हस्ताक्षर का युद्ध
मैं बैंक की काँच वाली खिड़की के सामने खड़ी थी। टोकन मशीन से बीप की आवाज़ आती रही। लोग अपनी-अपनी पर्चियाँ देखते रहे और मेरी उँगलियाँ पसीने से भीग गईं। काउंटर की लड़की ने धीमी आवाज़ में कहा, “मेहरा जी, यह सिग्नेचर आपके स्पेसिमेन से मैच कर रहा है। 30 लाख का पर्सनल लोन आपके नाम पर।”
मेरे कानों में भनभनाहट होने लगी। मैंने कागज़ को ऐसे घूरा जैसे अक्षर ख़ुद जवाब दे देंगे। यह मेरा साइन था। पर मैंने साइन किया कब? दिल ने सीने में ठक-ठक करना तेज़ कर दिया। दिमाग़ में सिर्फ़ एक नाम चुभा: रोहन। मेरा बेटा। वही जो हमेशा कहता था, “माँ, बस थोड़ा सा सेट हो जाऊँ, फिर आपको आराम ही आराम।”
मैंने मोबाइल निकाला। तीन बार कॉल गया, चौथी बार उठाया। “माँ, अभी मीटिंग में हूँ। बाद में…” “रोहन, मेरे नाम पर 30 लाख का लोन किसने लिया?”
दूसरी तरफ़ चुप्पी। फिर हल्की सी हँसी। “माँ, पैनिक मत करो। कविता की बुटीक को एक पुश चाहिए था। हम लौटा देंगे। ईएमआई का प्लान है। आप तो बस साइन…” “मैंने साइन नहीं किया!” मेरी आवाज़ फट गई। “ओटीपी तक का मज़ाक़ नहीं होता, बेटा। सिग्नेचर फ़र्ज़ी करना अपराध है।”
पीछे से कविता की तीखी आवाज़ आई, “माँ को अपने बेटे की मदद करके ख़ुश होना चाहिए। घर तो आख़िर बेटा ही सँभालेगा।”
मेरी आँखों के सामने पिछले महीने की टपकती छत घूम गई, जब मैं सिक्का-सिक्का जोड़कर मिस्त्री बुलाने का हिसाब करती रही, और यह दोनों मेरे नाम पर सपनों की गाड़ी चला रहे थे। मैंने फ़ोन काट दिया। उँगलियाँ काँप रही थीं। मन किया कि रो दूँ, पर आँसू जैसे कहीं सूख गए थे। बस एक वाक्य मन में बजता रहा: ओटीपी कभी किसी से साझा नहीं करना चाहिए। चाहे सामने वाला अपना ही बच्चा क्यों न हो।
बैंक मैनेजर, शर्मा जी, ने मुझे केबिन में बुलाया। सलीक़े से रखी फ़ाइलें, कंप्यूटर की स्क्रीन पर मेरा नाम और बग़ल में स्पेसिमेन सिग्नेचर कार्ड। उन्होंने मीठी लेकिन ठंडी आवाज़ में पूछा, “मेहरा जी, क्या आपको इस लोन की जानकारी नहीं थी?” मैंने सिर हिलाया, “नहीं।” “आपका पैन, आपका आधार, आपकी फ़ोटो, सब मैच हो रहा है। केवाईसी अपडेट 4 महीने पहले हुआ दिख रहा है।” “मैं तो 4 महीने पहले जयपुर से बाहर ही नहीं गई,” मैंने चुपचाप कहा। “कोई क्लोन बना सकता है क्या?” “देखिए,” उन्होंने सावधानी से कहा, “ऐसे मामलों में सबसे पहले हम डिसबर्सल रोकने की कोशिश करते हैं। लेकिन…” वे रुक गए। “आप पहले यह विनती-पत्र दीजिए कि यह ट्रांज़ैक्शन अनऑथराइज़्ड है। हम होल्ड लगाने की रिक्वेस्ट डालेंगे। आप साइबर सेल में भी शिकायत दर्ज कराइए। 1930 हेल्पलाइन और नेशनल साइबर क्राइम पोर्टल, दोनों पर। और हाँ, सिबिल को भी तुरंत डिस्प्यूट भेजिए ताकि रिकॉर्ड ख़राब न हो।”
