क्या होता है जब नेकी का एक छोटा सा खामोश बीज किसी की जिंदगी की सबसे बड़ी हिफाजत करने वाला एक विशाल बरगद का पेड़ बन जाता है?
क्या होता है जब एक साधारण इंसान अपनी इंसानियत के फर्ज को दुनिया के सारे नफे-नुकसान के हिसाब-किताब से ऊपर रखता है? और क्या एक फौजी का फर्ज सिर्फ देश की सरहदों पर ही खत्म हो जाता है?
यह कहानी एक ऐसे ही सीधे-सादे, गरीब ढाबे वाले की है जिसके लिए एक भूखे का पेट भरना दुनिया का सबसे बड़ा धर्म था, और एक ऐसे थके-हारे, वर्दीधारी फौजी की है जिसके लिए उस ढाबे वाले की एक थाली रोटी जिंदगी भर का एक अनमोल कर्ज बन गई थी। जब उस ढाबे वाले ने बिना किसी उम्मीद के उस भूखे फौजी की सेवा की, तो उसने सोचा भी नहीं था कि वह अपनी आने वाली सबसे बड़ी मुसीबत से बचने का एक सुरक्षा कवच तैयार कर रहा था।
और जब एक रात गुंडों और बदमाशों ने उसके छोटे से आशियाने को उजाड़ने की कोशिश की, तो उस फौजी ने लौट कर जो किया, उसने सिर्फ उन गुंडों को ही नहीं, बल्कि हर उस इंसान को हैरान कर दिया जो यह मानता है कि आज के जमाने में अच्छाई का कोई फल नहीं मिलता।
अध्याय 1: तूफानी रात का मेहमान
दिल्ली और जयपुर को जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 48। इसी दरिया के किनारे, जयपुर शहर से लगभग 50 कि.मी. पहले, जहाँ दूर-दूर तक सिर्फ अरावली की सूखी, पथरीली पहाड़ियां और कंटीली झाड़ियां ही नजर आती थीं, वहां एक छोटा सा पुराना सा ढाबा था। लकड़ी के बोर्ड पर फीके पड़ चुके रंगों से लिखा था, “बलवंत दा ढाबा – घर जैसा खाना।”
यह ढाबा और इसके मालिक, 60 साल के बलवंत सिंह, दोनों ही उस सुनसान हाईवे की आत्मा का एक हिस्सा थे। उनके चेहरे पर वक्त की लकीरें थीं, लेकिन उनकी आंखों में आज भी एक बच्चे जैसी मासूमियत थी। उनकी पत्नी सालों पहले चल बसी थीं। अब उनकी दुनिया का केंद्र था उनका इकलौता बेटा, 15 साल का सूरज। बलवंत का बस एक ही सपना था: अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर एक बहुत बड़ा साहब बनाना। वह सुबह से लेकर देर रात तक अकेले ही इस ढाबे को संभालते।
कहानी की शुरुआत उस जुलाई महीने की एक उमस भरी, तूफानी रात से होती है। हाईवे पर ट्रैफिक लगभग बंद हो चुका था। बलवंत सिंह अपने बेटे सूरज का इंतजार कर रहे थे जो कस्बे से आखिरी बस पकड़ के घर लौटने वाला था। रात के लगभग 10:00 बज चुके थे। तभी ढाबे से कुछ दूर एक जोरदार गड़गड़ाहट की आवाज आई और एक सरकारी बस की हेडलाइट्स बंद हो गईं। बस खराब हो गई थी। कुछ देर इंतजार करने के बाद, कुछ हिम्मत वाले लोग बस से उतरे। उन्हीं में से एक था वो फौजी।
उसकी उम्र यही कोई 35-36 साल रही होगी। फौलादी शरीर, और आंखों में गहरी थकान। वह किसी अग्रिम चौकी से एक लंबी, थकाने वाली सैन्य अभ्यास खत्म करके अपनी छुट्टियों पर घर लौट रहा था। वह और कुछ सवारियां उस तूफानी रात में मदद की तलाश में पैदल ही चल पड़े। उन्हें दूर एक टिमटिमाती हुई रोशनी दिखाई दी: बलवंत दा ढाबा।
