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    ट्रैफिक सिग्नल पर कार का शीशा साफ़ कर रहा था बच्चा, जब अंदर बैठे कलेक्टर ने देखा तो काँप उठे

    rinnaBy rinna15/10/2025Updated:15/10/202510 Mins Read
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    90 सेकंड की नियति

    एक ट्रैफिक सिग्नल की लाल बत्ती, सिर्फ़ 90 सेकंड का ठहराव। पर क्या आप यकीन करेंगे कि यह 90 सेकंड किसी की पूरी ज़िंदगी को बदलने के लिए काफ़ी हो सकते हैं? यह कहानी है एक ताक़तवर कलेक्टर की, जो अपनी एयर-कंडीशंड गाड़ी के बंद शीशों के पीछे दुनिया के दुख-दर्द से बेखबर, अपनी फ़ाइलों में उलझा हुआ था। और यह कहानी है एक 10 साल के मासूम बच्चे की, जिसके नन्हे हाथ ट्रैफ़िक सिग्नल पर गाड़ियों के गंदे शीशे साफ़ करते-करते कठोर हो गए थे।

    उस दिन जब उस बच्चे ने कलेक्टर की गाड़ी का शीशा साफ़ किया और पैसे माँगने के लिए झुका, तो कलेक्टर ने उसके चेहरे पर कुछ ऐसा देखा कि वह अपनी कुर्सी, अपना पद, अपना रुतबा, सब कुछ भूल गया। वह गाड़ी का दरवाज़ा खोलकर बाहर भागा और उस मैले-कुचैले बच्चे को रोते हुए अपने सीने से लगा लिया। आखिर कौन था वह बच्चा, और एक पत्थर-दिल माने जाने वाले कलेक्टर की आँखों में आँसुओं का सैलाब क्यों आ गया? चलिए, उस 90 सेकंड की लाल बत्ती में घटी इस अविश्वसनीय कहानी को क़रीब से जानते हैं।

    ज़िला जयपुर। यहाँ के नए डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर थे श्रीमान अर्जुन शर्मा। अर्जुन शर्मा का नाम ही अनुशासन, क़ाबिलियत और एक तरह की शक्ति का पर्याय था। 40 साल की उम्र में ही वह इस बड़े पद पर पहुँच गए थे। वह दिन-रात काम में डूबे रहते। उनके लिए उनकी फ़ाइलें, उनके प्रोजेक्ट्स और ज़िले का प्रशासन ही उनकी दुनिया थी। वह एक मशीन की तरह काम करते थे, जिसके अंदर शायद भावनाएँ थीं ही नहीं।

    लोग उन्हें एक सफल अफ़सर मानते थे। पर बहुत कम लोग जानते थे कि उनके इस कठोर और खामोश चेहरे के पीछे एक ऐसा गहरा ज़ख़्म छिपा था जो पिछले सात सालों से हर पल रिसता रहता था।

    सात साल पहले, जब अर्जुन शर्मा एक छोटे ज़िले में एसडीएम के पद पर तैनात थे, उनकी हँसती-खेलती दुनिया एक पल में उजड़ गई थी। उनका पाँच साल का बेटा, राहुल, एक भीड़ भरे मेले में खो गया था। उन्होंने अपनी पूरी ताक़त, अपनी पूरी पहुँच लगा दी, पर राहुल का कहीं पता नहीं चला। पुलिस को शक था कि उसे बच्चा चोरों का कोई गिरोह उठा ले गया है।

    उस एक हादसे ने अर्जुन शर्मा की ज़िंदगी को तबाह कर दिया था। उनकी पत्नी, अंजलि, अपने बेटे के ग़म में डिप्रेशन में चली गई थी। वह अब बस एक ज़िंदा लाश बनकर रह गई थी, जो न किसी से बात करती, न हँसती। अर्जुन ने अपने इस असहनीय दर्द को अपने काम में दफ़न कर लिया। वह बाहर से एक कठोर अफ़सर बन गए। पर अंदर ही अंदर, वह हर रोज़ अपने बेटे की याद में तिल-तिल कर मर रहे थे।