“पर मेरी एफ़डी… मेरा घर…” मेरे मुँह से ख़ुद-ब-ख़ुद निकल गया। “घबराइए नहीं। अभी पहला क़दम यही है: डिसबर्सल रुके। उसके बाद, डॉक्यूमेंट वेरिफ़िकेशन, हैंडराइटिंग एक्सपर्ट की राय भी लग सकती है। आप शांत रहिए और जो-जो आपसे माँगा जाए, वह दीजिए।”
मैं केबिन से बाहर आई। टोकन की बीप फिर सुनाई दी। दुनिया अपनी चाल से चल रही थी, और मेरे भीतर जैसे धरती खिसक गई थी।
घर लौटते हुए मैंने मोबाइल की नोटिफ़िकेशन स्क्रॉल की। दो महीने पुराने मैसेज: e-mandate registered. Thanks for updating KYC. और एक मेल: Welcome to pre-approved credit. मेरा दिल बैठता गया। यह सब कैसे गुज़र गया मेरी आँखों के सामने से? शायद उस समय मैं छत की सीलन, गैस सिलेंडर की बुकिंग और दवा की पर्चियों में उलझी रही।
घर पहुँची तो दरवाज़े के पास रखे नीम के गमले से हल्की ख़ुशबू आ रही थी। भीतर पूजा के कमरे में वही पुरानी घंटी, वही मेरे दिवंगत पति की तस्वीर। मैंने दीपक जलाया। आज मुझे मज़बूत रहना होगा, मैंने फ़ोटो से कहा। अब डरने की उम्र नहीं, खड़े होने की उम्र है।
मैंने डायरी निकाली। पहले पन्ने पर लिखा: क़दम 1: बैंक में अनऑथराइज़्ड ट्रांजैक्शन फ़ॉर्म। क़दम 2: 1930 पर कॉल, साइबर क्राइम पोर्टल। क़दम 3: सिबिल डिस्प्यूट। क़दम 4: नोडल ऑफ़िसर को मेल।
एक-एक करके काम शुरू किया। 1930 पर फ़ोन किया। उधर से शांत आवाज़ आई। मैंने पूरा क़िस्सा बताया। उन्होंने शिकायत नंबर दिया।
मैंने लैपटॉप खोला, धीमे-धीमे टाइप किया। Identity Theft. Forged Signature. Unauthorized Loan. Risk to Home. बीच-बीच में फ़ोन बजता, रिश्तेदार, पड़ोसन, और एक अनजान नंबर। अनजान नंबर ने तीसरी बार कॉल किया। मैंने उठा लिया।
“मेहरा जी?” एक पुरुष आवाज़ थी, चिकनी और रिहर्सल की हुई। “मैं आरिफ़ बोल रहा हूँ, रोहन का दोस्त। आप परेशान न हों। पैसा घुमाकर सब ठीक हो जाएगा। बस एक कंसेंट मेल भेज दीजिए बैंक को।”
मेरे अंदर कुछ ठंडा टूट कर गिरा। यह वही आदमी है क्या जिसके बारे में लोग कहते हैं? स्कीम बताता है, फिर दायित्व दूसरों पर छोड़ देता है। मैंने धीमे से कहा, “मेरे वकील से बात कीजिए।” और फ़ोन काट दिया। वकील कहाँ से लाऊँगी? यह सवाल अगली साँस में आया। पर फ़ोन पर ‘वकील’ शब्द बोलते ही मन में हिम्मत आ गई। कभी-कभी शब्द भी ढाल बन जाते हैं।
शाम को वर्मा जी आईं, मेरी पड़ोसन। चाय और दिलासा लेकर। उनकी बातें मेरे अंदर उतरती गईं। रात को नींद नहीं आई। हर आवाज़ चौंका देती। मैं उठकर बैठ गई, अपने पति की फ़ोटो के सामने। मैं अकेली नहीं हूँ, मैंने ख़ुद से कहा। मेरे साथ मेरा सच है, मेरे कागज़ हैं, मेरी मेहनत की कमाई है।
सुबह मैं फिर बैंक पहुँची, इस बार नोडल ऑफ़िसर को लिखे ईमेल का प्रिंटआउट लेकर। शर्मा जी ने मेरे कागज़ रखे। “हमने डिसबर्सल पर होल्ड रिक्वेस्ट डाल दी है और फ़्रॉड अलर्ट भी नोट कर दिया है। साइबर सेल से भी समन्वय रहेगा।”
