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    India Story

    रिक्शावाले ने अमीर सेठ को पहँचाया हॉस्पिटल, जब सेठ ने किराया पूछाँ तो उसने जो माँगा सुनकर होश उड़ गए!

    rinnaBy rinna15/10/202511 Mins Read
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    तूफ़ानी रात का सौदा

    कभी-कभी ज़िंदगी के सबसे अँधेरे रास्तों पर हमें एक ऐसी रोशनी मिलती है जो न सिर्फ़ हमारा रास्ता रोशन करती है, बल्कि हमारी पूरी मंज़िल ही बदल देती है। यह कहानी है हरी की, एक ऐसे रिक्शा वाले की, जिसके हाथ मेहनत से कठोर हो चुके थे पर दिल मोम से भी नरम था। उसने एक तूफ़ानी रात में एक अमीर सेठ की जान बचाई। और जब उस सेठ ने उसे उसकी नेकी की क़ीमत अदा करनी चाही, तो हरी ने किराए में कुछ ऐसा माँग लिया जिसे सुनकर उस अमीर सेठ के होश उड़ गए।

    उसने दौलत नहीं माँगी, घर नहीं माँगा। उसने एक ऐसा सौदा किया जिसने दो टूटे हुए दिलों को एक ऐसे मक़सद से जोड़ दिया जो दौलत से कहीं ज़्यादा क़ीमती था। चलिए, उस तूफ़ानी रात में हरी के रिक्शे पर सवार होकर उस सफ़र पर चलते हैं जिसने न सिर्फ़ एक जान बचाई, बल्कि हज़ारों ज़िंदगियों को बचाने की बुनियाद रखी।

    लखनऊ, नवाबों का शहर। यहाँ की सुबह चाय की चुस्कियों और अज़ान की आवाज़ों से शुरू होती और रातें पुराने क़िस्सों की गहराइयों में खो जातीं। इसी शहर की तंग और पुरानी गलियों में हरी अपनी ज़िंदगी का बोझ अपने तीन पहियों वाले रिक्शे पर खींच रहा था। 50 साल का हरी, जिसके चेहरे की झुर्रियों में मेहनत और ग़म की अनगिनत कहानियाँ लिखी थीं। पिछले 30 सालों से वह इसी शहर की सड़कों पर रिक्शा चला रहा था। उसका रिक्शा पुराना था, सीट फटी हुई थी, पर हरी का दिल सोने का था। हर सवारी उसके लिए सिर्फ़ किराया नहीं, बल्कि एक इंसान थी जिससे वह दो बातें करके अपनी दुनिया का अकेलापन बाँट लेता था।

    हरी का घर गोमती नदी के किनारे एक छोटी सी बस्ती में था। एक कमरे का कच्चा मकान, जहाँ वह अपनी पत्नी शांति के साथ रहता था। उनकी दुनिया बहुत छोटी और सादी थी, पर उसमें एक बहुत बड़ा ख़ालीपन था। एक ऐसा दर्द जिसे समय की कोई भी धूल ढक नहीं पाई थी।

    दस साल पहले, उनका इकलौता बेटा, 8 साल का मोहन, एक ऐसी बीमारी का शिकार हो गया था जिसका इलाज शहर के बड़े अस्पतालों में ही मुमकिन था। हरी ने अपना सब कुछ बेच दिया, दिन-रात रिक्शा चलाया, क़र्ज़ लिया। पर वह अपने बेटे के इलाज के लिए ज़रूरी पैसे जमा नहीं कर पाया और एक दिन, मोहन अपने पिता की गोद में ही इलाज के अभाव में हमेशा के लिए सो गया।

    उस दिन के बाद, हरी और शांति जैसे जीना ही भूल गए थे। पर उन्होंने अपने ग़म को अपनी कमज़ोरी नहीं बनाया। उन्होंने फ़ैसला किया कि वे अपनी बची हुई ज़िंदगी दूसरों के काम आने में गुज़ारेंगे। हरी अपनी कमाई का एक छोटा सा हिस्सा निकालकर बस्ती के ग़रीब बच्चों के लिए किताबें और भूखों के लिए रोटी का इंतज़ाम करता। उसका एक सपना था। एक बहुत बड़ा सपना। वह अपनी बस्ती में अपने बेटे मोहन के नाम पर एक छोटा सा दवाखाना (क्लीनिक) खोलना चाहता था, ताकि जो उसके बेटे के साथ हुआ, वह किसी और ग़रीब के बच्चे के साथ न हो।