    और इसी शहर के एक दूसरे कोने में एक और दुनिया बसती थी – सड़कों पर, ट्रैफ़िक सिग्नलों पर। इसी दुनिया का एक हिस्सा था 10 साल का छोटू। छोटू को नहीं पता था कि उसके माँ-बाप कौन हैं, उसका असली नाम क्या है। जब से उसे होश आया था, उसने ख़ुद को सड़कों पर ही पाया था। वह कुछ और आवारा बच्चों के साथ एक बड़े लड़के, जग्गा दादा, के लिए काम करता था। जग्गा उन सब बच्चों से दिन भर ट्रैफ़िक सिग्नल पर भीख मँगवाता या गाड़ियों के शीशे साफ़ करवाता, और शाम को उनकी दिन भर की कमाई का बड़ा हिस्सा छीन लेता।

    छोटू की ज़िंदगी रोज़ सुबह एक नई लड़ाई के साथ शुरू होती: भूख, ग़रीबी और जग्गा के दिए हुए ज़ख़्म। पर इन सबके बावजूद, उसकी आँखों में एक अजीब सी मासूमियत थी। वह अक्सर सिग्नल पर खड़ी महँगी गाड़ियों के अंदर बैठे बच्चों को देखता और सोचता कि उनकी दुनिया कितनी अलग है। उसके पास अपने अतीत की कोई याद नहीं थी, सिवाय एक चीज़ के: उसके गले में एक पुराना, घिसा हुआ चाँदी का लॉकेट था, जिस पर ‘R’ अक्षर खुदा हुआ था। यह लॉकेट उसे कहाँ से मिला, उसे नहीं पता था, पर वह उसे अपनी जान से भी ज़्यादा सँभाल कर रखता।

    उस दिन जयपुर में एक बहुत बड़ी वीआईपी मूवमेंट थी। ट्रैफ़िक हर जगह जाम था। कलेक्टर अर्जुन शर्मा की गाड़ी भी शहर के एक बड़े ट्रैफ़िक सिग्नल पर आकर रुकी। वह पीछे की सीट पर बैठे एक बहुत ज़रूरी फ़ाइल देख रहे थे। उनके चेहरे पर वही गंभीरता और तनाव था। गाड़ी के शीशे बंद थे और बाहर की दुनिया का शोर और गंदगी उन तक नहीं पहुँच पा रही थी।

    तभी, उनकी गाड़ी के शीशे पर एक हल्की सी दस्तक हुई। एक 10 साल का दुबला-पतला, मैले कपड़े पहने एक लड़का हाथ में कपड़ा और पानी की बोतल लिए खड़ा था। वह छोटू था।

    कलेक्टर साहब के ड्राइवर ने उसे हाथ से इशारा करके भगाने की कोशिश की। पर अर्जुन शर्मा, जो अपनी फ़ाइल में उलझे हुए थे, ने बिना देखे ही कह दिया, “रहने दो। जो काम कर रहा है, उसे करने दो।”

    छोटू ने जल्दी-जल्दी गाड़ी का अगला शीशा साफ़ किया। सिग्नल अभी भी लाल था। वह पैसे माँगने के लिए कलेक्टर साहब की सीट वाली खिड़की के पास आया। उसने फिर से शीशे पर दस्तक दी। “साहब, शीशा साफ़ हो गया। दस रुपये दे दो साहब। बहुत भूख लगी है।”

    अर्जुन शर्मा ने अपनी फ़ाइल से नज़रें हटाईं। उन्हें इन बच्चों पर बहुत गुस्सा आता था, उन्हें लगता था कि ये लोग काम नहीं करना चाहते, बस भीख माँगना जानते हैं। उन्होंने गुस्से में उसे देखने के लिए अपनी गर्दन घुमाई।