मैंने साँस छोड़ी। पर उनके चेहरे पर वैसी ही गंभीरता बनी रही। “एक बात और, मेहरा जी,” उन्होंने कहा, “इस लोन के डॉक्यूमेंट्स में आप उधारकर्ता के साथ गारंटर भी दिखाई दे रही हैं।” मेरी उँगलियाँ ठंडी पड़ गईं। “मतलब… अगर यह रुकता नहीं…” “तब जोखिम आपके घर तक आ सकता है। इसलिए हमें आज ही यह होल्ड पक्का करना होगा। हर मिनट मायने रखता है।”
दिमाग़ में एक ही वाक्य गूँजा: हर मिनट मायने रखता है।
सुबह वर्मा जी के साथ मैं फिर बैंक पहुँची। अनऑथराइज़्ड ट्रांज़ैक्शन फ़ॉर्म की तीन प्रतियाँ भरीं, साथ में सारे दस्तावेज़ स्टेपल किए। पावती रसीद हथेली में कस ली। शर्मा जी के केबिन में बैठकर मैंने सीसीटीवी फ़ुटेज सुरक्षित रखने का अनुरोध किया।
हमने तुरंत पास के साइबर थाने का पता पूछा। वहाँ ड्यूटी ऑफ़िसर ने ध्यान से सुना। “मामला पहचान की चोरी और संभावित बैंक फ़्रॉड का है। आपने ओटीपी शेयर तो नहीं किया न?” “कभी नहीं,” मैंने तुरंत कहा। “ठीक है। फिर प्राइमरी नेग्लिजेंस का सवाल कमज़ोर रहेगा।”
मैंने पोर्टल पर हर बॉक्स भरा, आरिफ़ नाम का ज़िक्र किया। सबमिट दबाया तो स्क्रीन पर शिकायत नंबर चमका।
दोपहर को बैंक से मेल आया: Hold request received. Under process. Processing depends on T+1 cut-off. मैंने शब्द दोहराए। Cut-off. T+1. मतलब होल्ड लागू होने में सिस्टम को अगले दिन तक लग सकता है।
मैंने सिबिल पर भी ऑनलाइन डिस्प्यूट उठाया।
शाम को रोहन का मैसेज आया: माँ, बैंक को एक कंसेंट मेल कर दो। सब सुलझ जाएगा। मैंने जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर बाद कॉल आया। मैंने नहीं उठाया। अनजान नंबर फिर बजा। वही चिकनी आवाज़, आरिफ़। मैंने रिकॉर्डिंग ऑन करके कहा, “आप कौन होते हैं मेरे पैसे और मेरे नाम के बीच बोलने वाले?” उधर से हँसी आई। मैंने फ़ोन रख दिया और कॉल ब्लॉक कर दिया।
मैंने नोडल ऑफ़िसर को पूरा मेल लिखा, सबूतों के साथ, और एक लाइन मोटे अक्षरों में: कृपया सुनिश्चित करें कि किसी भी डिसबर्सल को तत्काल रोका जाए जब तक जाँच पूरी न हो।
रात 10 बजे दरवाज़े की घंटी बजी। बाहर पुलिस की जीप थी। कांस्टेबल किरण थीं। “मैडम, साइबर सेल से मैसेज आया था कि धमकी जैसे कॉल आ रहे हैं। गली में रात की पेट्रोलिंग बढ़ा दी है।” उन्होंने सलाह दी, “कल तक अगर बैंक का सिस्टम होल्ड कंफ़र्म न करे, तो सुबह-सुबह शाखा में पहुँचिए। कट-ऑफ़ से पहले पेपरवर्क धकेलना पड़ता है।”
10:45। मोबाइल पर ईमेल का नोटिफ़िकेशन: Auto-disbursal window scheduled. मैंने काँपते हुए मेल खोला: Disbursal scheduled for tomorrow at 11 AM, subject to hold status. मेरे पेट में ठंडा सा ख़ालीपन उतर गया। मतलब, अगर होल्ड रात में सिस्टम में नहीं बैठा, तो कल 11 बजे पैसा निकल सकता है। मैंने तुरंत शर्मा जी को मेल फ़ॉरवर्ड किया: URGENT. Kindly confirm hold before 10:30 AM.
