सुबह के नौ बज रहे थे। मालती देवी पूजा के बाद तुलसी को पानी दे रही थीं, तभी दरवाज़े की घंटी बजी।
उन्होंने सोचा — “शायद दूधवाला होगा…”
पर जब दरवाज़ा खोला, तो सामने उनकी छोटी बेटी नेहा खड़ी थी — आँसू भरी आँखों के साथ।
“अरे तू…! अचानक? कुछ हुआ क्या?”
नेहा कुछ बोलती, उससे पहले ही मालती देवी ने उसे गले से लगा लिया।
“माँ… अब मुझसे नहीं होता…” बस इतना ही कहा, और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।
नेहा की शादी तीन साल पहले करण से हुई थी — जो बैंक में नौकरी करता था। शुरू के कुछ महीने बहुत अच्छे गुज़रे। सास-ससुर ने भी उसे बेटी जैसा प्यार दिया।
पर वक्त बीतते-बीतते घर का माहौल बदलने लगा।
शादी के दूसरे साल नेहा को बेटा नहीं, बेटी हुई।
उस दिन घर का सन्नाटा किसी तूफ़ान जैसा लग रहा था।
करण कुछ नहीं बोला, पर सास ने बस इतना कहा —
“चलो… भगवान की मर्ज़ी… अगली बार बेटा दे देगा।”
नेहा मुस्कुराई, पर उसके अंदर कुछ टूट गया था।
धीरे-धीरे ताने शुरू हो गए —
“बेटी का बाप हर वक़्त खर्चे में डूबा रहेगा…”
“घर की वंश बेल तो काट दी इसने…”
और सबसे ज़्यादा चुभने वाली बात — “एक काम की नहीं निकली…”
नेहा चुप रहती थी, सोचती — “समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।”
पर कुछ दिन पहले उसने सुना — उसकी सास अपनी ननद से कह रही थी,
“करण का दूसरा ब्याह करा देंगे, नहीं तो इस घर की वंश रुक जाएगी।”
वह सुनकर नेहा के पाँव के नीचे ज़मीन खिसक गई।
उस रात उसने पहली बार अपने पिता की तस्वीर के आगे रोते हुए कहा —
“पापा, आपने कहा था कि ससुराल में सब ठीक रहेगा… पर मैं हार गई…”
अब उसी टूटी हुई हालत में वो अपनी माँ के घर पहुँची थी।
मालती देवी ने बेटी का चेहरा सहलाया और बोलीं —
“नेहा… तू जानती है, तेरे पापा के जाने के बाद मैंने तुझे और तेरी बहन को कैसे पाला है?
अगर मैंने डर मान लिया होता तो आज तुम दोनों अपने पैरों पर खड़ी भी न होतीं।”
नेहा बोली — “पर माँ, सास-ससुर तो वही चाहते हैं जो समाज चाहता है — बेटा!”
मालती देवी ने दृढ़ स्वर में कहा —
“समाज को बदलने के लिए किसी को तो खड़ा होना पड़ेगा ना, बेटी।”
फिर धीरे से मुस्कुराईं —
“चल, अब देख, माँ क्या करती है…”
दोपहर को ही मालती देवी ने ऑटो लिया और नेहा के ससुराल जा पहुँचीं।
दरवाज़ा सास ने खोला — चेहरा देखकर बोलीं, “अरे… मालती जी! आप?”
“हाँ, ज़रा मिलने आई हूँ। नेहा ने कुछ बात बताई थी, सो सोचा, सीधे सुन लूँ।”
सास थोड़़ी झेंप गईं — बोलीं, “अरे वो तो बस मज़ाक था…”
मालती देवी मुस्कुराईं — “मज़ाक तो अच्छा था, लेकिन अब एक गंभीर बात सुन लीजिए…”
उन्होंने अपने पर्स से एक कागज़ निकाला और मेज़ पर रख दिया —
“यह महिला आयोग का नंबर है।
अगर किसी ने मेरी बेटी को दूसरी शादी की धमकी दी, या बेटा-बेटी में भेद किया —
तो सीधा यही फोन जाएगा।”
ससुर बीच में बोले, “अरे मालती जी, ग़लत समझ रही हैं आप…”
मालती देवी ने शांति से कहा —
“गलतफ़हमी तो तब होगी जब मैं अपनी बेटी को अकेला छोड़ दूँगी।
मैंने उसे सिखाया है, चुप रहना भी एक कला है — लेकिन अन्याय पर चुप रहना पाप है।”
घर में सन्नाटा छा गया।
नेहा बाहर खड़ी सब सुन रही थी — उसकी आँखों में गर्व था, डर नहीं।
कुछ देर बाद सास ने धीरे से कहा —
“बहू, तू बेटी जैसी है… हमने तो बस यूँ ही कहा था…”
मालती देवी ने कहा — “तो अब वही बातें अपनी ननद को भी समझाइए। बेटा-बेटी दोनों भगवान का वरदान हैं। फर्क करना बंद कीजिए, वरना दुनिया आपको पीछे छोड़ देगी।”
फिर उन्होंने मुस्कुराकर नेहा का हाथ पकड़ा,
“चल बेटी, अब तू यहीं रह, डर मत। अब तेरा घर तू संभालेगी — अपने हक़ से, अपने आत्मसम्मान से।”
सस-ससुर चुपचाप सिर झुकाए खड़े रहे।
शाम को मालती देवी लौटने लगीं तो नेहा ने कहा,
“माँ, आपने तो जैसे एक ही वार में सबका चेहरा दिखा दिया…”
मालती देवी हँसते हुए बोलीं,
“बेटी, माँ की जुबान तलवार से भी तेज़ होती है…
जब वो अपने बच्चे के लिए उठती है, तो हर दीवार गिर जाती है।”
नेहा ने माँ के पाँव छुए —
उसकी आँखों से आँसू नहीं, सम्मान झलक रहा था।
और अगले दिन से उस घर की दीवारों पर बेटी की हँसी गूंजने लगी —
क्योंकि एक माँ की जुबान ने वहाँ इंसाफ की आवाज़ भर दी थी।
सिख..
बेटा-बेटी में फर्क करने वाले घर कभी खुशहाल नहीं हो सकते।
एक माँ जब अपनी बेटी के लिए शेरनी बन जाती है, तो हर आवाज़ जो उसे दबाने की कोशिश करती है — खामोश हो जाती है।