह छेद हो गए। पानी अंदर टपकने लगा। रसोई में रखा राशन खराब होने लगा। ढाबे पर ग्राहक आने कम हो गए। बलवंत सिंह की कमाई लगभग ठप हो गई।
प्रिया की स्कूल की फीस का समय भी नजदीक आ रहा था। बलवंत सिंह ने गांव के एक सूदखोर महाजन, श्यामलाल, से अपने ढाबे के कागज गिरवी रखकर 50,000 रुपये का कर्ज ले लिया। श्यामलाल एक बेहद लालची और पत्थर दिल इंसान था, जिसकी नजर बहुत पहले से बलवंत सिंह के उस ढाबे पर थी। कर्ज के पैसों से प्रिया की फीस तो भर गई, पर घर का खर्च और ढाबे की मरम्मत का काम अभी भी बाकी था।
दो महीने बीत गए। श्यामलाल अब अपने पैसे वापस मांगने लगा। वह रोज ढाबे पर आता और बलवंत सिंह को जलील करता। “ए बुड्ढे, मेरे पैसे कब लौटाएगा? वरना यह ढाबा खाली कर दे, अब यह मेरा है!” “बाऊजी, मुझे कुछ और मोहलत दे दीजिए…” “कैसी मोहलत? मुझे मेरे पैसे चाहिए, ब्याज के साथ!” श्यामलाल गुर्राया।
एक दिन तो उसने हद ही कर दी। वह अपने दो लठैतों के साथ आया और ढाबे का सामान बाहर फेंकने लगा। प्रिया यह देखकर डर के मारे अपने दादा से लिपट गई। बलवंत सिंह गिड़गड़ाए, पर उस पत्थर दिल पर कोई असर नहीं हुआ। “देख बुड्ढे, मैं तुझे 10 दिन की मोहलत और देता हूँ। अगर पैसे नहीं मिले, तो तू और तेरी यह पोती, दोनों सड़क पर होगे!” बलवंत सिंह पूरी तरह टूट चुके थे। वह इतनी बड़ी रकम कहाँ से लाते? उस रात, कई सालों बाद, एक फौजी का बाप, एक शहीद का पिता, अपनी बेबसी पर फूट-फूट कर रोया।
अध्याय 3: कर्ज का भुगतान
दसवें दिन, जब बलवंत सिंह और प्रिया अपना बचा-खुचा सामान समेट रहे थे, तभी सड़क पर एक साथ कई गाड़ियों के हॉर्न बजे। सेना के कई बड़े-बड़े ट्रक और जीपों का एक लंबा काफिला उनके ढाबे की ओर आ रहा था। सबसे पहली जीप से सूबेदार मेजर गुरमीत सिंह उतरे। पर आज वह अकेले नहीं थे। उनके साथ एक और अफसर थे जिनके कंधे पर कर्नल के सितारे चमक रहे थे।
गुरमीत सिंह ने आगे बढ़कर बलवंत सिंह के पैर छुए। “बाऊजी, हम आ गए अपना वादा निभाने।” बलवंत सिंह हैरान थे, पर उनकी आंखों में खुशी की जगह एक गहरी उदासी थी। तभी वहां श्यामलाल अपने लठैतों के साथ आ धमका। “चलो बुड्ढे, मोहलत खत्म! खाली करो मेरा ढाबा!” “तुम्हारा ढाबा कब से हो गया?” गुरमीत सिंह ने कड़क आवाज में पूछा। “तू कौन है बे? इस बुड्ढे ने मुझसे कर्ज लिया है!” कर्नल साहब, जो अब तक चुपचाप सब कुछ देख रहे थे, आगे बढ़े। उनकी आंखों में एक ऐसी ठंडक थी जिसे देखकर श्यामलाल जैसा आदमी भी कांप गया। “कितना कर्ज लिया है इन्होंने?” “जी…जी, 50,000,” श्यामलाल हकलाया। कर्नल ने अपने एक जवान को इशारा किया। जवान एक ब्रीफकेस लेकर आया। कर्नल ने उसे खोला, उसमें नोटों की गड्डियां भरी हुई थीं। उन्होंने 50,000 रुपये निकालकर श्यामलाल के मुंह पर दे मारे। “यह लो इनका कर्ज। और अब, इससे पहले कि हम तुम्हारे इस कर्ज की कानूनी जांच करें, यहाँ से दफा हो जाओ।” कर्नल की आवाज और उनके पद का रौब देखकर श्यामलाल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वह चुपचाप पैसे उठाकर भाग निकला।
