क्या होता है जब इंसानियत किसी देश की सरहदों से ऊंची हो जाती है?
क्या एक साधारण से इंसान की छोटी सी ईमानदारी किसी की पूरी दुनिया को बिखरने से बचा सकती है? यह कहानी एक ऐसे ही मामूली टैक्सी ड्राइवर की है जिसकी जेब भले ही खाली थी लेकिन उसका जमीर दौलत से कहीं ज्यादा अमीर था, और एक ऐसी विदेशी महिला की है जो हजारों मील दूर एक अनजान देश में अपनी पहचान खोकर पूरी तरह से लाचार और बेबस हो चुकी थी।
जब कई दिनों की नाकाम कोशिशों के बाद पुलिस और दूतावास भी उसकी मदद नहीं कर पाए और वह अपनी सारी उम्मीदें खो चुकी थी, तब वो टैक्सी ड्राइवर किसी फरिश्ते की तरह उसका खोया हुआ पासपोर्ट लेकर उसके सामने आ खड़ा हुआ। लेकिन कहानी यहाँ खत्म नहीं होती। उस महिला ने उस ड्राइवर की ईमानदारी के बदले में उसे पैसे नहीं, बल्कि एक ऐसा तोहफा दिया, एक ऐसा सम्मान दिया जिसे देखकर ना सिर्फ उस ड्राइवर के, बल्कि हर उस इंसान के होश उड़ गए जो यह मानता है कि दुनिया से अच्छाई खत्म हो चुकी है।
यह कहानी उस ईमानदारी, उस कृतज्ञता और उस अप्रत्याशित चमत्कार की है जो आपकी आंखों को नम कर देगी।
अध्याय 1: दिल्ली में खोया हुआ
दिल्ली, भारत का दिल। यह शहर किसी के लिए सपनों का आशियाना है तो किसी के लिए एक अंतहीन भूलभुलैया। ऐसी ही एक भूलभुलैया में खो गई थी जैस्मिन व्हाइट, लंदन की रहने वाली 30 साल की एक मशहूर वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर। जैस्मिन भारत के राष्ट्रीय उद्यानों की तस्वीरें लेने के अपने सपने को पूरा करने के लिए यहाँ आई थी।
उसका सफर अब अपने आखिरी पड़ाव पर था। दिल्ली से दो दिन बाद उसकी वापस लंदन की फ्लाइट थी। उस शाम जैस्मिन चांदनी चौक की भीड़भाड़ वाली गलियों में घूमकर खरीदारी करके वापस अपने होटल के लिए निकली। उसने एक पीली-काली टैक्सी ली। होटल पहुंचकर उसने पैसे दिए, ड्राइवर को धन्यवाद कहा और अपने कमरे में चली गई।
अगली सुबह, जब वह अपनी पैकिंग कर रही थी, तो उसने हैंडबैग खोला ताकि वह पासपोर्ट और टिकट निकाल कर रख सके। लेकिन बैग के अंदर पासपोर्ट नहीं था।
एक पल के लिए तो उसे लगा कि शायद उसने कहीं और रख दिया होगा। उसने पूरा कमरा छान मारा, पर पासपोर्ट कहीं नहीं था। उसे वह टैक्सी की यात्रा याद आई। शायद टैक्सी में ही गिर गया हो। लेकिन अब उस टैक्सी को कहाँ ढूंढा जाए? उसे ना तो टैक्सी का नंबर याद था, ना ही ड्राइवर का चेहरा।
जैस्मिन घबराई हुई हालत में होटल के मैनेजर के पास भागी। मैनेजर ने उसे पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवाने की सलाह दी। पुलिस ने रिपोर्ट तो लिख ली, लेकिन उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में एक गुम हुए पासपोर्ट को ढूंढना भूसे के ढेर में सुई खोजने जैसा है।
फिर शुरू हुआ जैस्मिन का वो सफर जो किसी बुरे सपने से कम नहीं था। उसने ब्रिटिश दूतावास से संपर्क किया। उन्होंने बताया कि नया इमरजेंसी यात्रा दस्तावेज बनने में कम से कम एक हफ्ता लग सकता है। उसकी फ्लाइट कल की थी। लंदन में उसकी माँ बीमार थी और उसका वहाँ पहुँचना बहुत जरूरी था।