    वह अपने रिक्शे में एक छोटा सा डिब्बा रखता था, जिस पर लिखा था: “मोहन का दवाखाना”। दिन भर की कमाई के बाद जो भी चिल्लर बचती, वह उसमें डाल देता। दस सालों में उस डिब्बे में कुछ हज़ार रुपये ही जमा हो पाए थे, पर हरी की उम्मीद ज़िंदा थी।

    उस रात लखनऊ पर आसमान जैसे टूट पड़ा था। घनघोर बारिश, तेज़ हवाएँ और कड़कती बिजली। सड़कें तालाब बन चुकी थीं और लोग अपने घरों में दुबके हुए थे। रात के 11 बज रहे थे। हरी दिन भर की थकान के बाद भीगता हुआ अपने घर की ओर लौट रहा था। उसका मन आज भारी था क्योंकि बारिश की वजह से कमाई कुछ ख़ास नहीं हुई थी।

    वह हज़रतगंज के पास से गुज़र रहा था। तभी उसकी नज़र सड़क के किनारे खड़े एक बुज़ुर्ग पर पड़ी। वह एक बड़ी सी पुरानी हवेली के गेट के बाहर खड़े थे, बारिश में पूरी तरह भीगे हुए और अपने सीने को कसकर पकड़े हुए थे। उनके चेहरे पर असहनीय पीड़ा के भाव थे और वह मुश्किल से साँस ले पा रहे थे। कोई गाड़ी उनके पास नहीं रुक रही थी। शायद उन्हें कोई आम भिखारी समझकर लोग नज़रअंदाज़ कर रहे थे।

    हरी ने अपना रिक्शा फ़ौरन उनके पास रोका। “साहब, क्या हुआ? आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही है।”

    उस बुज़ुर्ग ने मुश्किल से आँखें खोलीं। “मुझे… मुझे अस्पताल ले चलो। मेरा दिल…” उनकी आवाज़ उनके दर्द में डूब गई।

    हरी को अपने बेटे मोहन की याद आ गई। उसे भी ऐसे ही साँस लेने में दिक़्क़त हुई थी। हरी ने एक पल भी नहीं गँवाया। उसने उस बुज़ुर्ग को सहारा देकर अपने रिक्शे में बिठाया, अपनी फटी हुई गमछी से उनका चेहरा पोंछा। “आप चिंता मत कीजिए, सेठ जी। मैं हूँ न। मैं आपको कुछ नहीं होने दूँगा।”

    उस बुज़ुर्ग के कपड़े क़ीमती थे और उनकी कलाई पर बँधी घड़ी बता रही थी कि वह कोई बहुत अमीर इंसान हैं। हरी ने अपनी पूरी ताक़त लगाकर उस पानी भरी सड़क पर रिक्शा दौड़ा दिया। बारिश और तेज़ हो गई थी। हरी के फेफड़ों में साँस फूल रही थी, पर वह रुके नहीं। वह लगातार उस बुज़ुर्ग से बातें कर रहा था ताकि वह होश में रहें। “सेठ जी, आँखें खुली रखिए। बस हम पहुँचने ही वाले हैं। देखिए, वह सामने अस्पताल की रोशनी दिख रही है। आप अपने बच्चों के बारे में सोचिए। सब ठीक हो जाएगा।”

    वह बुज़ुर्ग, जो सेठ दामोदर दास थे, शहर के सबसे बड़े और सबसे पुराने उद्योगपतियों में से एक थे। वह दर्द में थे, पर हरी की आवाज़, उसकी हिम्मत, उन्हें एक अजीब सा सुकून दे रही थी। उन्हें लग रहा था जैसे कोई फ़रिश्ता उन्हें बचाने आया है।

    आधे घंटे की उस जानलेवा जद्दोजहद के बाद, हरी सेठ दामोदर दास को शहर के सबसे बड़े प्राइवेट अस्पताल के इमरजेंसी दरवाज़े पर लेकर पहुँचा। उसने ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाकर डॉक्टरों और नर्सों को बुलाया। सेठ जी को फ़ौरन अंदर ले जाया गया।

    हरी वहीं बाहर एक बेंच पर बैठ गया। वह पूरी तरह भीग चुका था और काँप रहा था। पर वह वहाँ से गया नहीं। वह इंतज़ार करने लगा, उस अनजान सेठ की सलामती की दुआ माँगने लगा।

