शाम के पाँच बजे थे. लखनऊ की ठंडी हवा में रसोई की खिड़की से आती हल्की रोशनी पूरे आँगन को सुनहरा बना रही थी. स्टील के बर्तनों की छनक और तवे पर छनकते घी की खुशबू से पूरा घर महक रहा था.
निधि ने आख़िरी रोटी बेलकर तवे पर डाली, फिर पलटते हुए मुस्कराई, “अम्मा जी, सबको परोस दिया है, अब बस अपनी थाली लेकर बैठ रही हूँ।”
सामने वाले कमरे में उसके ससुर, रमेश बाबू, लकड़ी की चौकी पर बैठे थे. उनके बगल में निधि की सास, उर्मिला देवी, और सबसे आगे दादी-सास, सावित्री देवी, जो घर की सबसे बुज़ुर्ग और सबसे सख़्त इंसान थीं.
निधि जब सबको परोसकर अपनी थाली लेकर पास की कुर्सी पर बैठी, तो अचानक सावित्री देवी की आवाज़ बिजली की तरह गूँज उठी —
“अरे बहू! ये क्या कर दिया तूने? ससुर जी के सामने कुर्सी पर बैठने की हिम्मत? शर्म नहीं आती आजकल की लड़कियों को!”
पूरा माहौल सन्न हो गया. निधि के हाथ की थाली काँप गई. उसकी आँखें झुक गईं. उसका चेहरा एकदम सफेद पड़ गया. उसने धीरे से कहा, “दादी माँ, नीचे बैठने में थोड़ी तकलीफ़ होती है, इसलिए…”
लेकिन बात अधूरी ही रह गई.
सावित्री देवी ने बीच में काटते हुए कहा, “तकलीफ़? हमारे ज़माने में बहुएँ नौ महीने क्या, नौ साल भी गर्भ में बच्चा लेकर काम करती थीं. तू अकेली क्या रानी विक्टोरिया है?”
निधि के होंठ कांप गए. वह कुछ कहना चाहती थी, मगर बोली नहीं. तभी उसकी सास उर्मिला देवी उठीं. उनकी आवाज़ धीमी लेकिन ठोस थी —
“अम्मा, आप ज़रा बैठ जाइए. बात सुनिए.”
“क्या सुनना है उर्मिला? घर की बहू अब बड़ों के सामने ऊँचे पर बैठेगी, ये भी सुन लूं?” सावित्री देवी ने पलटकर कहा.
उर्मिला देवी ने गहरी सांस ली. “अम्मा, संस्कार तब तक अच्छे लगते हैं जब तक वो इंसान को तकलीफ़ न दें. निधि सातवें महीने में है. डॉक्टर ने कहा है ज़्यादा देर ज़मीन पर बैठने से उसकी कमर में दर्द बढ़ जाएगा. उसने कोई बुरा नहीं किया.”
“बहू को मर्यादा सीखनी चाहिए, डॉक्टर की किताबें नहीं,” सावित्री देवी बोलीं.
“मर्यादा आँखों में होनी चाहिए अम्मा, कुर्सी या ज़मीन में नहीं,” उर्मिला का स्वर अब थोड़ा भारी था.
रमेश बाबू अब तक चुप थे. उन्होंने पानी का गिलास नीचे रखते हुए कहा, “अम्मा, निधि ने कोई गलत बात नहीं की. वह हमारे ही घर की बेटी जैसी है.”
सावित्री देवी की आँखें चौड़ी हो गईं. “बेटी जैसी? बेटियाँ तो बाप के बराबर नहीं बैठतीं, और ये तो बहू है!”
उर्मिला ने एक गहरी साँस ली, फिर बोलीं, “अम्मा, जब मैं नई-नई इस घर में आई थी, तब याद है? आपने मुझे भी यही कहा था — ‘ससुर के सामने आँख उठाकर मत देखना, आवाज़ धीमी रखना।’ तब मुझे लगा था कि यही नियम है, यही इज़्ज़त है. लेकिन सच कहूँ, उस ‘इज़्ज़त’ ने मुझे कई बार तोड़ दिया था.”
सावित्री देवी चौंकीं. “क्या मतलब?”