जब वो फौजी बारिश में पूरी तरह भीगा हुआ, थका-हारा उस ढाबे में दाखिल हुआ, तो बलवंत सिंह ने उसे देखा। फौजी ने बहुत ही झिझकते हुए एक टूटी हुई आवाज में पूछा, “चाचा जी, क्या पीने के लिए थोड़ा पानी मिल जाएगा? और क्या एक-दो सूखी रोटी मिल जाएगी? मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं। जेब में बस यही 10 रुपये पड़े हैं।” बलवंत सिंह अपनी चारपाई से उठे। उन्होंने उन पैसों को हाथ भी नहीं लगाया। उन्होंने उस फौजी के कंधे पर एक पिता की तरह हाथ रखते हुए कहा, “बेटा, तूने यह क्या कह दिया? तू हमारा मेहमान है और उससे भी बढ़कर तू इस देश का रखवाला है।” उनकी आवाज में गर्मजोशी थी। “अरे, तुम लोग सरहदों पर भूखे-प्यासे रह के हमारी हिफाजत करते हो, तभी तो हम जैसे लोग यहां अपनी दुकानों पर चैन से दो रोटी कमा पाते हैं। आज अगर मैंने तुझसे पैसे ले लिए, तो मैं ऊपर वाले को क्या मुंह दिखाऊंगा?”
उन्होंने फौजी को सहारा देकर एक साफ-सुथरी खाट पर बिठाया। “बेटा, तू बस आराम से बैठ। आज तुझे तेरा यह बूढ़ा काका अपने हाथों से गरमा-गरम रोटियां बनाकर खिलाएगा।” उस रात बलवंत सिंह ने उस अनजान फौजी की ऐसी सेवा की जैसे कोई अपने सगे बेटे की करता है। वो फौजी, जो शायद पिछले दो दिनों से ठीक से सोया भी नहीं था, वह उस अपनेपन और उस स्वादिष्ट खाने को खाकर भावुक हो गया। “चाचा जी, मैं आपकी यह नेकी जिंदगी भर नहीं भूलूंगा।” “बेटा, इसमें नेकी कैसी? यह तो मेरा फर्ज था।”
लगभग 2 घंटे बाद जब बस ठीक हुई, तो प्रताप सिंह (उस फौजी का नाम) ने चलने से पहले एक बार फिर बलवंत का शुक्रिया अदा किया। उसने अपनी जेब से एक छोटा सा कागज का टुकड़ा निकाला और उस पर अपना नाम, अपनी यूनिट का नाम और एक फोन नंबर लिखकर बलवंत को दिया। “चाचा जी, मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है। लेकिन यह मेरा नंबर है। अगर जिंदगी में कभी भी कोई भी ऐसी मुसीबत आए, तो एक बार अपने इस बेटे को याद कर लेना। मैं आऊंगा जरूर।” बलवंत ने वह कागज का टुकड़ा अपनी पगड़ी के एक कोने में बहुत ही हिफाजत से बांध लिया।
अध्याय 2: जमीर का कर्ज
लगभग एक साल बीत गया। इस एक साल में उस हाईवे और आसपास के इलाकों में बहुत कुछ बदल गया था। एक नया, बड़ा भू-माफिया और गुंडों का सरगना, रंगा यादव, उस इलाके में सक्रिय हो गया था। वह हाईवे के किनारे बसे छोटे-छोटे ढाबों और दुकानों से ‘हफ्ता’ यानी कि सुरक्षा के नाम पर जबरन वसूली शुरू कर दी थी। एक-एक करके हाईवे के सारे ढाबे वालों ने रंगा को हफ्ता देना शुरू कर दिया था। अब बारी थी बलवंत सिंह की। एक शाम, रंगा अपने चार खूंखार दिखने वाले गुंडों के साथ उतरा। “क्या रे बुड्ढे, सुना है तेरी दाल-बाटी बड़ी मशहूर है?” बलवंत एक स्वाभिमानी इंसान थे। “यहाँ खाना खाने वालों का स्वागत है, गुंडागर्दी करने वालों का नहीं।” रंगा जोर से हंसा। “बुड्ढे में अकड़ बहुत है! आज से हर महीने 50,000 रुपये मेरे पास पहुँच जाने चाहिए।”