दिल में बस एक वाक्य गूँजता रहा: हर मिनट मायने रखता है।
मैंने अलार्म 6:30 AM पर लगाया। सोने से पहले मैंने अपने पति की फ़ोटो के सामने कहा, “कल कट-ऑफ़ से पहले कट ही कर दूँगी इनकी चाल।” ठीक उसी वक़्त मोबाइल फिर बजा। बैंक का सिस्टम कॉल, रोबोटिक आवाज़: Dear Customer, your loan disbursal is in queue… कॉल कट गया। कमरे में सन्नाटा फैल गया, और मेरी कहानी कल सुबह 11 बजे की पतली डोर पर टंगी रह गई।
सुबह 8:30 बजे मैं और वर्मा जी फिर बैंक के गेट पर थे। शर्मा जी ने केबिन में बुलाया। “मेहरा जी, आपकी मेल नोडल ऑफ़िसर तक पहुँच गई है। हम सिस्टम में फ़्रॉड होल्ड डाल रहे हैं, पर एक मैनुअल स्टॉप इंस्ट्रक्शन भी चाहिए। आपका लिखित बयान, ताकि कट-ऑफ़ से पहले पेमेंट क़तार से निकले।”
मैंने साफ़-साफ़ लिखा: मैं, मेहरा, लोन नंबर… पर किसी भी डिसबर्सल का विरोध करती हूँ।
9:30 बजे एक एसएमएस आया: Fraud alert noted. Hold request under process. 10:03। दीवार की घड़ी। 10:18। ईमेल: Temporary hold created. Subject to final approval. 10:28। शर्मा जी के सिस्टम पर एक हरी लाइन चमकी। “प्राइमरी स्टॉप लग गया है,” उनकी आवाज़ में हल्की राहत थी।
10:56। एक और मेल: Disbursal removed from queue. Fraud hold active. मैंने फ़ोन सीने से लगा लिया। 11 बजे की उस पतली डोर ने टूटने के बजाय मुझे बाँध लिया, मेरे सच से, मेरे कागज़ से, मेरी हिम्मत से।
बैंक से निकले तो गेट के बाहर सफ़ेद कार खड़ी थी। रोहन उतर कर तेज़ी से मेरी तरफ़ आया। “माँ, आप यह क्या कर रही हो? बस एक मेल कर दो कि सब आपकी जानकारी में था। हमारी इज़्ज़त…” मैं शांत खड़ी रही। “इज़्ज़त सच से आती है, बेटा, चोरी से नहीं।” उसने धीमे मगर कड़े स्वर में कहा, “आप मेरे करियर और मेरी शादी, दोनों बर्बाद कर रही हो।” मैं एक क़दम पास आई, धीरे से बोली, “रिकॉर्डिंग ऑन है, रोहन। जो कहना है, सोच कर कहना।”
कविता भी उतरी, चेहरे पर तनी हुई शर्म और गुस्से की रेखाएँ। “आंटी, आप जानती हैं यह बुटीक़ मेरा सपना है। माँ होकर आप बेटे का साथ नहीं देंगी?” मैंने पहली बार उसकी आँखों में देखा। “माँ होकर मैं उसे सिखाऊँगी कि ग़लत तरीक़े से घर नहीं बनता। अगर सच में तुम्हें दुकान चाहिए, तो मेरी सलाह मानो: लोन क़ानूनी तरीक़े से, अपने नाम पर, अपने दस्तावेज़ से।” “हम आपको कोर्ट में देखेंगे!” वह तेज़ हो गई। मैंने धीमे से कहा, “डराओ मत। जो करना है, कागज़ पर करो। अभी रास्ता छोड़ो।”
रोहन ने पीछे से पुकारा, “माँ, आख़िरी बार बोल रहा हूँ। कंसेंट मेल कर दो!” मैंने मुड़कर देखा भी नहीं। बस हाथ उठाकर रिक्शा रोका और बैठ गई।
घर पहुँची तो आरिफ़ का फ़ोन आया। मैंने रिकॉर्डिंग सेव की, नंबर ब्लॉक किया। दोपहर में साइबर सेल का फ़ोन आया। “मैडम, बैंक ने होल्ड कंफ़र्म कर दिया है। अब दूसरा क़दम, हम केवाईसी लॉग और डिवाइस आईपी ट्रेल माँग रहे हैं।” शाम को कविता का भाई बाइक पर आया, धमकाने। मैंने शांति से उसकी भी रिकॉर्डिंग की और कांस्टेबल किरण को मैसेज कर दिया।
