दोपहर की ढलती धूप में, हाईवे किनारे बने एक छोटे से चाय के ढाबे में, तीन साल की एक नन्ही बच्ची ने अपनी छोटी हथेली बंद की — अंगूठा अंदर, उंगलियाँ उसके ऊपर कसकर मुड़ी हुईं। यह मौन SOS संकेत था — मदद की एक चुप पुकार।
पास की मेज़ पर बैठा भारतीय सेना का सार्जेंट अर्जुन राठौड़ उस इशारे पर ठिठक गया। उसकी आँखों में एक क्षण के लिए चिंता की लहर उठी, पर चेहरे पर उसने सहज मुस्कान रखी और बच्ची की ओर बढ़कर बोला —
“बिटिया, टॉफ़ी खाओगी?”
इतने में वह आदमी — जो खुद को बच्ची का पिता बता रहा था — झटके से उठा और ज़ोर का थप्पड़ उसके गाल पर मारा।
“उसे एलर्जी है!” उसने कड़क आवाज़ में कहा।
अर्जुन ने चुपचाप जेब से फ़ोन निकाला और नज़दीकी पुलिस थाने में खबर दी।
कुछ ही मिनटों में दो जीपें ढाबे के बाहर आकर रुकीं। इंस्पेक्टर राजेश मेहरा खुद पहुँचे।
वह आदमी, जिसका चेहरा शांत और आत्मविश्वासी था, तुरंत अपना बैग खोला और फ़ाइल निकाली — जन्म प्रमाणपत्र, अभिरक्षा के कागज़, ड्राइविंग लाइसेंस — सब सही।
नाम था राकेश मल्होत्रा, और बच्ची का नाम — अनिका मल्होत्रा।
ढाबे का तनाव कुछ ढीला पड़ा। कुछ लोग फिर अपने समोसे और चाय में लग गए।
इंस्पेक्टर मेहरा ने काग़ज़ देखे और कहा — “कानूनी तौर पर हमें सबूत चाहिए। बिना सबूत गिरफ्तारी नहीं हो सकती।”
राकेश के चेहरे पर संतोष की हल्की मुस्कान आई।
तभी अनिका ने धीरे से इंस्पेक्टर की वर्दी पकड़ ली।
उसके होंठ काँप रहे थे, आँखों में डर था। उसने धीमी आवाज़ में चार शब्द बोले —
“वो मेरे पापा नहीं।”
ढाबे में सन्नाटा छा गया। अर्जुन के भीतर कुछ टूटने जैसा हुआ।
इंस्पेक्टर मेहरा ने गहरी साँस ली और कहा,
“मिस्टर मल्होत्रा, आपको स्टेशन चलना होगा — कुछ औपचारिक सवाल-जवाब के लिए।”
राकेश का जबड़ा कस गया, पर उसने हामी भर दी।
अर्जुन भी गवाह के तौर पर साथ जाने को तैयार हुआ।
अनिका ने ज़ोर से इंस्पेक्टर का हाथ पकड़ा और उस आदमी से दूर रहने की कोशिश की।
थाने में कागज़ों की जाँच हुई — सब असली लग रहे थे। सील, हस्ताक्षर, यहाँ तक कि माइक्रोप्रिंट तक सही।
राकेश ने दावा किया कि वह एकल पिता है, और बाहरी लोग उसके निजी जीवन में दखल दे रहे हैं। उसकी बातें रटी हुई और आत्मविश्वास से भरी थीं।
बाल कल्याण अधिकारी मीरा शर्मा को बुलाया गया। उन्होंने अनिका को कुछ रंगीन पेंसिलें और कागज़ दिए।
जब बड़े लोग बाहर चर्चा कर रहे थे, अनिका चुपचाप चित्र बना रही थी —
एक घर, जिसकी खिड़कियों पर सलाखें थीं; आँगन में खड़ी एक काली कार; और कोने में खुद की एक छोटी सी आकृति — अकेली और उदास।
मीरा ने चित्र देखा और सन्न रह गईं।
वह घर, वह कार — ये बिल्कुल गुरुग्राम में चल रही एक संदिग्ध संपत्ति के विवरण से मेल खाते थे, जिस पर पुलिस की निगरानी थी।
इंस्पेक्टर मेहरा और अर्जुन ने तुरंत राकेश से पूछताछ शुरू की।
अब उसकी शांति टूटने लगी थी। आवाज़ में घबराहट थी, जवाब उलझने लगे थे।
अर्जुन ने गौर किया — उसका चाल-ढाल फौजी-सी थी, मगर सम्मानजनक सेवा वाली नहीं — जैसे अनुशासन अपराध से जन्मा हो।
मेहरा दुविधा में थे — बिना ठोस सबूत छोड़ा तो बच्ची खतरे में, और रोका तो क़ानूनी संकट।
आख़िरकार उन्होंने चाइल्ड प्रोटेक्शन सर्विसेज़ को बुलाकर अनिका को तत्काल सुरक्षा में ले लिया।
जब अनिका को ले जाया जा रहा था, उसने अर्जुन की ओर देखा।
“आपने मुझ पर यक़ीन किया,” उसने धीरे से कहा।
अर्जुन की आँखों में नमी थी।
एक सैनिक, जिसने गोलियों का सामना किया था, अब एक बच्चे की सच्चाई से घायल था।
तीन दिन बाद प्रयोगशाला की रिपोर्ट आई — सारे दस्तावेज़ नकली थे।
उपकरण ऐसे थे जो आम लोगों के पास नहीं होते — केवल कुछ सरकारी ठिकानों में मिलते हैं।
जाँच में खुलासा हुआ — राकेश मल्होत्रा नाम झूठा था। असली नाम था रवि खन्ना, जो उत्तर भारत के कई राज्यों में फैले एक बाल तस्करी नेटवर्क से जुड़ा था।
सुबह-सुबह गुरुग्राम के उस घर पर छापा पड़ा।
अंदर मिले नकली कागज़, फोटो, और एक गुप्त कमरे में — पाँच साल का एक और बच्चा, डरा हुआ लेकिन ज़िंदा।
रवि खन्ना की गिरफ़्तारी ने पुलिस विभाग को हिला दिया।
इंस्पेक्टर मेहरा ने अर्जुन से कहा,
“ज़्यादातर लोग अनदेखा कर देते। तुमने नहीं किया।”
अनिका अब एक सुरक्षित बालगृह में थी। अर्जुन कभी-कभी उससे मिलने जाता।
वह दौड़कर उसकी गोद में आती, मुस्कान के साथ — अब सुरक्षित थी, मगर उसके ज़ख़्म अभी भरे नहीं थे।
और अर्जुन के मन में हमेशा गूँजती रही वह फुसफुसाहट —
“वो मेरे पापा नहीं।”
क्योंकि कभी-कभी, सबसे छोटी आवाज़ें ही सबसे बड़ा सच कहती हैं।