दिन गुजरने लगे। जैस्मिन का हर दिन पुलिस स्टेशन, दूतावास और दिल्ली की सड़कों पर भटकते हुए गुजरता। वो एक अनजान शहर में बिना अपनी पहचान के कैद होकर रह गई थी। वह घंटों अपने होटल के कमरे में बैठी अपनी माँ की तस्वीर को देखकर रोती रहती।
अध्याय 2: ईमानदार टैक्सी ड्राइवर
दिल्ली के दूसरे छोर पर संगम विहार की तंग गलियों में एक छोटा सा दो कमरों का घर था। यह घर था रघु यादव का, 40 साल का एक टैक्सी ड्राइवर। रघु की दुनिया में उसकी पत्नी राधा और उसकी दो बेटियां थीं।
रघु की जिंदगी एक कभी ना खत्म होने वाली जद्दोजहद थी। टैक्सी का किराया, घर का किराया, बेटियों की स्कूल की फीस, इन सब जरूरतों का बोझ उसके कंधों पर था। लेकिन इतनी गरीबी के बावजूद, रघु ने एक चीज कभी नहीं छोड़ी थी: उसकी ईमानदारी। उसके पिता हमेशा कहते थे, “बेटा, रोटी चाहे सूखी खाना, लेकिन हमेशा हक और मेहनत की खाना।”
उस शाम जब रघु ने जैस्मिन को छोड़ा था, तो वह एक आम सवारी थी। तीन दिन बाद, रविवार को, उसने अपनी टैक्सी की अच्छी तरह से सफाई करने का सोचा। जब वह पिछली सीट के नीचे सफाई कर रहा था, तो वैक्यूम क्लीनर में कुछ फंस गया। उसने हाथ डालकर उसे निकाला। वो एक गहरे नीले रंग की छोटी सी किताब थी। वह समझ गया था कि यह पासपोर्ट था।
एक पल के लिए उसके दिल में लालच आया। वह जानता था कि अगर वह इसे लौटाएगा तो उसे अच्छा खासा इनाम मिल सकता है। फिर एक और बुरा ख्याल आया कि वह इसे काले बाजार में बेच सकता है। लेकिन अगले ही पल उसे जैस्मिन की मुस्कुराती हुई तस्वीर दिखाई दी। उसने सोचा, ‘यह लड़की भी किसी की बेटी होगी। आज वह एक अनजान देश में कितनी परेशान होगी।’ यह ख्याल आते ही उसका सारा लालच काफूर हो गया। उसने फैसला कर लिया कि वो इस पासपोर्ट को उसकी असली मालिक तक पहुँचाएगा।
लेकिन जैस्मिन को ढूंढे कहाँ? अगले दिन उसने अपनी टैक्सी निकाली, लेकिन आज वह सवारियां नहीं, जैस्मिन को ढूंढ रहा था। वो कनॉट प्लेस के हर एक बड़े होटल में गया, पर हर जगह से उसे ना ही सुनने को मिला। शाम हो गई थी, रघु थक चुका था। जब उसने राधा को पूरी बात बताई, तो राधा ने उसका साथ दिया।
अगली सुबह रघु कनॉट प्लेस के पुलिस स्टेशन पहुँचा। वहाँ जाकर उसने इंस्पेक्टर को पासपोर्ट दिखाकर पूरी कहानी बताई। इंस्पेक्टर ने कंप्यूटर में कुछ चेक किया। “हाँ, तीन दिन पहले एक ब्रिटिश नागरिक, मिस जैस्मिन व्हाइट ने पासपोर्ट गुम होने की रिपोर्ट लिखवाई थी।” इंस्पेक्टर ने रघु की पीठ थपथपाई। “शाबाश! आज के जमाने में तुम जैसे ईमानदार लोग बहुत कम मिलते हैं।” इंस्पेक्टर ने जैस्मिन के होटल का पता निकाला और एक कांस्टेबल को रघु के साथ भेज दिया।
उधर होटल के कमरे में जैस्मिन अपनी सारी उम्मीदें खो चुकी थी। तभी उसके कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई। उसने दरवाजा खोला, सामने पुलिस की वर्दी में एक आदमी खड़ा था, और उसके पीछे रघु। कांस्टेबल ने कहा, “मैडम, आपके लिए कुछ है।” रघु ने धीरे से अपनी जेब से वो नीले रंग की किताब निकाली और जैस्मिन की तरफ बढ़ा दिया। जैस्मिन ने उस पासपोर्ट को देखा। एक पल के लिए उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ। उसने कांपते हाथों से पासपोर्ट लिया, उसे खोला। हाँ, यह उसी का था। वो अब और खुद को रोक नहीं पाई। वो वहीं जमीन पर बैठकर एक बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगी। यह खुशी और राहत के आंसू थे।
