अरुण मेहता उस दिन काम से जल्दी घर पहुँचा और जो उसने देखा, उस पर उसे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ।
अरुण मेहता, मुंबई का एक सफल उद्योगपति, हमेशा की तरह रात नौ बजे के बाद ही घर लौटता था, जब सब सो चुके होते।
लेकिन उस दिन, बांद्रा में निवेशकों के साथ हुई बैठक उम्मीद से पहले खत्म हो गई। उसने किसी को बताए बिना सीधे घर लौटने का फैसला किया।
जब उसने समुद्र-दर्शन वाली अपनी आलीशान हवेली का दरवाज़ा खोला, तो दरवाज़े पर ही ठिठक गया।
ड्रॉइंग रूम के बीचोंबीच, ललिता, उसकी 28 वर्षीय घरेलू नौकरानी, फर्श पर घुटनों के बल बैठी थी, हाथ में कपड़ा लिए फर्श पोछ रही थी।
पर यह दृश्य नहीं था जिसने अरुण को स्तब्ध किया — बल्कि उसके बगल में जो खड़ा था, उसने उसका दिल हिला दिया।
वहाँ उसका चार साल का बेटा, आरव, अपने छोटे-छोटे बैंगनी रंग के बैसाखियों के सहारे खड़ा था, हाथ में रसोई का कपड़ा लिए ललिता की मदद कर रहा था।
“ललिता दीदी, मैं ये हिस्सा साफ़ कर दूँ?” आरव ने बड़ी मासूमियत से कहा।
ललिता मुस्कराई, “बस, आरव, आज तुमने बहुत मदद कर दी। अब ज़रा सोफ़े पर बैठ जाओ, मैं बाकी कर लूँगी।”
“लेकिन आप तो हमेशा कहती हैं कि हम टीम हैं,” आरव ने हँसते हुए कहा, अपनी बैसाखियों पर संतुलन बनाए रखने की कोशिश करते हुए।
अरुण वहीं खड़ा रह गया, चुपचाप इस दृश्य को देखता हुआ।
उसने अपने बेटे को इतनी मुस्कान के साथ बहुत दिनों बाद देखा था।
“ठीक है, मेरे छोटे मददगार,” ललिता ने कहा, “बस थोड़ा सा और।”
तभी आरव ने दरवाज़े पर खड़े अपने पिता को देखा। उसकी आँखों में एक साथ आश्चर्य और डर झलक उठा।
“पापा, आप जल्दी आ गए!”
ललिता हड़बड़ा गई, कपड़ा नीचे गिरा, एप्रन से हाथ पोंछते हुए बोली,
“नमस्ते, मेहता साहब… मुझे नहीं पता था कि आप आ चुके हैं। मैं बस सफ़ाई पूरी कर रही थी।”
अरुण अभी भी दृश्य को समझने की कोशिश कर रहा था। उसने बेटे की ओर देखा, जो अब भी कपड़ा थामे था, फिर ललिता की ओर, जो सिर झुकाए खड़ी थी।
“आरव, क्या कर रहे हो?”
“पापा, मैं ललिता दीदी की मदद कर रहा हूँ। देखो ना, आज मैं पाँच मिनट तक अकेले खड़ा रह पाया!”
“पाँच मिनट?” अरुण ने आश्चर्य से दोहराया। “कैसे?”
“ललिता दीदी रोज़ मेरे साथ अभ्यास करती हैं। वो कहती हैं, अगर मैं मेहनत करूँ, तो मैं भी दौड़ पाऊँगा!”
कमरे में गहरी चुप्पी छा गई।
अरुण के भीतर कुछ टूट-सा गया — गुस्सा, कृतज्ञता, शर्म, सब एक साथ।
“अभ्यास?” उसने पूछा।
ललिता ने सिर उठाया, डर से काँपती आवाज़ में बोली,
“जी साहब… मैं बस खेल-खेल में करती थी। कुछ गलत नहीं किया…”
“पापा, दीदी तो मेरी सबसे अच्छी दोस्त हैं,” आरव बोला, पिता और ललिता के बीच आकर।
“वो कभी हार नहीं मानती, जब मैं रोता हूँ तो मुझे हिम्मत देती हैं।”
अरुण की आँखें भर आईं।
उसे याद नहीं था कि आख़िरी बार उसने बेटे के साथ पाँच मिनट भी बात कब की थी।
“आरव, अपने कमरे में जाओ, मुझे ललिता से बात करनी है।”
“लेकिन पापा…”
“अब, आरव।”
आरव ने ललिता की ओर देखा। उसने मुस्कराते हुए इशारा किया, “सब ठीक है।”
लड़का सीढ़ियाँ चढ़ गया, लेकिन जाते-जाते पीछे मुड़ा और बोला,
“ललिता दीदी दुनिया की सबसे अच्छी इंसान हैं!”
