डॉ. अरविंद मेहता अस्पताल के फिज़ियोथेरेपी रूम के काँच के पीछे से अपनी बेटी आर्या को देख रहे थे।
वह नई दिल्ली के संत आरोग्य अस्पताल की विशेष व्हीलचेयर पर बिल्कुल स्थिर बैठी थी।
ढाई साल की उस सुनहरे बालों वाली बच्ची ने अब तक एक भी कदम नहीं रखा था, और देश के सबसे बेहतरीन डॉक्टरों से हर मुलाकात का परिणाम एक जैसा ही होता — निराशा।
तभी किसी ने धीरे से उसकी सफेद कोट को खींचा।
नीचे झाँकते ही उसने देखा — करीब चार साल का एक छोटा लड़का, बिखरे भूरे बालों वाला, फटे पुराने कपड़ों में, जैसे कई दिनों से न नहाया हो।
“डॉक्टर साहब, क्या वो गोरी बच्ची आपकी बेटी है?”
लड़के ने काँच के पार बैठी आर्या की ओर इशारा करते हुए पूछा।
अरविंद चौंक गए — यह बच्चा अस्पताल में अकेला कैसे आया? वह सुरक्षा बुलाने ही वाले थे कि लड़का फिर बोला,
“मैं उसे चलाना जानता हूँ। मैं मदद कर सकता हूँ।”
“बेटा, तुम्हें यहाँ नहीं होना चाहिए। तुम्हारे माता-पिता कहाँ हैं?”
अरविंद ने संयम से पूछा।
“मेरे कोई माँ-पापा नहीं हैं, डॉक्टर साहब,”
लड़के ने मासूमियत से जवाब दिया,
“लेकिन मैं कुछ चीज़ें जानता हूँ जो आपकी बेटी की मदद कर सकती हैं। मैंने अपनी छोटी बहन की देखभाल करते हुए सीखी थीं… उससे पहले कि वो चली जाए।”
लड़के के गंभीर स्वर ने अरविंद को रोक दिया।
आर्या, जो आमतौर पर सत्रों के दौरान बिल्कुल भावशून्य रहती थी, अब उस दिशा में देख रही थी और काँच के पार अपने नन्हें हाथ बढ़ा रही थी।
“तुम्हारा नाम क्या है?”
अरविंद झुककर उसकी आँखों के स्तर पर आए।
“मेरा नाम कबीर है, डॉक्टर साहब। मैं पिछले दो महीने से अस्पताल के सामने वाली पार्क की बेंच पर सोता हूँ। हर दिन यहाँ आता हूँ और आपकी बेटी को खिड़की से देखता हूँ।”
अरविंद का दिल कस गया। इतना छोटा बच्चा, सड़क पर रहने वाला, फिर भी आर्या की चिंता में मग्न।
“कबीर, तुम बच्चों की मदद के बारे में क्या जानते हो जो चल नहीं पाते?”
“मेरी बहन भी ऐसी ही थी,” कबीर ने कहा।
“माँ ने मुझे कुछ खास व्यायाम सिखाए थे, जिनसे उसकी टाँगें थोड़ी हिलने लगी थीं… उससे पहले कि वो चली गई।”
अरविंद की आँखों में नमी आ गई।
उन्होंने सब कुछ आज़मा लिया था — अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ, महँगे इलाज — कुछ भी काम नहीं आया था।
अब क्या खोना था?
“डॉ. मेहता!”
फिज़ियोथेरेपिस्ट नेहा की आवाज़ गलियारे में गूँजी।
“आर्या का सत्र खत्म हो गया है। आज भी कोई प्रगति नहीं।”
“नेहा, मैं चाहता हूँ कि तुम कबीर से मिलो। इसके पास आर्या के लिए कुछ अलग तरह के विचार हैं।”
नेहा ने बच्चे को ऊपर से नीचे तक देखा, तिरस्कार भरे स्वर में बोली,
“डॉक्टर साहब, पूरी इज़्ज़त के साथ कहूँ — सड़क का बच्चा कोई मेडिकल ज्ञान नहीं रखता…”
“मुझे कोशिश करने दो, प्लीज़।” कबीर ने बीच में टोका।
“सिर्फ पाँच मिनट। अगर कुछ नहीं हुआ, तो मैं हमेशा के लिए चला जाऊँगा।”
अरविंद ने आर्या की ओर देखा — महीनों में पहली बार उसकी आँखों में चमक थी।
वह ताली बजा रही थी, मुस्कुरा रही थी, कबीर की ओर देखती हुई।
“ठीक है,” अरविंद ने कहा।
“लेकिन मैं हर पल नज़र रखूँगा।”
कबीर कमरे में दाखिल हुआ और धीरे से आर्या के पास गया।
बच्ची उसे उत्सुकता से देख रही थी — उसकी नीली आँखें उस तरह चमक रही थीं जैसे अरविंद ने महीनों से नहीं देखा था।
“हाय, राजकुमारी,” कबीर ने कोमल स्वर में कहा।
“क्या तुम मेरे साथ खेलना चाहोगी?”
