क्या होता है जब इंसानियत मजहब, मुल्क और हैसियत की सारी सरहदों को लांघ जाती है?
क्या होता है जब एक अनजान परदेसी मेहमान की तकलीफ एक गरीब के दिल में अपनी खुद की तकलीफ बनकर चुभने लगती है? और क्या हमारे देश की मिट्टी में आज भी ‘अतिथि देवो भवः’ की वह पुरानी पाक रवायत जिंदा है?
यह कहानी एक ऐसे ही साधारण से ऑटो-रिक्शा वाले की है जिसके लिए उसकी दिन भर की कमाई से ज्यादा कीमती किसी की आंखों में कृतज्ञता के आंसू थे, और एक ऐसे विदेशी जोड़े की है जो भारत की खूबसूरती देखने आए थे, लेकिन उन्हें यहाँ की खूबसूरती से पहले यहाँ की इंसानियत की एक ऐसी अविश्वसनीय मिसाल देखने को मिली जिसे वे जिंदगी भर नहीं भुला पाएंगे।
जब उस तूफानी रात में एक गर्भवती विदेशी महिला दर्द से तड़प रही थी और महंगी गाड़ियां उसे नजरअंदाज करके गुजर रही थीं, तब उस गरीब ऑटो वाले ने अपनी परवाह किए बिना उसे अपनी सवारी नहीं, बल्कि अपनी जिम्मेदारी समझा। और उस एक नेकी के बदले में किस्मत ने उसके लिए एक ऐसा तोहफा भेजा, एक ऐसा इनाम दिया जिसे देखकर हर कोई हैरान रह गया।
अध्याय 1: हैदराबाद की तूफानी रात
हैदराबाद, निजामों का शहर, मोतियों का शहर, और लाखों सपनों और संघर्षों का शहर। इसी शहर की घुमावदार, भीड़-भरी सड़कों पर दिन-रात एक करके एक पुराना, काला-पीला ऑटो-रिक्शा दौड़ता था। यह ऑटो-रिक्शा और इसका मालिक, आजाद, दोनों ही इस शहर की उस विशाल, गुमनाम आबादी का हिस्सा थे जो इस शहर की रफ्तार को बनाए रखने के लिए अपने पसीने और अपनी सांसों का ईंधन झोंकते रहते थे।
40 साल का आजाद, तेलंगाना के एक छोटे से गांव से अपनी आंखों में एक बेहतर भविष्य का सपना लेकर सालों पहले इस बड़े शहर में आया था। लेकिन यह शहर किसी पर इतनी आसानी से मेहरबान नहीं होता। आज उसकी दुनिया चारमीनार के पास एक तंग, सीलन-भरी बस्ती, चिलकलगुड़ा, की एक 10×10 के कमरे में सिमटी हुई थी। इस कमरे में उसके साथ उसकी पत्नी सलमा, उसकी बूढ़ी, बीमार माँ और उसकी 7 साल की बेटी जीनत रहती थी, जो आजाद की जिंदगी का केंद्र थी।
आजाद दिन-रात सुबह से लेकर देर रात तक यह पुराना, खटारा ऑटो-रिक्शा चलाता जो उसने किराए पर ले रखा था। उसकी दिन भर की कमाई का एक बड़ा हिस्सा ऑटो के मालिक और पेट्रोल में ही चला जाता। जो कुछ बचता, उससे वह अपने परिवार का पेट पालता, अपनी माँ की दवाइयां लाता और अपनी बेटी जीनत की स्कूल की फीस भरता। उसका बस एक ही सपना था कि एक दिन उसका अपना खुद का ऑटो-रिक्शा हो।
यह कहानी उस अगस्त महीने की एक उमस-भरी, चिपचिपी शाम की है। आसमान में सुबह से ही काले बादल डेरा डाले हुए थे और मौसम विभाग ने रात में भारी बारिश की चेतावनी दी थी। आजाद का दिन आज बहुत खराब गुजरा था। सुबह से उसे ज्यादा सवारियां नहीं मिली थीं और उसकी जेब में मुश्किल से 300 रुपये ही थे। वह थक चुका था और घर लौटने की सोच रहा था।