    और जैसे ही उनकी नज़रें उस बच्चे के चेहरे पर पड़ीं, समय जैसे रुक गया। अर्जुन शर्मा की साँसें जैसे गले में ही अटक गईं। वह फ़ाइल, वह गाड़ी, वह ट्रैफ़िक सिग्नल, वह दुनिया, सब कुछ एक पल के लिए ग़ायब हो गया। उनकी आँखों के सामने सिर्फ़ वह चेहरा था। वही चेहरा, वही नाक-नक्शा, और वह आँखें – वही बड़ी-बड़ी, गहरी भूरी आँखें जो बिल्कुल उसकी पत्नी अंजलि की तरह थीं। और उस गाल पर, होंठ के पास एक छोटा सा काला तिल। वही तिल जो उसके खोए हुए बेटे, राहुल, के गाल पर भी था।

    अर्जुन शर्मा का दिमाग़ सुन्न हो गया। उनका दिल इतनी ज़ोर से धड़कने लगा कि उन्हें लगा कि वह फट जाएगा। काँपते हाथों से उन्होंने अपनी जेब से बटुआ निकाला। बटुए के एक कोने में, उन्होंने अपने बेटे राहुल की पाँच साल की उम्र की एक छोटी सी तस्वीर रखी हुई थी। उन्होंने तस्वीर को देखा, और फिर उस बच्चे के चेहरे को। कोई शक नहीं था। यह… यह तो…

    तभी उनकी नज़र बच्चे के गले में पड़े उस पुराने, घिसे हुए लॉकेट पर पड़ी। वही चाँदी का लॉकेट जिस पर ‘R’ खुदा हुआ था। यह लॉकेट उन्होंने ख़ुद राहुल के पाँचवें जन्मदिन पर उसे पहनाया था। R… मतलब राहुल!

    यह एहसास इतना प्रबल था, इतना अविश्वसनीय था कि अर्जुन शर्मा ख़ुद को रोक नहीं सके। उनका सात सालों का दबा हुआ दर्द, उनकी सारी पीड़ा एक सैलाब बनकर उनकी आँखों से फूट पड़ी। उन्होंने गाड़ी का दरवाज़ा एक झटके से खोला। उस भरी ट्रैफ़िक के बीच, अपनी अफ़सर की शान, अपनी कलेक्टर की गरिमा, सब कुछ भूलकर वह गाड़ी से बाहर निकले।

    छोटू, जो अब तक हैरान होकर उन्हें देख रहा था, डर गया। उसे लगा कि साहब शायद उसे मारने के लिए बाहर निकले हैं। वह भागने ही वाला था कि अर्जुन शर्मा ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और उसे इतनी ज़ोर से अपने सीने से लगा लिया जैसे कोई बिछड़ी हुई ज़िंदगी वापस मिल गई हो। वह उस बच्चे को अपनी बाँहों में भरे, फूट-फूट कर रो रहे थे।

    “राहुल! मेरे बेटे! तुम ज़िंदा हो! मैं तुम्हारा पापा हूँ, बेटा! तुम कहाँ चले गए थे?”

    छोटू कुछ समझ नहीं पा रहा था। वह डरा हुआ था। यह बड़ा सा आदमी उसे क्यों पकड़ कर रो रहा है? पर उस आलिंगन में, उस अपनेपन में, एक ऐसा जादू था, एक ऐसी जानी-पहचानी ख़ुशबू थी जिसे शायद वह पिछले सात सालों से तलाश रहा था।

    ट्रैफ़िक सिग्नल पर खड़ा हर इंसान अपनी-अपनी गाड़ियों से निकलकर इस अविश्वसनीय दृश्य को देख रहा था। एक कलेक्टर, एक आला अफ़सर, सड़क के बीचों-बीच एक मैले-कुचैले ग़रीब बच्चे को गले लगाकर बच्चों की तरह रो रहा था। यह एक ऐसा दृश्य था जिसने हर किसी का दिल पिघला दिया।

    अर्जुन शर्मा अपने बेटे को लेकर सीधा अपने घर पहुँचे। उन्होंने अपनी पत्नी अंजलि को आवाज़ दी, “अंजलि! अंजलि! देखो कौन आया है! देखो, भगवान ने हमारी सुन ली!”

