मुंबई की आलीशान सड़कों पर, जहाँ गगनचुंबी इमारतें बादलों को छूती हैं और पैसा पानी की तरह बहता है, मोहित अग्रवाल अपने 2 लाख रुपये के अरमानी सूट में टहल रहा था। उसके इटैलियन जूते फुटपाथ पर अधिकार जताते हुए आवाज़ कर रहे थे, जबकि वह अपने सोने के मोबाइल पर 400 करोड़ के सौदे को अंतिम रूप दे रहा था। 45 साल की उम्र में, मोहित ने ऐसा वित्तीय साम्राज्य खड़ा किया था जो उसे भारत के सबसे अमीर आदमियों में गिनाता था।
उसका घमंड उसके पाटेक फिलिप घड़ी की तरह चमक रहा था। जैसे ही वह कॉर्पोरेट अधिग्रहण की डील पर चर्चा कर रहा था, उसकी नज़र अचानक एक असामान्य दृश्य पर ठहर गई। एक इमारत की सीढ़ियों पर लगभग 60 साल का एक व्यक्ति बैठा था—सफेद उलझे बाल, पुराने-घिसे कपड़े और झुर्रियों भरे हाथों में एक गत्ते का बोर्ड:
“कोई भी मदद स्वीकार है। भगवान आपका भला करे।”
मोहित रुक गया। दया से नहीं, बल्कि अजीब जिज्ञासा से। इस इलाके में भिखारियों को देखना असामान्य था। आम तौर पर सुरक्षाकर्मी इन्हें तुरंत हटा देते थे। लेकिन इस बूढ़े के चेहरे पर कुछ और था। उसकी आँखों में हार या लाचारी नहीं थी। बल्कि एक गहरी चमक, एक गरिमा, जो उसके हालात से मेल नहीं खाती थी।
“तुम यहाँ क्या कर रहे हो?” मोहित ने तिरस्कार भरे स्वर में पूछा, अपनी रेशमी टाई सीधी करते हुए।
“यह जगह तुम्हारे जैसे लोगों के लिए नहीं है।”
बूढ़े ने धीरे-धीरे ऊपर देखा। उसकी नीली आँखों में कोई शर्म या हताशा नहीं थी, बल्कि एक अजीब शांति थी। हल्की-सी मुस्कान उसके होंठों पर तैर गई।
“सुप्रभात, साहब,” उसने साफ और शिक्षित आवाज़ में कहा। “मैं यहाँ इसलिए हूँ क्योंकि ज़िंदगी मुझे यहाँ ले आई। लेकिन ज़रा बताइए—आप कितनी भाषाएँ बोलते हैं?”
मोहित भौंचक्का रह गया। यह कैसी अजीब पूछताछ थी? उसने सोचा, “ये तो पैसे माँगने चाहिए, न कि दर्शन झाड़ने।” फिर भी उसने उत्तर दिया, अहंकार से लबरेज़:
“तीन। अंग्रेज़ी, स्पैनिश और थोड़ा-बहुत फ्रेंच। मेरे बिज़नेस के लिए काफ़ी है। एक महीने में मैं इतना कमा लेता हूँ जितना तुम पूरी ज़िंदगी में नहीं देख पाओगे।”
बूढ़े ने धीरे-धीरे सिर हिलाया। उसकी आँखों में हल्की चमक आई।
“तीन भाषाएँ… कारोबार के लिए अच्छी हैं। लेकिन मैं… मैं 12 भाषाएँ बोलता हूँ।”
सन्नाटा छा गया। मोहित हक्का-बक्का रह गया, फिर ज़ोर से हँस पड़ा।
“12 भाषाएँ! तुम? यहाँ सड़क पर भीख माँगते हुए?” वह पेट पकड़कर हँसने लगा।
“अगर तुम 12 भाषाएँ बोलते हो, तो मैं इंग्लैंड का राजा हूँ!”
बूढ़ा शांत रहा। उसकी मुस्कान में करुणा थी, उपहास नहीं।
“हँसी आत्मा के लिए अच्छी है,” उसने कहा। “पर मुझे आपको साबित करने दीजिए।”
फिर वह खड़ा हुआ। धीरे-धीरे, लेकिन गरिमा से। और उसने बोलना शुरू किया—
पहले अंग्रेज़ी में, फिर स्पैनिश, फिर फ़्रेंच… हर शब्द ऐसे जैसे कोई मूल वक्ता बोल रहा हो।
फिर जर्मन, इटैलियन, रूसी, अरबी, जापानी…
मोहित की हँसी धीरे-धीरे गायब हो गई। उसका चेहरा अविश्वास से भरा था।
फिर बूढ़े ने मंदारिन चीनी, हिंदी, हिब्रू और अंत में ग्रीक में बोलकर अपनी गिनती पूरी की।
12 भाषाएँ। सबकी धारा प्रवाह पकड़।
मोहित की टाँगें काँप गईं। उसे दीवार का सहारा लेना पड़ा।
“तुम… तुम कौन हो?” वह बमुश्किल बोल पाया।
बूढ़ा फिर से बैठ गया।
“मेरा नाम प्रोफ़ेसर दयाराम वर्मा है। मैं जेएनयू में तुलनात्मक भाषाशास्त्र का प्रोफ़ेसर था। ऑक्सफ़ोर्ड, सोरबोन और टोक्यो यूनिवर्सिटी में भी पढ़ाया। 17 किताबें लिखीं। लेकिन फिर ज़िंदगी ने सब छीन लिया। अल्ज़ाइमर ने मेरी यादें खो दीं, और मैं सड़कों पर आ गया।”
मोहित स्तब्ध रह गया। वह आदमी, जिसे वह “बेकार भिखारी” समझ रहा था, वास्तव में दुनिया का एक महान विद्वान था।
आगे के घंटों में प्रोफ़ेसर ने अपनी कहानी सुनाई—प्यार खोना, करियर टूटना, यादें धुँधली होना, और अंततः सड़कों पर आना। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने हर दर्द में इंसानियत, हर नुक़सान में ज्ञान और हर भाषा में जीवन की गहरी सच्चाई देखी।
मोहित की आँखों से पहली बार आँसू बहे। उसे एहसास हुआ कि करोड़ों कमाने के बावजूद वह असली “ग़रीब” है—क्योंकि उसने कभी खुशी, इंसानियत और जुड़ाव को महसूस ही नहीं किया।
प्रोफ़ेसर ने कहा—
“बेटा, ज़िंदगी जीने के लिए सिर्फ़ कमाई नहीं चाहिए, समझ चाहिए। एक-एक शब्द से मैंने भाषाएँ सीखी थीं। तुम भी एक-एक रिश्ते, एक-एक सच्ची बातचीत से ज़िंदगी जीना सीख सकते हो।”
उस दिन मोहित ने पहली बार अपने मोबाइल को जेब में रखा और इंसान बनकर सुना।
उसकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल चुकी थी।