    क़रीब दो घंटे बाद, एक डॉक्टर बाहर आए और बोले, “आपने इन्हें सही समय पर पहुँचा दिया। कुछ मिनट की और देर होती तो कुछ भी हो सकता था। अब वह ख़तरे से बाहर हैं।” यह सुनकर हरी की जान में जान आई। उसने ऊपर वाले का शुक्र अदा किया और चुपचाप अपना रिक्शा लेकर घर की ओर चल दिया। उसने किसी को कुछ नहीं बताया, न पैसे माँगे, न अपना नाम बताया।

    अगले कुछ दिनों तक सेठ दामोदर दास अस्पताल में रहे। जब उन्हें पूरी तरह होश आया, तो उन्होंने अपने मैनेजर को बुलाया और उस रिक्शा वाले को ढूँढ़ने का आदेश दिया। “उस आदमी ने मेरी जान बचाई है। उसे ढूँढ़कर लाओ। मैं उसे उसकी नेकी का इनाम देना चाहता हूँ।”

    मैनेजर ने शहर के सारे रिक्शा स्टैंड पर पूछताछ की, पर हरी का कुछ पता नहीं चला। सेठ दामोदर दास को लगने लगा कि शायद वह उस फ़रिश्ते से दोबारा कभी नहीं मिल पाएँगे। पर क़िस्मत ने कुछ और ही लिखा था।

    एक हफ़्ते बाद, जब हरी उसी अस्पताल के बाहर सवारी का इंतज़ार कर रहा था, तो सेठ के मैनेजर ने उसे पहचान लिया। वह हरी को लेकर सेठ दामोदर दास के आलीशान प्राइवेट रूम में पहुँचा। हरी इतना बड़ा और साफ़-सुथरा कमरा देखकर घबरा गया।

    सेठ दामोदर दास बिस्तर पर बैठे थे, पर अब उनके चेहरे पर कमज़ोरी की जगह एक गहरा आभार था। उन्होंने हरी को बैठने के लिए कहा। हरी झिझकता हुआ एक कोने में खड़ा हो गया।

    “आओ, मेरे पास बैठो,” सेठ ने नरम आवाज़ में कहा। “उस दिन तुमने मेरी जान बचाई। मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं चुका सकता।”

    हरी ने हाथ जोड़ लिए। “सेठ जी, मैंने कोई एहसान नहीं किया। मैंने तो बस अपना फ़र्ज़ निभाया।”

    “नहीं,” सेठ बोले। “तुमने फ़र्ज़ से बढ़कर काम किया। बताओ तुम्हें क्या चाहिए? मैं तुम्हारी ईमानदारी और नेकी की क़ीमत अदा करना चाहता हूँ।” उन्होंने अपनी चेक-बुक निकाली और हरी की ओर बढ़ा दी। “इस पर अपनी मनचाही रक़म भर लो। एक नया घर, अपनी पत्नी के लिए गहने, बच्चों की पढ़ाई, जो माँगोगे मिलेगा। मैं तुम्हें इतना पैसा दूँगा कि तुम्हारी सात पुश्तों को रिक्शा चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।”

    हरी ने उस ख़ाली चेक को देखा। एक पल के लिए उसकी आँखों के सामने अपनी ग़रीबी, अपनी ज़रूरतें और अपनी पत्नी का चेहरा घूम गया। वह चाहता तो उस पर लाखों रुपये भरकर अपनी सारी मुश्किलें ख़त्म कर सकता था। पर फिर उसे अपने बेटे मोहन का मासूम चेहरा याद आया। और वह सपना जो उसने मोहन के लिए देखा था।

    उसने बहुत ही विनम्रता से उस चेक को वापस सेठ की ओर बढ़ा दिया। “सेठ जी, मुझे आपकी दौलत नहीं चाहिए।”

    सेठ दामोदर दास हैरान रह गए। “पैसा नहीं चाहिए? तो फिर क्या चाहिए तुम्हें?”