अब लिविंग रूम में सिर्फ़ अरुण और ललिता रह गए।
“कब से ऐसा चल रहा है?” उसने पूछा।
“लगभग छह महीने से, साहब। लेकिन मैं ये सब अपने ब्रेक में करती हूँ।”
“इसके लिए तुम्हें कोई अतिरिक्त वेतन नहीं मिलता।”
“जी नहीं, साहब। मुझे तो अच्छा लगता है आरव के साथ वक्त बिताना।”
“वो खास बच्चा है,” ललिता बोली, “बहुत दयालु है। जब मैं थक जाती हूँ, तो पूछता है ‘दीदी, आप ठीक हैं?’।”
अरुण को पहली बार एहसास हुआ कि उसका बेटा कितना भावुक और जीवंत है — बस किसी को उसकी मुस्कान देखने का वक्त चाहिए था।
रात को जब अरुण ने पत्नी काव्या से इस बारे में बात की, तो सच्चाइयाँ खुलने लगीं।
काव्या बोली,
“अरुण, तुम हमेशा काम में रहते हो। जब घर पर होते भी हो, तो बस दवाइयाँ और रिपोर्ट्स की बात करते हो। कभी पूछा कि आरव आज हँसा या नहीं?”
अरुण ने कोई जवाब नहीं दिया।
वह चुप रहा, बस भीतर guilt भर गया।
“ललिता उसे मुस्कराना सिखाती है,” काव्या बोली। “और यही उसे चाहिए।”
उस रात अरुण ने ठान लिया — अब बदलाव लाना होगा।
उसने अगली सुबह की सारी मीटिंग्स कैंसिल कर दीं।
सुबह 6:30 पर वह उठा, पहली बार हफ्तों में समय पर, और किचन में गया।
“सुप्रभात, ललिता,” उसने कहा।
“सुप्रभात, साहब। आज जल्दी उठ गए।”
“आरव कहाँ है?”
“सो रहा है, साहब। हम आठ बजे एक्सरसाइज़ करते हैं।”
“क्या मैं नाश्ता बनाने में मदद कर सकता हूँ?”
ललिता मुस्कराई, “साहब, आरव को सोमवार को पैनकेक पसंद हैं।”
“पैनकेक? मुझे तो पता ही नहीं था।”
ललिता हँसी, “वो कहता है, इससे उसे एक्सरसाइज़ के लिए एनर्जी मिलती है।”
आठ बजे जब आरव नीचे आया और अपने पिता को वहाँ देखा, तो उसकी आँखें चमक उठीं।
“पापा! आज ऑफिस नहीं गए?”
“नहीं बेटा, आज मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।”
फिर उन्होंने मिलकर बगीचे में एक्सरसाइज़ शुरू की।
आरव ने बिना बैसाखियों के तीस सेकंड तक खड़े रहना सीख लिया।
अरुण ने बेटे को बाँहों में भर लिया, आँखों में आँसू लिए —
“मैं तुम पर बहुत गर्व करता हूँ, चैंपियन।”
दिन बीतते गए।
अरुण अब रोज़ सुबह घर पर रहने लगा।
आरव के कदम स्थिर होने लगे, और उसकी मुस्कान लौट आई।
ललिता के प्रति अरुण का सम्मान और बढ़ता गया।
एक दिन उसने कहा,
“ललिता, मैं चाहता हूँ कि तुम आरव की आधिकारिक थेरेपी असिस्टेंट बनो।
मैं तुम्हारी पढ़ाई का खर्च उठाऊँगा।”
ललिता की आँखों से आँसू बह निकले।
“साहब, सच में?”