थोड़ी देर बाद जब वह संभली, तो उसने रघु के दोनों हाथ पकड़ लिए। “थैंक यू! थैंक यू सो मच! आपने मुझे मेरी जिंदगी वापस दी है।” उसने तुरंत अपने पर्स से सारे पैसे, करीब 50,000 रुपये निकालकर रघु को देने लगी। “प्लीज इसे रख लीजिए।” रघु ने हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा, “नहीं मैडम, मुझे माफ कीजिए। मैं यह पैसे नहीं ले सकता। हमारे देश में मेहमान को भगवान का रूप माना जाता है। आपकी आंखों में यह जो खुशी के आंसू हैं, मेरे लिए यही सबसे बड़ा इनाम है।” यह कहकर रघु मुड़ा और चुपचाप वहाँ से जाने लगा। जैस्मिन वहीं खड़ी रह गई, हक्की-बक्की सी। कांस्टेबल ने उसे रघु की गरीबी के बारे में बताया। जैस्मिन ने उसी वक्त एक फैसला किया।
अध्याय 3: एक जादुई तोहफा
अगले दिन, जैस्मिन ने अपनी फ्लाइट कैंसिल करवा दी और रघु का पता निकालकर संगम विहार की उन तंग गलियों में पहुँच गई। रघु और उसका परिवार जैस्मिन को अपने घर के दरवाजे पर देखकर हैरान रह गए। जैस्मिन ने अंदर आकर कहा, “रघु जी, अगर आप मेरा इनाम स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या आप एक दोस्त का तोहफा स्वीकार करेंगे?” उसने कहा, “मैं जानती हूँ कि आपकी दो बेटियां हैं। मैं उनकी पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी उठाना चाहती हूँ। मैं उनके नाम पर एक ऐसा ट्रस्ट बनाना चाहती हूँ जिससे उनकी स्कूल से लेकर कॉलेज तक की सारी पढ़ाई का खर्च उठाया जाएगा।” रघु और राधा को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। “मैडम, आप यह क्या कह रही हैं?” “यह कुछ भी नहीं है, रघु जी। आपने मुझे मेरी पहचान लौटाई है। मैं तो सिर्फ आपकी बेटियों के भविष्य को एक पहचान देने की कोशिश कर रही हूँ।”
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। लंदन वापस जाने से एक दिन पहले, वो रघु के घर फिर आई, इस बार उसके हाथ में एक चाबी थी। “रघु जी, दिल्ली बहुत बड़ा शहर है।” बाहर गली के कोने में पाँच नई-नवेली चमचमाती हुई टैक्सियाँ खड़ी थीं। “यह… यह सब?” रघु की आवाज कांप रही थी। “हाँ, यह अब आपकी हैं। आप अब एक छोटे से टैक्सी सर्विस के मालिक हैं। अपने जैसे और ईमानदार ड्राइवरों को काम पर रखिए और दिल्ली आने वाले हर पर्यटक को यह दिखाइए कि भारत के लोग कितने अच्छे हैं।” रघु के पास कहने के लिए कोई शब्द नहीं थे। एक छोटी सी ईमानदारी ने आज उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया था।
जैस्मिन वापस लंदन चली गई, लेकिन उसका और रघु के परिवार का रिश्ता हमेशा के लिए जुड़ गया। रघु ने अपनी टैक्सी सर्विस का नाम ‘जैस्मिन टूर्स एंड ट्रैवल्स’ रखा। कुछ सालों बाद, जब रिया ने स्कूल में टॉप किया और उसका दाखिला दिल्ली के सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज में हुआ, तो जैस्मिन खासतौर पर उससे मिलने के लिए लंदन से आई। उस दिन रघु ने अपनी बेटी को डॉक्टर के सफेद कोट में देखा और उस विदेशी महिला को देखा जो उसकी बेटी के सिर पर एक माँ की तरह हाथ फेर रही थी, तो उसे लगा कि उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल गई हैं।