बलवंत सिंह और प्रिया हैरान थे। कर्नल साहब अब बलवंत सिंह की ओर मुड़े, उनके चेहरे पर अब एक नरम मुस्कान थी। “बाऊजी, हमें माफ कर दीजिएगा, हमें आने में थोड़ी देर हो गई।” “नहीं साहब… आपने तो आज मेरी इज्जत बचा ली। यह एहसान…” “एहसान नहीं बाऊजी, यह तो कर्ज है जो हम पर आपके उस एक दिन के खाने का चढ़ा हुआ है। और हम फौजी किसी का कर्ज अपने ऊपर नहीं रखते।” कर्नल ने गुरमीत सिंह को इशारा किया, जिन्होंने एक बड़ा सा फोल्डर कर्नल साहब को थमाया। “बाऊजी, आपने उस दिन हमारे 20 जवानों को खाना खिलाया था। आज हम 20 नहीं, 200 जवान आए हैं। पर इस टूटे-फूटे ढाबे में नहीं, हम इसे दोबारा बनाएंगे।” कर्नल ने फोल्डर खोला, जिसमें एक बिल्डिंग का नक्शा था। “बाऊजी, भारतीय सेना ने यह फैसला किया है कि वह आपके इस ढाबे को गोद लेगी। हम यहाँ एक नया, बड़ा और आधुनिक ढाबा बनाएंगे। यह इस हाईवे पर भारतीय सेना का एक आधिकारिक विश्राम स्थल होगा। इसका पूरा ठेका आपका होगा, और आपको हर महीने एक निश्चित आमदनी मिलेगी।” बलवंत सिंह को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। “और बाऊजी, इस ढाबे का नाम अब होगा ‘शहीद कैप्टन विक्रम सिंह मेमोरियल ढाबा’। यह आपके वीर बेटे को हमारी सेना की तरफ से एक छोटी सी श्रद्धांजलि होगी।”
यह सुनते ही बलवंत सिंह की आंखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा। उनके शहीद बेटे को, जिसे वह लगभग भूल चुके थे, आज इतना बड़ा सम्मान मिल रहा था। पर सौगातें अभी खत्म नहीं हुई थीं। कर्नल साहब प्रिया के पास गए और उसके सिर पर हाथ रखा। “बेटी, तुम डॉक्टर बनना चाहती हो ना?” प्रिया ने डरते-डरते ‘हाँ’ में सिर हिलाया। “तो तुम्हारी पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी आज से भारतीय सेना की है। तुम्हारा एडमिशन पुणे के प्रतिष्ठित आर्म्ड फोर्सेस मेडिकल कॉलेज में करवाया जाएगा। तुम्हारा रहना, खाना, फीस, सब कुछ सेना उठाएगी। तुम बस मन लगाकर पढ़ना।”
यह एक ऐसा सपना था जो सच हो गया था। बलवंत सिंह और प्रिया दोनों रो रहे थे, पर यह आंसू दुख के नहीं, बल्कि अकल्पनीय खुशी और कृतज्ञता के थे। कुछ ही महीनों में, उस पुराने ढाबे की जगह एक शानदार ‘शहीद कैप्टन विक्रम सिंह मेमोरियल ढाबा’ खड़ा हो गया। बलवंत सिंह अब एक मजबूर बूढ़े ढाबे वाले नहीं, बल्कि एक सम्मानित उद्यमी थे। प्रिया भी अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए पुणे चली गई। यह कहानी हमें सिखाती है कि देशभक्ति और नेकी का कोई भी काम, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों ना लगे, कभी व्यर्थ नहीं जाता। बलवंत सिंह ने तो बस कुछ भूखे फौजियों को एक वक्त की रोटी खिलाई थी, पर बदले में भारतीय सेना ने उन्हें और उनकी पोती को एक पूरी जिंदगी का सम्मान और सुरक्षा दे दी।