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      My husband insulted me in front of his mother and sister — and they clapped. I walked away quietly. Five minutes later, one phone call changed everything, and the living room fell silent.

      27/08/2025

      My son uninvited me from the $21,000 Hawaiian vacation I paid for. He texted, “My wife prefers family only. You’ve already done your part by paying.” So I froze every account. They arrived with nothing. But the most sh0cking part wasn’t their panic. It was what I did with the $21,000 refund instead. When he saw my social media post from the same resort, he completely lost it…

      27/08/2025

      They laughed and whispered when I walked into my ex-husband’s funeral. His new wife sneered. My own daughters ignored me. But when the lawyer read the will and said, “To Leona Markham, my only true partner…” the entire church went de:ad silent.

      26/08/2025

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      25/08/2025

      At my granddaughter’s wedding, my name card described me as “the person covering the costs.” Everyone laughed—until I stood up and revealed a secret line from my late husband’s will. She didn’t know a thing about it.

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    Home » जायदाद के लालची बेटों के लिए पिता की वसीयत एक ऐसा झटका लेकर आई जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।
    India Story

    जायदाद के लालची बेटों के लिए पिता की वसीयत एक ऐसा झटका लेकर आई जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।

    rinnaBy rinna21/10/2025Updated:21/10/20256 Mins Read
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    सुबह के आठ बज चुके थे। रसोई से बर्तनों की आवाज़ और हॉल में टीवी पर चल रही ऊँची आवाज़ — “सास-बहू का रिश्ता कैसे निभाएँ” जैसे किसी ताने की तरह घर के हर कोने में गूंज रही थी।
    कमरे के एक कोने में बैठी शारदा देवी धीरे-धीरे ऊनी स्वेटर बुन रही थीं। उम्र सत्तर पार थी, पर चेहरे पर अब भी वही आत्मसम्मान की झलक थी जो उन्होंने अपने पति गोविंदलाल के साथ बिताए वर्षों में कमाई थी।
    तभी उनकी बड़ी बहू मंजू किचन से चिल्लाई —
    “अम्मा! ज़रा बाहर का आँगन साफ़ कर दो ना! कितनी बार कह चुकी हूँ कि सुबह की सफाई रह जाती है। हमें भी तो ऑफिस जाना होता है।”
    शारदा ने सिर उठाया —
    “बहू, मैं तो पूजा के बाद रसोई साफ करने ही जा रही थी। बाहर तो पहले नौकर ही करता था।”
    “अरे अम्मा, वो नौकर तो कब का निकाल दिया गया। फालतू खर्च कौन करे? अब तो सबको थोड़ा-थोड़ा काम बाँटना पड़ेगा।” मंजू ने झुंझलाकर कहा।
    इतना सुनते ही छोटी बहू रीमा भी बोली —
    “माँजी, आप तो घर में रहती हैं, बाहर झाड़ू लगाना क्या मुश्किल है? हम दोनों तो नौकरी पर जाते हैं।”
    शारदा बस इतना ही बोलीं —
    “ठीक है बेटा, जो कहो वही कर दूँगी।”
    उनकी आवाज़ में कोई गुस्सा नहीं था, बस एक थकावट और एक हल्की उदासी थी।
    उनके पति गोविंदलाल को गुज़रे अभी छह महीने हुए थे, और उन छह महीनों में घर की गर्माहट जैसे कहीं खो गई थी।
    घर की हवा बदल चुकी थी…
    बड़े बेटे अरविंद और छोटे बेटे नरेश अब पहले जैसे नहीं रहे थे।
    बात-बात पर पैसों का हिसाब, घर के खर्चों की फाइलें, और माँ की ज़रूरतों पर “बाद में देखेंगे” वाला रवैया — सबकुछ बदल गया था।
    उस दिन जब शारदा देवी झाड़ू लगा रही थीं, तो अरविंद अपने मोबाइल पर बात करते हुए निकला।
    “माँ, आप ये सब काम क्यों कर रही हैं? रहने दीजिए। जाकर आराम कीजिए।”
    माँ ने चौंककर बेटे को देखा —
    “आज क्या हुआ बेटा? अभी तो कल तक तो तुमने कहा था कि थोड़ा काम किया करो, शरीर जकड़ जाएगा।”
    अरविंद मुस्कुराया,
    “नहीं माँ, बस ऐसे ही कहा था। अब आपको तकलीफ़ नहीं होगी।”
    रीमा ने अंदर से कहा — “अरे भई, ये तो चमत्कार है, आज भैया को अम्मा का ख्याल कैसे आ गया!”
    अरविंद ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने बस कहा —
    “माँ, कल हमारे घर वकील मोहन लाल आ रहे हैं, पिताजी की वसीयत पढ़ने।”
    इतना सुनते ही कमरे में एक पल को सन्नाटा छा गया।
    शारदा देवी की आँखें भर आईं —
    “अरे… वसीयत? उन्होंने तो कहा था कि सब कुछ बराबर बाँट देंगे।”
    “हाँ माँ,” अरविंद बोला, “वो सब तो ठीक है, आप चिंता मत कीजिए।”