“हाँ। तुमने मेरे बेटे को उम्मीद दी है। अब मेरी बारी है तुम्हें उम्मीद देने की।”
कुछ महीनों बाद, आरव बिना सहारे चलने लगा।
काव्या, अरुण और ललिता की आँखों में खुशी और कृतज्ञता थी।
एक सुबह, जब आरव बगीचे में दौड़ा और बोला,
“देखो, पापा, मैं चल पा रहा हूँ!”,
तो अरुण के आँसू खुद-ब-खुद बह निकले।
उसने बेटे को गले लगाया और कहा,
“मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सफलता यही है।”
“ललिता बहुत ही असाधारण घरेलू सहायक है,” अरुण मेहता ने कहा।
“क्यों पूछ रहे हो ये, एनरिक?” उसने फोन पर जवाब दिया।
एनरिक गुप्ता ने कहा, “क्योंकि सोफिया ने बताया कि वह बच्चों, खासकर विशेष ज़रूरत वाले बच्चों के साथ बहुत अच्छी है। संयोग से, मेरा पोता सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित है और हम किसी योग्य व्यक्ति की तलाश में हैं जो उसकी देखभाल कर सके। मैं उसे एक प्रस्ताव देना चाहता हूँ।”
अरुण के पेट में एक अजीब-सी खालीपन महसूस हुई।
“कैसा प्रस्ताव?” उसने पूछा।
“तुम जितना देते हो, उसका दुगुना। साथ ही कई सुविधाएँ — कार, मेडिकल इंश्योरेंस, उसके परिवार के लिए भी स्वास्थ्य बीमा। क्या कहते हो, एनरिक?”
“ललिता बिक्री के लिए नहीं है।” अरुण ने ठंडे स्वर में कहा।
“अरुण, व्यावहारिक बनो। हर किसी की एक कीमत होती है। और मेरी जानकारी में, वह तुम्हारे यहाँ बस एक घरेलू नौकरानी है। मेरे यहाँ वह ‘थेरेपी असिस्टेंट’ के रूप में काम करेगी, आधिकारिक रूप से।”
“वह पहले से ही हमारी थेरेपी साथी है,” अरुण ने दृढ़ स्वर में कहा।
“अच्छा, सोफिया ने ये तो नहीं बताया। खैर, फिर भी मेरा प्रस्ताव कायम है। क्या तुम उसका नंबर भेज सकते हो?”
“नहीं, एनरिक। जवाब ‘नहीं’ है। ललिता हमारे परिवार का हिस्सा है।”
“अगर कभी राय बदलो, तो फोन कर देना,” कहकर एनरिक ने कॉल काट दी।
अरुण गहराई से सोच में पड़ गया। उसे पता था कि एनरिक आसानी से हार मानने वाला आदमी नहीं है — और यह भी जानता था कि ललिता जैसी स्थिति में किसी के लिए वह प्रस्ताव अत्यंत आकर्षक था।
उसने उस कॉल का ज़िक्र किसी से नहीं किया, लेकिन अगले कुछ दिनों तक सतर्क नज़र रखी।
तीन दिन बाद, उसकी आशंका सच साबित हुई —
ललिता ने कहा, “साहब, मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।”
“कहो, ललिता।”
“मुझे एक नौकरी का प्रस्ताव मिला है।”
अरुण का दिल ज़ोर से धड़कने लगा।
“कैसा प्रस्ताव?”
“गुप्ता परिवार से… उन्होंने मुझे अपने पोते की थेरेपी असिस्टेंट के रूप में काम करने को कहा है। उन्होंने, उन्होंने बहुत ज़्यादा पैसे की पेशकश की है।”
“क्या तुम स्वीकार करना चाहती हो?”
ललिता कुछ देर चुप रही।
“साहब, मैं नहीं जानती क्या करूँ। ये पैसा मेरे परिवार की ज़िंदगी बदल सकता है। माँ को रात की नौकरी छोड़नी नहीं पड़ेगी, भाई अपने पढ़ाई पर ध्यान दे पाएगा… लेकिन…” उसकी आवाज़ टूट गई, “मैं आरव को कैसे छोड़ दूँ? वो मेरे लिए बहुत ख़ास है… और मैं जानती हूँ कि मैं भी उसके लिए उतनी ही ज़रूरी हूँ।”
अरुण कुछ क्षण सोचता रहा, फिर बोला,
“ललिता, मैं तुम्हारे निर्णय पर प्रभाव नहीं डालूँगा, लेकिन कुछ सवाल पूछ सकता हूँ?”
“ज़रूर, साहब।”
“क्या तुम यहाँ काम करके खुश हो?”