“मतलब ये कि जब मैं बीमार थी, तब भी आपने कहा था ‘पहले सबको खाना दो, फिर खुद खाना.’ जब मेरी पीठ पर फोड़े हुए थे, तब भी आपने कहा ‘पल्लू सिर पर रहना चाहिए.’ और मैं सोचती रही, मेरी तकलीफ़ से ज़्यादा ज़रूरी क्या सिर्फ़ दिखावे की मर्यादा है?”
उनकी आँखें अब भीग चुकी थीं. “अम्मा, आपने जो किया, वो आपके वक्त के हिसाब से सही था. पर वक्त बदल गया है. अब मैं नहीं चाहती कि मेरी बहू वही सहन करे जो मैंने किया.”
निधि की आँखों में अब आँसू छलक आए. लेकिन इस बार वो डर के नहीं, कृतज्ञता के थे.
“माँ,” उसने धीरे से कहा, “मैं सच में नहीं चाहती थी कि किसी को बुरा लगे. पर नीचे बैठने में दर्द बहुत होता है.”
“मुझे पता है,” उर्मिला ने उसके हाथ पर हाथ रखकर कहा, “और इस बार तेरी तकलीफ़ पर कोई चुप नहीं बैठेगा.”
सावित्री देवी कुछ पल तक सबको देखती रहीं. कमरे में सन्नाटा था, बस घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी.
“उर्मिला,” उन्होंने आखिरकार कहा, “तू अब बूढ़ी हो गई, तेरी जुबान भी तेज़ हो गई.”
उर्मिला मुस्कराईं, “जुबान तेज़ नहीं अम्मा, हक़ की बात कर रही हूँ. औरत को हमेशा नीचे बैठाकर सम्मान नहीं मिलता. कई बार उसे ऊपर बैठाकर भी बराबरी दी जा सकती है.”
रमेश बाबू हँस पड़े, “सही कहा उर्मिला ने. अब देखिए अम्मा, हमारे ज़माने में रेडियो पर गाने आते थे, अब मोबाइल पर आते हैं. वक्त के साथ सब बदल गया. तो बहू की जगह क्यों नहीं?”
सावित्री देवी कुछ देर सोचती रहीं. फिर धीरे से बोलीं, “ठीक है, अगर निधि को तकलीफ़ होती है तो वह कुर्सी पर बैठे. पर बाकी सब मर्यादा बनी रहे.”
उर्मिला ने सिर झुका कर कहा, “बस इतना ही काफी है अम्मा.”
निधि की आँखें चमक उठीं. उसने मुस्कराते हुए कहा, “धन्यवाद दादी माँ.”
सावित्री देवी ने उसकी ओर देखा, और पहली बार उनके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आई. “बहू, तू थोड़ा बोल्ड है, पर दिल की सीधी है. शायद अब यही वक्त का रंग है.”
रात को जब सब खाना खाकर उठे, तो उर्मिला और निधि बरामदे में बैठी थीं. सामने अमरूद का पेड़ हवा में झूल रहा था.
“माँ,” निधि बोली, “आज आपने जो किया, उससे मुझे लगा कि आप सिर्फ़ सास नहीं, मेरी माँ हैं.”
“माँ तो वही होती है बेटी, जो अपनी बेटी को गलत नियमों से बचा ले,” उर्मिला ने कहा, “और तू याद रख, कल जब तेरी बहू आएगी, तो उसके लिए भी तू कुछ नियम बदलेगी. क्योंकि यही बदलाव एक दिन परंपरा बन जाता है.”
दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कराईं.
अंदर कमरे में सावित्री देवी अकेली बैठी थीं. उनकी आँखों में पुराने दिनों की परछाइयाँ तैर रही थीं. उन्होंने धीरे से कहा, “शायद उर्मिला सही कहती है. बहू को इज़्ज़त देने का तरीका अब बदलना चाहिए.”
उन्होंने उठकर आँगन की ओर देखा — निधि कुर्सी पर बैठी थी, और रमेश बाबू उसके सामने अख़बार पढ़ रहे थे. उनके चेहरों पर कोई झिझक नहीं थी, बस अपनापन था.
सावित्री देवी ने खिड़की से झाँका और मुस्कराईं, “अब घर में नई हवा चल रही है.