    वसीयत का दिन…

    अगले दिन सुबह-सुबह घर में गहमागहमी थी।
    मंजू और रीमा दोनों ने टेबल पर नाश्ता सजाया, पर माँ के हिस्से की थाली किसी ने नहीं रखी।
    इतने में दरवाज़े पर दस्तक हुई।
    वकील मोहनलाल भीतर आए।
    “राम-राम शारदा जी, आपके गोविंदलाल जी बहुत अच्छे इंसान थे। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।”
    उन्होंने फाइल खोली और सबको बुलाया —
    “सभी परिवार के सदस्य उपस्थित हैं?”
    अरविंद, नरेश, मंजू, रीमा — सब कुर्सियों पर बैठ गए।
    शारदा देवी एक कोने में चुपचाप बैठी थीं।
    मोहनलाल बोले,
    “तो अब वसीयत पढ़ी जाएगी।”
    गोविंदलाल की वसीयत
    > “मैं गोविंदलाल शर्मा, अपने पूरे होशो-हवास में यह घोषणा करता हूँ कि मेरी संपत्ति —
    मेरा मकान, बैंक बैलेंस, और दुकान —
    मेरी पत्नी शारदा देवी के नाम रहेगा।
    मेरे दोनों बेटे और बहुएँ जब तक उन्हें मान-सम्मान और स्नेह देंगे, तब तक वे इस घर में रह सकते हैं।
    यदि कभी मेरी पत्नी को किसी ने अपमानित किया, या उन पर कोई दबाव डाला, तो पूरी संपत्ति ‘गोविंदलाल ट्रस्ट’ में दान मानी जाएगी, जिसका उद्देश्य वृद्धाश्रम और अनाथालयों की सेवा करना होगा।
    मेरी बेटी सुनीता, जिसे मैंने बराबरी की शिक्षा दी, उसके लिए मैं 10 लाख रुपये अलग रख रहा हूँ, जो माँ की निगरानी में उसे दिए जाएँगे।
    हस्ताक्षर: गोविंदलाल शर्मा।”
    मोहनलाल ने जब पढ़ना समाप्त किया, तो कमरे में सन्नाटा छा गया।
    अरविंद का चेहरा उतर गया, नरेश ने सिर झुका लिया।
    मंजू और रीमा एक-दूसरे का चेहरा देखने लगीं।
    शारदा देवी बस चुपचाप आँसू पोंछ रही थीं।
    सच्चाई का आईना…
    वकील साहब बोले —
    “गोविंदलाल जी ने यह वसीयत डेढ़ साल पहले मेरे सामने दर्ज करवाई थी। उन्होंने कहा था — ‘मेरी शारदा कभी किसी के आगे झुके नहीं।’ अब यह घर, दुकान और बैंक बैलेंस सब आपकी माँ के नाम हैं।”
    यह सुनते ही मंजू बोली —
    शारदा ने शांत स्वर में कहा —
    “मदद? या हुक्म?”
    फिर मुस्कुराकर बोलीं —
    “कोई बात नहीं बेटा, अब सब ठीक है। भगवान ने मुझे जितना दिया, मैं उसका इस्तेमाल इंसानियत के लिए करूँगी।”
    रीमा ने झुँझलाकर कहा —
    “मतलब आप हमें कुछ नहीं देंगी?”

    शारदा बोलीं

    “नहीं बहू, सबको मिलेगा — लेकिन पहले आदर मिलेगा, फिर हिस्सा।”
    समय का पलटवार…
    उस शाम शारदा देवी ने एक घोषणा की —
    “घर के आगे वाले हिस्से को मैं ट्रस्ट के ऑफिस के लिए दूँगी।
    पीछे के दो कमरे तुम दोनों बेटों के लिए रहेंगे।
    बाकी हिस्से किराए पर दूँगी ताकि ट्रस्ट चल सके।”
    अरविंद और नरेश ने सिर झुका लिया।
    अरविंद बोला —
    “माँ, माफ़ कर दीजिए, हमने आपका दिल दुखाया।”
    शारदा ने मुस्कुराकर कहा —
    “बेटा, मैं नाराज़ नहीं हूँ। तुम दोनों भूल गए थे कि इंसान की असली पूँजी पैसा नहीं, संस्कार हैं। तुम्हारे पिताजी ने यही सिखाया था।”
    रीमा की आँखें भर आईं।
    “माँजी, हमसे गलती हो गई।”
    कुछ महीनों बाद “गोविंदलाल ट्रस्ट” शुरू हुआ।
    हर हफ़्ते शारदा देवी खुद वृद्धाश्रम जाकर बुजुर्गों से मिलतीं, उनके लिए कंबल, दवाइयाँ और भोजन पहुँचातीं।
    उनकी बेटी सुनीता हर महीने वहाँ आती और माँ के साथ सेवा करती।
    एक दिन सुनीता ने कहा —
    “माँ, बाबूजी ने जाते-जाते आपको जीवन का सबसे सुंदर तोहफ़ा दिया — आत्मसम्मान।”
    शारदा मुस्कुराईं —
    “हाँ बेटी, सच कहा। जब तक पति का साया था, मैं रानी थी,
    और जब साया चला गया, तो उन्होंने जाते-जाते मुझे फिर से जीना सिखा दिया।”
    घर की छत पर उगते सूरज की रोशनी में शारदा देवी की मुस्कान चमक उठी —
    अब वो किसी की ‘बूढ़ी माँ’ नहीं, बल्कि अपने सम्मान की ‘मालकिन’ थीं।

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