“बहुत खुश हूँ।”
“क्या तुम्हें लगता है कि यहाँ आगे बढ़ने के मौके हैं, जैसे कि फिजियोथेरेपी कोर्स जो मैं फंड कर रहा हूँ?”
“हाँ, बिल्कुल।”
“और आरव… अगर तुम चली जाओ तो वह कैसा महसूस करेगा?”
ललिता ने गहरी साँस ली।
“वह टूट जाएगा, साहब। कल ही हम बात कर रहे थे कि जब वह बिना बैसाखियों के दौड़ सकेगा तो हम साथ में पार्क जाएंगे…”
अरुण ने शांत स्वर में कहा, “तो तुम्हारा असली संदेह क्या है?”
“पैसा, साहब… मेरे परिवार को उसकी बहुत ज़रूरत है।”
अरुण ने सिर हिलाया, “समझ सकता हूँ। कितना ऑफर किया उन्होंने?”
ललिता ने रकम बताई — सुनकर अरुण की भौंहें उठ गईं।
“यह तो काफी बड़ी रकम है।”
“जी…”
“ललिता,” अरुण बोला, “अगर मैं एक और प्रस्ताव दूँ तो?”
“कैसा प्रस्ताव, साहब?”
“मैं वही वेतन दूँगा जो उन्होंने ऑफर किया है — और इसके साथ-साथ जो फायदे अभी हैं वो भी रहेंगे।
फिजियोथेरेपी कोर्स, हेल्थ इंश्योरेंस… और मैं तुम्हारी माँ और भाई के लिए भी बीमा जोड़ दूँगा।”
ललिता ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा,
“साहब, आप ऐसा क्यों करेंगे? आपको ज़रूरत नहीं है।”
“मुझे ज़रूरत है, ललिता। आरव को तुम्हारी ज़रूरत है। और तुम्हारे काम की कीमत सिर्फ़ पैसे में नहीं मापी जा सकती। तुमने मेरे बेटे को उम्मीद दी है… मेरे परिवार को जोड़ा है।”
ललिता की आँखों से आँसू बह निकले।
“साहब, मैं क्या कहूँ?”
“बस ये कहो कि तुम रुक जाओगी।”
“मैं रुकूँगी, साहब। बिल्कुल रुकूँगी।”
उस शाम, जब आरव ने देखा कि ललिता अपना बैग रख रही है, तो वह दौड़कर उसके पास पहुँचा।
“ललिता दीदी, क्या आप जा रही हैं?”
ललिता ने मुस्कराते हुए उसे गले लगाया,
“नहीं, मेरे छोटे योद्धा, मैं यहीं रहूँगी… हमेशा।”
आरव ने खुशी से कहा,
“बहुत अच्छा! मुझे अभी भी आपसे बहुत कुछ सीखना है — और जब मैं दौड़ पाऊँगा, तो हर दिन आपकी तरफ दौड़ूँगा!”
ललिता हँस पड़ी, “और मैं यहीं रहूँगी, तुम्हारा इंतज़ार करती हुई।”
दिन बीतते गए।
मेहता परिवार के घर का माहौल पहले से बिल्कुल अलग हो गया था।
जहाँ पहले बस खामोशी और काम का तनाव था, अब वहाँ हँसी, उम्मीद और एक नई शुरुआत थी।
हर सुबह ललिता आरव के साथ बगीचे में जाती।
उसकी आवाज़ पूरे घर में गूँजती —
“चलो आरव, सूरज को नमस्ते करो!” ☀️
आरव अपनी बैसाखियाँ पकड़कर खड़ा होता और छोटी-छोटी कोशिशें करता।
पहले कुछ सेकंड, फिर आधा मिनट… फिर एक दिन पूरा एक मिनट बिना सहारे के खड़ा हो गया।
उस पल अरुण और काव्या दोनों ने तालियाँ बजाईं।
ललिता की आँखें भर आईं, पर उसने मुस्कराकर कहा —
“देखा, मैंने कहा था ना? तुम कर सकते हो!”
आरव ने हँसते हुए जवाब दिया,
“अब तो मैं पापा से भी तेज़ दौड़ूँगा!”