रात हुई। साइबर सेल से मेल आया: Preliminary Correlation Report. मैंने काँपती उँगलियों से खोला। कुछ लाइनें थीं, सीधी, ठंडी, साफ़: तीन और क्रेडिट लाइनों के सिलसिले में वही डिवाइस फ़िंगरप्रिंट और वही आईपी सबनेट दिख रहा है। लोकेशन आपके बेटा-बहू के किराए वाले पते के आसपास।
फ़ोन फिर वाइब्रेट हुआ। ड्यूटी ऑफ़िसर की कॉल। “मेहरा जी, एक बात और मिली है। यही आईपी पिछले महीने एक कंसल्टेंट के नंबर से भी लिंक हो रहा है। नाम आरिफ़।” “कल सुबह हम लिखित नोटिस के साथ आपके घर आएँगे। और हाँ, तैयार रहिए। यह केस सिर्फ़ 30 लाख का नहीं रहा।”
सुबह 9 बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई। कांस्टेबल किरण और साइबर सेल के दो अफ़सर। “मेहरा जी, लिखित नोटिस है डिवाइस और डॉक्यूमेंट प्रोडक्शन का। हम चाहेंगे कि आप साथ चलें।” बुटीक के बाहर सुनहरी बोर्ड चमक रहा था। रोहन और कविता का चेहरा थका हुआ। अफ़सर ने शांत आवाज़ में कहा, “यह औपचारिक कार्यवाही है। 24 घंटे में नीचे लिखी चीज़ें… थाने में जमा होंगे।” कविता की आँखों में आग सी आई। “यह सब मेरी इज़्ज़त ख़राब करने का प्लान है!” मैंने पहली बार बोलना चुना, धीमे पर साफ़। “इज़्ज़त सच से बनती है, बहू। सच सामने आएगा तो इज़्ज़त भी बची रहेगी। छुपाओगी तो दोनों चली जाएँगी, सच भी, इज़्ज़त भी।”
टेक्निशियन ने सीसीटीवी फ़ुटेज प्ले किया। फिर एक फ़्रेम पर सब धीमा हो गया। काँच के दरवाज़े से एक दुबला सा शख़्स अंदर आता है, मास्क नीचे खिसका हुआ। काउंटर पर झुककर कविता से बात करता है, एक छोटा सा लिफ़ाफ़ा रखता है। किरण ने पॉज़ किया। अफ़सर ने धीरे से कहा, “यही आरिफ़ हो सकता है।”
दोपहर को थाने में फ़ोरेंसिक फ़ॉर्मेलिटी हुई। शाम के वक़्त ख़बर आई, आरिफ़ पकड़ा गया। उसके बयान से कई चैट निकल आईं: प्री-अप्रूव्ड क्रेडिट, जल्दी अमीरी, कस्टमर कंसेंट मेल करवा लो… किरण ने मेरे सामने फ़ाइल बंद करते हुए कहा, “अब धाराएँ बढ़ेंगी। केस मज़बूत है, मेहरा जी।”
रात को रोहन अकेला आया। आँखें सूजी हुई, आवाज़ धीमी। “माँ, मैंने ग़लती की। आपकी फ़ाइल, आपकी डीड की कॉपी मेरे पास है।” उसने जेब से मोड़ी हुई फ़ोटोकॉपी निकाली। “कल अदालत में जो सच कहोगे, वही तुम्हारा पहला प्रायश्चित होगा,” मैंने कहा।
अगले हफ़्ते, बैंक से लिखित पुष्टि आई: फ़्रॉड होल्ड फ़ाइनल, वितरण रद्द। सिबिल ने मेरी रिपोर्ट पर स्पष्ट नोट डाला: Victim of Identity Theft.
मुझे लगा जैसे मेरे चारों ओर कवच बन गया हो: लिखित याचिका, साइबर सेल, सिबिल नोट, ओम्बड्समैन।
घर लौटकर मैंने पहली बार गहरी साँस ली। छत की टपकती लकीर दिखी तो नंबर डायल किया। “मिस्त्री जी, कल आ जाइए। छत ठीक करानी है।” इस बार पैसे मेरे हक़ पर थे, मेरे नाम पर थे, मेरे सच पर थे। पूजा के कमरे में दीपक जलाया और पति की तस्वीर से धीरे से कहा, “एक मज़बूत घर मेहनत से बनता है, शॉर्टकट से नहीं। आज हमारा नाम बच गया।”