इसी कहानी का दूसरा सिरा इसी हैदराबाद शहर के एक बिल्कुल अलग, चमक-दमक वाले हिस्से में था: बंजारा हिल्स का एक आलीशान फाइव-स्टार होटल। यहाँ ठहरे हुए थे डेविड और सारा, अमेरिका के शिकागो से आया एक युवा जोड़ा। डेविड एक सफल आर्किटेक्ट था और सारा एक लेखिका। वे दोनों भारत की संस्कृति और उसके इतिहास से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। यह उनकी पहली भारत यात्रा थी और वह इसे एक ‘बेबी-मून’ की तरह मना रहे थे क्योंकि सारा 8 महीने की गर्भवती थी। उस शाम उन्होंने पुराने शहर की ऐतिहासिक गलियों में घूमने और वहाँ के मशहूर हैदराबादी खाने का लुत्फ उठाने का फैसला किया।
रात हो चुकी थी। उन्होंने चारमीनार के पास एक पुरानी, मशहूर दुकान पर लजीज बिरयानी खाई। जब वे बाहर निकले, तो रात के लगभग 10:00 बज चुके थे। उन्होंने जिस कैब को ऑनलाइन बुक किया था, उसने आखिरी समय पर आने से मना कर दिया। और ठीक उसी वक्त, जैसे किस्मत ने कोई इशारा किया हो, आसमान फट पड़ा। एक ऐसी मूसलाधार बारिश शुरू हो गई जिसे देखकर लग रहा था कि आज हैदराबाद की सड़कें दरिया बन जाएंगी। डेविड और सारा एक दुकान के छोटे से टिन-शेड के नीचे खड़े हो गए। सारा को अब थकान और बेचैनी होने लगी थी। अचानक सारा के मुंह से एक दर्द-भरी, दबी हुई चीख निकली। उसने अपना पेट पकड़ लिया। डेविड घबरा गया। “क्या हुआ सारा? आर यू ओके?” सारा ने कांपती हुई आवाज में कहा, “डेविड, द पेन… इट्स हैपनिंग। आई थिंक द बेबी इज कमिंग।”
यह सुनना था कि डेविड के पैरों तले जमीन खिसक गई। समय से पहले, यहाँ, इस अनजान शहर में, इस तूफानी रात में। उसने सड़क पर आती-जाती गाड़ियों को हाथ देना शुरू कर दिया। महंगी सेडान, छोटी हैचबैक, कई गाड़ियां उनके पास से गुजरीं, उन पर गंदे पानी के छींटे उड़ाती हुईं, लेकिन कोई भी एक अकेली, गर्भवती, विदेशी महिला की मदद के लिए नहीं रुका। डेविड अब पूरी तरह से हताश हो चुका था। उसे लग रहा था कि वह अपनी पत्नी और अपने होने वाले बच्चे को खो देगा।
ठीक उसी वक्त, आजाद, जो अपनी दिनभर की निराशा के साथ घर लौट रहा था, उसने अपनी टिमटिमाती हुई हेडलाइट की रोशनी में सड़क के किनारे एक विदेशी जोड़े को उस बेबस हालत में देखा। एक पल के लिए उसने भी वही सोचा जो बाकी सब सोच रहे थे: वो अपनी गाड़ी ना रोके। रात का समय था, सुनसान सड़क थी, और किसी विदेशी का मामला था, पुलिस का चक्कर भी हो सकता था। लेकिन फिर उसने उस महिला के चेहरे को देखा जो दर्द से दोहरी हुई जा रही थी। उसे अपनी पत्नी सलमा का चेहरा याद आ गया जब वह जीनत को जन्म देने वाली थी। उसके अंदर की इंसानियत उसके सारे डर पर हावी हो गई।
उसने अपना ऑटो-रिक्शा उस जोड़े के पास जाकर रोका। “साहब, मेम साहब, एनी प्रॉब्लम?” उसने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी और इशारों की भाषा में पूछा। डेविड को लगा जैसे कोई फरिश्ता उनके पास आ गया हो। उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा, “हॉस्पिटल! वी नीड टू गो टू अ हॉस्पिटल! माय वाइफ… बेबी!” आजाद एक पल में ही मामले की गंभीरता को समझ गया। उसने कोई सवाल नहीं पूछा, कोई मीटर की बात नहीं की। वह तुरंत अपने ऑटो से उतरा और उसने डेविड की मदद से बहुत ही सावधानी से सारा को अपने छोटे से, गीले ऑटो में बिठाया। “साहब, डोंट वरी। आई विल टेक यू टू द बेस्ट हॉस्पिटल।”