अरुण ने बेटे की ओर देखा और सोचा —
कभी जो बच्चा मुस्कुराता नहीं था, अब वो जीवन से भरा हुआ था।
और यह सब एक साधारण लड़की की वजह से था, जिसकी नीयत असाधारण थी।
कुछ महीनों बाद।
एक दिन, जब अरुण को अपने पिता की वसीयत का दस्तावेज़ मिला —
वो उसमें कुछ नोटिस कर सका जो उसने पहले कभी नहीं देखा था।
पन्नों के बीच में, उसके पिता राजेश मेहता की पुरानी डायरी का एक नोट रखा था।
उस पर लिखा था —
“विरासत केवल धन नहीं होती।
विरासत वह इंसान होता है, जो किसी और के जीवन में रौशनी लाए।”
अरुण ने यह पढ़ते हुए गहरी साँस ली।
उसे अचानक ललिता की याद आई —
एक लड़की, जिसने न तो अपना नाम किसी कागज़ पर लिखवाया था, न ही किसी पुरस्कार की चाह रखी थी,
लेकिन जिसने उसकी जिंदगी की दिशा बदल दी थी।
उसने तय किया कि ये विरासत अब आगे बढ़नी चाहिए।
एक दिन, अरुण ने ललिता को अपने ऑफिस बुलाया।
वहाँ आरव और काव्या भी मौजूद थे।
“ललिता,” अरुण ने कहा, “मैंने तुम्हारे लिए कुछ तैयार किया है।”
“साहब?”
अरुण ने एक फाइल उसकी ओर बढ़ाई।
“ये तुम्हारी नई पदवी है — ‘चाइल्ड डेवलपमेंट कोऑर्डिनेटर’।
अब तुम सिर्फ आरव की नहीं, बल्कि हमारी नई चैरिटी संस्था की भी ज़िम्मेदारी संभालोगी —
‘आरव फाउंडेशन’।”
ललिता हैरान रह गई।
“साहब, मैं… मैं तो बस एक घरेलू सहायक हूँ…”
“अब नहीं,” काव्या बोली, मुस्कराते हुए।
“अब तुम हमारे परिवार का हिस्सा हो — और इस मिशन की आत्मा।”
आरव ने तालियाँ बजाईं।
“ललिता दीदी अब सुपरहीरो बन गईं!” 🦸♀️
सब हँस पड़े।
पर ललिता की आँखों से आँसू रुक नहीं रहे थे।
“साहब, आपने मुझे जो सम्मान दिया है, उसके लिए मैं क्या कहूँ…”
अरुण ने कहा,
“बस इतना कहो कि तुम तैयार हो — क्योंकि अब तुम सैकड़ों बच्चों की मुस्कान का कारण बनोगी।”
ललिता ने सिर झुकाकर कहा,
“जी साहब, मैं तैयार हूँ।”
दो साल बीत गए।
‘आरव फाउंडेशन’ अब मुंबई ही नहीं, बल्कि पूरे महाराष्ट्र में सक्रिय थी।
ललिता के नेतृत्व में, सैकड़ों विकलांग बच्चों को शिक्षा, थेरेपी और आत्मविश्वास मिल रहा था।
अरुण मेहता के जीवन में भी अब एक नई शांति थी।
वो अब सिर्फ एक बिज़नेस टायकून नहीं थे — वो एक पिता थे, एक इंसान थे जिसने देना सीखा था।
एक सुबह, जब आरव स्कूल के लिए तैयार हो रहा था,
उसने पूछा —
“पापा, आपको पता है सबसे अमीर आदमी कौन होता है?”
अरुण मुस्कराया, “कौन?”
आरव बोला,
“जो दूसरों को मुस्कुराना सिखा दे।” 😊
अरुण ने बेटे को गले लगाया।
“सही कहा, मेरे चैंपियन।”
उस पल, उसने अपने पिता की डायरी याद की —
“विरासत वह होती है जो दिलों में छोड़ दी जाती है।”
ललिता अब एक प्रेरणा बन चुकी थी।
कभी जो गरीब बस्ती की लड़की थी,
आज उसके कारण सैकड़ों बच्चे अपने पैरों पर खड़े थे।
मीडिया ने जब उससे पूछा —
“ललिता जी, आपने इतनी सफलता कैसे पाई?”
वो बस मुस्कराकर बोली —
“मैंने बस वही किया जो मेरा दिल कहता था —
किसी के सपनों को थाम लो, जब वो खुद कमजोर पड़ जाए।”
और कहीं आसमान में, शायद राजेश मेहता की आत्मा मुस्करा रही थी —
क्योंकि उनकी वसीयत, जो कभी “मौन” थी,
अब इंसानियत की सबसे ऊँची आवाज़ बन चुकी थी।