    हरी की आँखों में आँसू आ गए। उसने कहा, “सेठ जी, अगर आप सच में मुझे कुछ देना ही चाहते हैं, तो एक ग़रीब बाप का सपना पूरा कर दीजिए।”

    “कैसा सपना?” सेठ ने उत्सुकता से पूछा।

    हरी ने अपने आँसू पोंछे और फिर उसने अपनी काँपती आवाज़ में अपने बेटे मोहन की पूरी कहानी सुनाई। कैसे वह एक छोटी सी बीमारी से इलाज के पैसे न होने के कारण उसकी गोद में ही दम तोड़ गया था। उसने अपने उस छोटे से डिब्बे और अपने दवाखाने के सपने के बारे में बताया। उसने कहा, “सेठ जी, दौलत का मैं क्या करूँगा? वह मेरे बेटे को तो वापस नहीं ला सकती। पर अगर आपकी मदद से मेरी बस्ती में एक छोटा सा दवाखाना खुल जाए जहाँ ग़रीब बच्चों का मुफ़्त इलाज हो, तो शायद मोहन जैसे और बच्चे मरने से बच जाएँगे। अगर आप यह कर सकें, तो यही मेरे लिए आपकी सबसे बड़ी क़ीमत होगी। यही मेरा किराया होगा।”

    यह सुनकर सेठ दामोदर दास के होश उड़ गए। वह अवाक रह गए। उन्होंने अपनी ज़िंदगी में बड़े-बड़े सौदे किए थे, लोगों को दौलत के लिए गिरगिट की तरह रंग बदलते देखा था। पर आज, एक ग़रीब रिक्शा वाला, जिसे वह कुछ लाख रुपये देकर ख़रीदने की सोच रहे थे, उनसे हज़ारों बच्चों की ज़िंदगी का सौदा कर रहा था। उसकी माँग में उसके लिए कुछ नहीं था, सिर्फ़ और सिर्फ़ दूसरों के लिए एक दर्द था, एक तड़प थी।

    सेठ दामोदर दास की कठोर आँखें नम हो गईं। वह अपनी कुर्सी से उठे और हरी के पास आए। “आज तक मैं सोचता था कि मेरे पास बहुत दौलत है, मैं कुछ भी ख़रीद सकता हूँ। पर आज तुमने मुझे एहसास दिलाया है कि असली दौलत क्या होती है। असली अमीर तुम हो, हरी। मैं तो तुम्हारे सामने बहुत ग़रीब हूँ।”

    फिर सेठ दामोदर दास ने एक ऐसा सच बताया जिसने हरी को भी चौंका दिया। “हरी, मैं तुम्हारी पीड़ा समझ सकता हूँ, क्योंकि मैं भी एक अभागा हूँ जिसने अपनी दौलत के बावजूद अपने इकलौते पोते को खो दिया है। उसे भी एक ऐसी ही बीमारी थी और मेरे सारे पैसे, सारे बड़े डॉक्टर उसे बचा नहीं सके। उस दिन के बाद से मैंने जीना ही छोड़ दिया था। पर आज, तुमने मुझे फिर से जीने का एक मक़सद दे दिया है।”

    सेठ दामोदर दास ने फ़ैसला किया। “हरी, तुम एक छोटे से दवाखाने की बात कर रहे हो। मैं तुम्हारे बेटे मोहन के नाम पर इस शहर का सबसे बड़ा बच्चों का चैरिटेबल अस्पताल बनवाऊँगा। एक ऐसा अस्पताल जहाँ किसी भी बच्चे का इलाज पैसे की कमी की वजह से नहीं रुकेगा। और इस अस्पताल को तुम चलाओगे, हरी। तुम इसके मुख्य ट्रस्टी होगे, क्योंकि इस काम के लिए डॉक्टर या मैनेजर की नहीं, बल्कि तुम्हारे जैसे एक नेक और संवेदनशील दिल वाले इंसान की ज़रूरत है।”

    उस दिन के बाद, लखनऊ शहर ने एक नया इतिहास बनते देखा। सेठ दामोदर दास ने अपनी आधी से ज़्यादा जायदाद उस अस्पताल के निर्माण में लगा दी। कुछ ही सालों में, गोमती नदी के किनारे एक शानदार मोहन चिल्ड्रन्स हॉस्पिटल खड़ा हो गया।

    हरी अब रिक्शा नहीं चलाता था। वह उस अस्पताल का संचालक था। वह हर दिन उन बच्चों की सेवा करता जिनके चेहरों में उसे अपने मोहन की मुस्कान दिखती थी। सेठ दामोदर दास भी अपना सारा वक़्त उसी अस्पताल में गुज़ारते। दो पिता जो अपने बच्चों को खो चुके थे, अब हज़ारों बच्चों के पिता बन गए थे।

    तो दोस्तों, यह थी हरी और सेठ दामोदर दास की कहानी। यह हमें सिखाती है कि नेकी का कोई मोल नहीं होता। जब आप दूसरों के दर्द को अपना बना लेते हैं, तो क़िस्मत आपके क़दमों में वह सब कुछ रख देती है, जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होती।

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