और फिर उस तूफानी रात में, वो पुराना खटारा ऑटो-रिक्शा किसी एम्बुलेंस की तरह हैदराबाद की पानी से भरी सड़कों को चीरता हुआ अपनी एक नई मंजिल की तरफ बढ़ चला। आजाद अपनी जिंदगी की सबसे तेज और सबसे महत्वपूर्ण सवारी चला रहा था। लगभग 20 मिनट की उस तनाव-भरी यात्रा के बाद, वे एक बड़े, आधुनिक अस्पताल के इमरजेंसी गेट के सामने थे। आजाद सिर्फ उन्हें छोड़कर नहीं चला गया। वह उनके साथ अंदर गया, उसने एक स्ट्रेचर लाने में मदद की, उसने रिसेप्शन पर डॉक्टर को पूरी स्थिति समझाने में डेविड की मदद की।
जब रिसेप्शनिस्ट ने एडमिशन के लिए एक मोटी रकम एडवांस में जमा करने के लिए कहा, तो आजाद ने देखा कि कैसे काउंटर वाला डेविड को डॉलर का एक्सचेंज रेट कम बताकर उसे ठगने की कोशिश कर रहा था। आजाद ने तुरंत बीच में टोक कर उसे सही रेट पर पैसे लेने के लिए मजबूर किया। सारा को तुरंत लेबर रूम में ले जाया गया। डेविड अकेला उस अनजान अस्पताल के ठंडे, वीरान कॉरिडोर में किसी बेजान मूर्ति की तरह खड़ा था। आजाद ने यह देखा। वह चाहे तो अपनी दिनभर की कमाई लेकर अपने घर जा सकता था, लेकिन उसके जमीर ने उसे जाने नहीं दिया। वह डेविड के पास गया, उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “साहब, डोंट वरी। अल्लाह इज ग्रेट। एवरीथिंग विल बी फाइन।”
उस रात आजाद अपने घर नहीं गया। उसने अपनी पत्नी को फोन करके बता दिया कि वह एक जरूरी काम में फंस गया है। वह पूरी रात उस अमीर, विदेशी अजनबी के साथ उस अस्पताल के कॉरिडोर में एक प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा रहा। वो उसके लिए गर्म चाय और बिस्किट लेकर आया। जब डेविड को दवाइयों की पर्ची दी गई, तो आजाद खुद जाकर मेडिकल स्टोर से सही दाम पर दवाइयां लेकर आया ताकि कोई उसे विदेशी समझकर लूट ना ले। डेविड ने कई बार अपनी जेब से पैसे निकालकर उसे देने की कोशिश की, लेकिन हर बार आजाद ने बहुत ही विनम्रता से मना कर दिया। “साहब, यह पैसे का नहीं, इंसानियत का काम है। आप हमारे देश में मेहमान हैं और आपकी मदद करना मेरा फर्ज है।” उस रात, उस अस्पताल के कॉरिडोर में, दो अलग-अलग दुनिया से आए, दो अलग-अलग मजहब के, दो अलग-अलग हैसियत के इंसान, एक पिता के रूप में एक-दूसरे का सहारा बने बैठे थे।
अध्याय 2: एक नेकी का इनाम
सुबह के लगभग 4:00 बजे, लेबर रूम का दरवाजा खुला। एक नर्स बाहर आई और उसके चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान थी। “मिस्टर डेविड, बधाई हो! आपके यहाँ एक स्वस्थ बेटे का जन्म हुआ है और आपकी पत्नी भी बिल्कुल ठीक हैं।” यह सुनना था कि डेविड की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। वह वहीं जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया और भगवान का शुक्रिया अदा करने लगा। आजाद की आंखों में भी खुशी के आंसू थे। उसने उठकर डेविड को गले लगा लिया।