    अंजलि, जो अपने कमरे के अँधेरे में गुमसुम बैठी रहती थी, बाहर आई। उसने जब अपने सामने उस बच्चे को देखा, तो वह पहले तो पहचानी नहीं। पर जब अर्जुन ने उसके गले से वह लॉकेट दिखाया, और जब अंजलि ने उसकी आँखों में झाँका, तो एक माँ का दिल अपनी पहचान कैसे भूल सकता था। वह चीख मारकर अपने बेटे से लिपट गई। सालों का मौन, सालों का डिप्रेशन, एक पल में टूट गया। माँ और बेटे का वह मिलन एक ऐसा भावुक पल था जिसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता।

    धीरे-धीरे, छोटू उर्फ़ राहुल ने अपनी कहानी बताई। उसे कुछ भी साफ़ याद नहीं था। बस इतना याद था कि वह एक मेले में खो गया था और फिर कुछ लोग उसे एक बड़ी सी गाड़ी में कहीं ले गए थे। उन्होंने उसे बहुत डराया-धमकाया था। फिर उसे जग्गा दादा के हवाले कर दिया गया जो उससे भीख मँगवाता था।

    पूरी कहानी सुनकर अर्जुन शर्मा की आँखों में आँसुओं की जगह अब एक आग थी – इंसाफ़ की आग।

    अगले कुछ दिनों में, जयपुर शहर ने एक कलेक्टर की असली ताक़त देखी। अर्जुन शर्मा ने अपनी पूरी प्रशासनिक शक्ति उस बच्चा चोरों के गिरोह को पकड़ने में लगा दी। उन्होंने एक विशेष जाँच दल बनाया। राहुल की बताई हुई जगहों पर छापे मारे गए। और फिर एक-एक करके, जग्गा दादा और उसके पीछे काम करने वाला पूरा रैकेट पुलिस की गिरफ़्त में था। उनके चंगुल से राहुल जैसे और भी बीसियों मासूम बच्चों को छुड़ाया गया, और उनके असली माँ-बाप तक पहुँचाने का काम शुरू किया गया। अर्जुन शर्मा ने अपने बेटे के मिलने की ख़ुशी को हज़ारों और माँ-बाप की ख़ुशी में बदल दिया था।

    राहुल अब अपने घर में था, अपने माँ-बाप के प्यार और सुरक्षा के साए में। उसे एक अच्छे स्कूल में दाख़िला दिलाया गया। वह धीरे-धीरे अपने अतीत के ज़ख़्मों को भूलकर एक नई, सामान्य ज़िंदगी जीना सीख रहा था।

    अर्जुन शर्मा अब बदल चुके थे। वह अब सिर्फ़ एक कठोर अफ़सर नहीं थे। वह अब एक पिता थे। một ऐसे पिता जो हर बच्चे में अपने खोए हुए बेटे को देखते थे। उन्होंने ज़िले में बाल मज़दूरी और भिक्षावृत्ति के ख़िलाफ़ एक बहुत बड़ा अभियान चलाया। उन्होंने उन सभी छुड़ाए गए बच्चों के लिए “अपना घर” नाम का एक आश्रय गृह बनवाया।

    एक शाम, जब अर्जुन अपने बेटे राहुल को अपने साथ अपनी गाड़ी में बिठाकर घर लौट रहे थे, तो वे उसी ट्रैफ़िक सिग्नल पर रुके। आज शीशे के बाहर कोई बच्चा नहीं था। पर अंदर, अर्जुन की आँखों में आँसू थे।

    राहुल ने पूछा, “पापा, आप रो क्यों रहे हैं?”

    अर्जुन ने मुस्कुराकर अपने बेटे को गले लगा लिया। “बेटा, ये ख़ुशी के आँसू हैं। आज सात साल बाद, इस सिग्नल की लाल बत्ती मुझे चुभ नहीं रही, बल्कि बहुत ख़ूबसूरत लग रही है।”

    यह कहानी हमें सिखाती है कि उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। और यह भी कि हमारे चारों ओर, इन ट्रैफ़िक सिग्नलों पर, न जाने कितने ही मासूम छोटू अपनी पहचान और अपने परिवार को तलाश रहे हैं। अगली बार जब आप किसी सिग्नल पर रुकें, तो शायद एक पल के लिए उन बच्चों की आँखों में झाँकने की कोशिश ज़रूर कीजिएगा।

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