50,000 रुपये! बलवंत महीने भर में भी इतनी कमाई नहीं कर पाते थे। “मैं अपनी मेहनत की कमाई खाता हूँ। हराम की नहीं। मैं तुम्हें एक रुपया भी नहीं दूंगा।” यह सुनना था कि रंगा का पारा चढ़ गया। उसने अपने गुंडों को इशारा किया, जिन्होंने ढाबे में तोड़-फोड़ शुरू कर दी। “यह तो सिर्फ ट्रेलर था बुड्ढे! अगर अगले हफ्ते तक पैसे नहीं पहुँचे, तो अगली बार मैं यह ढाबा नहीं, तेरी हड्डियां तोडूंगा।”
अगले दिन बलवंत पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाने गए, लेकिन थानेदार ने, जो रंगा से मिला हुआ था, उल्टा उन्हें ही डांट दिया। हफ्ते का आखिरी दिन आ गया। उस रात रंगा अपने 10-12 गुंडों के पूरे काफिले के साथ आया, उनके हाथों में लाठियां और मिट्टी के तेल के पीपे थे। “बोल बुड्ढे, लाया पैसा?” “रंगा भाई, मुझ गरीब पर रहम करो,” बलवंत ने हाथ जोड़कर कहा। रंगा हंसा। “रहम? रहम करना तो मैंने सीखा ही नहीं! फूंक दो इस ढाबे को! और इस बुड्ढे को भी इसी आग में फेंक देना!” गुंडे आगे बढ़े। उन्होंने मिट्टी का तेल छिड़कना शुरू कर दिया। बलवंत को लगा कि आज उसकी जिंदगी का आखिरी दिन है।
उसने अपनी आंखें बंद कर लीं, और अचानक उसे अपनी पगड़ी के उस कोने में बंधी हुई एक साल पुरानी कागज की पुड़िया याद आई। उसे उस फौजी, प्रताप सिंह, और उसके कहे हुए शब्द याद आए। यह एक हताश इंसान की आखिरी कोशिश थी। उसने अपनी पूरी ताकत से चिल्ला कर कहा, “रुको! मुझे बस एक फोन कर लेने दो!” रंगा हंसा। “क्या रे बुड्ढे, अब मरने से पहले भगवान को फोन करेगा? कर ले!” बलवंत ने कांपते हुए हाथों से अपनी पगड़ी खोली और सूरज को आवाज दी। सूरज दौड़ कर आया और उसने कांपते हुए अपनी छोटी सी मोबाइल से वह नंबर मिलाया।
हजारों किलोमीटर दूर, कश्मीर की एक बर्फीली चौकी पर, सूबेदार मेजर प्रताप सिंह अपने बंकर में बैठा एक बहुत ही खतरनाक ऑपरेशन की योजना बना रहा था। तभी उसके सैटेलाइट फोन पर एक अनजाने सिविलियन नंबर से कॉल आई। उसने फोन उठाया। दूसरी तरफ से एक बच्चे की रोती हुई, घबराई हुई सी आवाज आई। “हेलो… प्रताप सिंह अंकल? मैं सूरज बोल रहा हूँ, बलवंत का ढाबा… पापा को गुंडे मार रहे हैं… प्लीज बचा लीजिए अंकल!” ‘बलवंत दा ढाबा’। यह नाम सुनते ही प्रताप सिंह के जहन में एक साल पुरानी वो तूफानी रात कौंध गई। उसके खून में जैसे एक उबाल आ गया। उसने अपनी फौजी की चट्टान जैसी दृढ़ आवाज में कहा, “बेटा, घबराना मत। अपने पापा को मेरा फोन दो।” “चाचा जी,” प्रताप सिंह ने कहा, “आप चिंता मत कीजिए। बस मुझे इतना बताइए आप