आर्या ने कुछ अस्पष्ट शब्द बुदबुदाए और अपने छोटे हाथ उसकी ओर बढ़ा दिए।
कबीर फर्श पर बैठ गया, गुनगुनाते हुए धीरे-धीरे उसके पैरों की मालिश करने लगा।
“वो क्या कर रहा है?” नेहा ने फुसफुसाया।
“लगता है… कोई रिफ्लेक्सोलॉजी तकनीक,”
अरविंद ने आश्चर्य से कहा।
“चार साल का बच्चा यह कहाँ से सीखेगा?”
कबीर गाता रहा, बारी-बारी से पैरों और टाँगों को दबाते हुए।
सभी की आँखों के सामने चमत्कार होने लगा —
आर्या के पैरों की सामान्य कठोरता ढीली पड़ने लगी,
उसके होंठों पर मुस्कान थी, और उसके पाँव…
थोड़ा-सा हिले।
“आर्या ने कभी ऐसे प्रतिक्रिया नहीं दी,”
अरविंद ने फुसफुसाया।
“उसे संगीत पसंद है,” कबीर ने कहा बिना रुके।
“सब बच्चों को होता है। माँ कहती थी, संगीत शरीर के सोए हिस्सों को जगा देता है।”
धीरे-धीरे, कुछ असाधारण होने लगा…
कबीर की आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें एक अजीब-सी शक्ति थी — जैसे हर सुर में किसी दुआ का असर छिपा हो।
आर्या के होंठों से एक हल्की हँसी निकली, उसके पैरों की उंगलियाँ हिलने लगीं।
“डॉ. मेहता…” नेहा ने काँपते हुए कहा, “उसकी उंगलियाँ— वो हिल रही हैं!”
अरविंद आगे बढ़े, उनकी आँखों में आँसू थे।
“असंभव… यह कभी नहीं हुआ…”
कबीर ने गाना बंद नहीं किया।
वह धीरे-धीरे अपनी हथेलियों से आर्या की टाँगों पर थपथपाने लगा, बिल्कुल वैसे जैसे कोई माँ अपने बच्चे को प्यार से जगाती है।
“राजकुमारी, बस थोड़ा और… तुम कर सकती हो…”
और तभी —
आर्या ने अपनी टाँगों को उठाया।
थोड़ा, बहुत थोड़ा — पर साफ़ दिखाई देने वाला हरकत।
नेहा ने अपना मुँह ढँक लिया,
“हे भगवान…!”
अरविंद घुटनों के बल बैठ गए।
उनकी बेटी, जो जन्म से चल नहीं सकी, आज पहली बार अपने बल पर पैरों को हिला रही थी।
कबीर मुस्कुराया — एक थकी, लेकिन सच्ची मुस्कान।
“देखा, डॉक्टर साहब? मैंने कहा था न… वो चल सकती है।”
अरविंद ने बिना सोचे उस छोटे बच्चे को गले से लगा लिया।
“कबीर… तुमने आज मेरी ज़िंदगी बदल दी। बताओ, तुमने यह सब कहाँ सीखा?”
कबीर की आँखें नम हो गईं।
“मेरी माँ नर्स थी।
वो कहती थी कि इलाज सिर्फ दवा से नहीं होता, दिल से भी होता है।
जब मेरी बहन बीमार थी, तो उसने मुझे सिखाया कि प्यार और संगीत सबसे बड़ी दवा हैं।”
कमरे में कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छा गया।
सिर्फ आर्या की खिलखिलाहट और कबीर की धीमी धुन की आवाज़ गूँज रही थी।
नेहा अब झुकी और बोली,
“कबीर, तुम्हें ये अस्पताल नहीं छोड़ना चाहिए।
मैं तुम्हें यहाँ का सहायक बनवाऊँगी। तुम्हारे पास एक वरदान है।”
अरविंद ने सिर हिलाया।
“नहीं, नेहा। वरदान नहीं — एक फरिश्ता है ये।”
कबीर नीचे देखने लगा, उसकी आँखों में चमक थी पर चेहरा गंभीर।
“अगर मेरी बहन होती, तो आज वो भी चलती…
शायद ऊपरवाला चाहता था कि मैं किसी और की मदद करूँ।”
अरविंद ने उसकी कंधे पर हाथ रखा।
“अब तुम्हारा घर यही है, बेटा। आर्या की मुस्कान तुम्हारे कारण लौटी है।”
काँच के उस पार सूरज की किरणें कमरे में उतर आई थीं।
आर्या की टाँगें हल्की-हल्की हिल रही थीं,
और कबीर की धुन हवा में तैर रही थी —
एक छोटी-सी प्रार्थना की तरह।