अगले दो-तीन दिनों तक, आजाद उस परिवार के लिए एक रक्षक, एक गाइड और एक दोस्त की तरह बना रहा। वो रोज अस्पताल आता। वह यह सब बिना किसी उम्मीद के, बिना किसी लालच के, बस अपनी इंसानियत के नाते कर रहा था। जिस दिन सारा को अस्पताल से छुट्टी मिली, उस दिन डेविड और सारा ने आजाद को खास तौर पर बुलाया। सारा की गोद में एक नीले कंबल में लिपटा हुआ उनका नन्हा सा बेटा था। डेविड ने एक बार फिर एक लिफाफे में एक मोटी रकम भरकर आजाद को देने की कोशिश की, लेकिन आजाद ने फिर से हाथ जोड़कर मना कर दिया। तब सारा आगे बढ़ी, उसकी आंखों में कृतज्ञता के आंसू थे। “आजाद, हम नहीं जानते कि हम तुम्हारा यह एहसान कैसे चुकाएंगे।” फिर डेविड ने कुछ ऐसा किया जिसकी आजाद को उम्मीद नहीं थी। उसने अपनी जेब से अपना बटुआ निकाला, जिसमें उसकी बची हुई सारी फॉरेन करेंसी, यानी कि अमेरिकन डॉलर्स रखे हुए थे। वह शायद कुछ 100-200 डॉलर रहे होंगे। उसने वो सारे डॉलर्स आजाद के हाथ में रखते हुए कहा, “आजाद, यह पेमेंट नहीं है। यह एक तोहफा है। एक पिता की तरफ से दूसरे पिता को। यह मेरे बेटे की तरफ से तुम्हारी बेटी के लिए एक छोटा सा तोहफा है। प्लीज इसे मना मत करना, वरना हमारे दिल को बहुत ठेस पहुंचेगी।” जब उसने इसे ‘अपनी बेटी के लिए एक तोहफा’ कहा, तो आजाद के पास मना करने का कोई कारण नहीं बचा। उसने कांपते हुए हाथों से वह पैसे ले लिए।
अगले दिन, आजाद उन डॉलर्स को लेकर एक मनी-एक्सचेंजर की दुकान पर गया। उसे लगा था कि यह शायद 10-15,000 रुपये होंगे। लेकिन जब काउंटर वाले ने उन डॉलर्स को गिना और उन्हें भारतीय रुपयों में बदला, और आजाद को बताया कि यह रकम 1,65,000 रुपये है, तो आजाद के होश उड़ गए। उसने अपनी पूरी जिंदगी में एक साथ इतने पैसे कभी नहीं देखे थे। वह वहीं दुकान के बाहर जमीन पर बैठ गया और आसमान की तरफ देखकर अपने अल्लाह का शुक्रिया अदा करने लगा।
उसने उन पैसों को अपनी अय्याशी में नहीं उड़ाया। उसने सबसे पहला काम जो किया, वो था सीधा अपने ऑटो-रिक्शा के मालिक के पास जाना और उससे अपना सालों पुराना हिसाब चुकता करना। और फिर वह सीधा एक ऑटोमोबाइल के शोरूम में गया। उस शाम, जब आजाद अपनी बस्ती में लौटा, तो वह उस पुराने, खटारा, किराए के ऑटो में नहीं था। वो एक बिल्कुल नए, चमचमाते हुए हरे-पीले रंग के अपने खुद के ऑटो-रिक्शा में बैठा था। उसने अपनी बेटी जीनत के ऑपरेशन के लिए पूरे 3,00,000 रुपये एक बैंक अकाउंट में जमा कर दिए। उसने अपनी बूढ़ी माँ के लिए महीनों की दवाइयां खरीद लीं और उसने अपनी पत्नी सलमा को उसकी जिंदगी की पहली सोने की बालियां तोहफे में दीं।
उसकी जिंदगी, उसकी किस्मत, एक ही रात में, उसकी एक छोटी सी नेकी की वजह से हमेशा के लिए पलट गई थी। यह कहानी हमें सिखाती है कि नेकी का कोई भी काम, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों ना हो, कभी बेकार नहीं जाता। जब आप बिना किसी उम्मीद के किसी की मदद करते हैं, तो पूरी कायनात किसी ना किसी रूप में आपको उसका फल जरूर देती है, और अक्सर वह फल आपकी सोच से भी कहीं ज्यादा बड़ा और मीठा होता है।