अभी कहाँ हैं।” बलवंत ने रोते हुए अपनी लोकेशन बताई। “ठीक है,” प्रताप सिंह ने कहा। “आप बस किसी भी तरह अगले आधे घंटे तक उन्हें बातों में उलझा के रखिए। मैं कुछ करता हूँ।” उसने तुरंत जयपुर में स्थित साउथ वेस्टर्न आर्मी कमांड के मुख्यालय में अपने एक बहुत ही सीनियर ऑफिसर, ब्रिगेडियर नायर, को फोन किया। उसने पूरी स्थिति की गंभीरता के बारे में बताया। “सर, यह एक फौजी होने के नाते हमारी इज्जत का सवाल है।” ब्रिगेडियर नायर भी एक बहुत ही नेक इंसान थे। “प्रताप, तुम चिंता मत करो। तुम सरहद पर देश को संभालो, हम यहाँ देश के अंदर अपने लोगों को संभाल लेंगे।”
अध्याय 3: वापसी
रंगा और उसके गुंडे बलवंत का मजाक उड़ा रहे थे। “क्या हुआ रे बुड्ढे, नहीं आया तेरा भगवान?” वे माचिस जलाने ही वाले थे, तभी दूर से एक के बाद एक कई गाड़ियों के सायरन की गूंज सुनाई देने लगी। कुछ ही मिनटों में, पुलिस की 10-12 जीपों ने उस ढाबे को चारों तरफ से घेर लिया। हथियारों से लैस कमांडो उतरे, और उनके पीछे खुद आईजी साहब और जिले के एसपी और कलेक्टर भी उतरे। यह नजारा देखकर रंगा और उसके गुंडों के होश उड़ गए। जब आईजी साहब खुद गाड़ी से उतर कर सीधा बलवंत सिंह के पास गए और बहुत ही सम्मान से कहा, “आप चिंता मत कीजिए बाबा जी, अब आपको कोई हाथ भी नहीं लगा सकता,” तो रंगा समझ गया कि खेल खत्म हो चुका है। उस रात, रंगा और उसके पूरे गिरोह को रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया गया।
लेकिन कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी। अगली सुबह, एक बड़ी आर्मी की जीप आकर रुकी। उसमें से एक युवा ऑफिसर उतरा। “चाचा जी, सूबेदार मेजर प्रताप सिंह ने आपके लिए छोटा सा तोहफा भेजा है।” उसने उन्हें एक बड़ा सा लिफाफा दिया। उस लिफाफे में सूरज के नाम पर जयपुर के सबसे अच्छे प्राइवेट स्कूल में एडमिशन का फॉर्म और उसकी पूरी पढ़ाई के लिए आर्मी वेलफेयर फंड की तरफ से एक स्कॉलरशिप का पत्र था। साथ में प्रताप सिंह का लिखा हुआ एक छोटा सा खत भी था। खत में लिखा था: “चाचा जी, सादर प्रणाम। मुझे माफ कर दीजिएगा कि मैं खुद नहीं आ सका। सरहद बुला रही है। आपने उस रात मुझे जो रोटी खिलाई थी, उसका कर्ज तो मैं कभी नहीं चुका सकता। लेकिन एक बेटे के तौर पर, अपने पिता के लिए एक छोटा सा फर्ज निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। सूरज अब सिर्फ आपका ही नहीं, हम सबका बेटा है। अपना ध्यान रखिएगा। आपका बेटा, प्रताप सिंह।”
बलवंत सिंह और सूरज दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे। लेकिन आज यह दुख के नहीं, खुशी, गर्व और एक ऐसे रिश्ते के थे जो खून का तो नहीं था, लेकिन उससे कहीं ज्यादा गहरा और पवित्र था। यह कहानी हमें सिखाती है कि नेकी का एक छोटा सा, निस्वार्थ कर्म भी कभी बेकार नहीं जाता।