अधूरी बात
दोपहर के तीन बजे होंगे। गाँव के उस हिस्से में हवा तक सुस्त पड़ चुकी थी। पीपल के पेड़ के नीचे एक बेंच थी, जिसकी लकड़ी धूप से तप चुकी थी। पास में ही नलके से टपकते पानी की बूंदें मिट्टी पर गिरकर ‘छप-छप’ की आवाज़ कर रही थीं। आँगन में बिछी तुलसी के चौरे के पास भाभी बैठी थीं हल्की पीली सिल्क की साड़ी में, जिसके किनारे हवा में हिलते तो सूरज की किरणें उस पर खेलतीं। उनकी हथेलियाँ आटे में सनी थीं, पर मन कहीं और था।
अंदर से दादी की खाँसी की आवाज़ आई, और भाभी ने एक गहरी साँस लेकर परात में आटा गूंथना शुरू किया। उनका नाम सुधा था। उम्र होगी तीस के आसपास। चेहरे पर एक सहज मुस्कान, लेकिन आँखों में हमेशा कुछ अनकहा-सा ठहरा रहता। शायद वही अधूरी बात, जो कभी किसी ने पूछी नहीं।
घर के अंदर से आहट हुई, देवर रवि लौट आया था खेत से। उम्र में आठ साल छोटा, पर आँखों में वही सच्चाई और अपनापन जो सुधा को हमेशा अपनेपन में खींच लेता था। रवि ने घुसते ही अपनी धोती झाड़ते हुए कहा, “भाभी, आज फिर चना तोता ने सारा खा लिया। जितना भी डराया, उड़ने का नाम नहीं लिया।” भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा, “तो फिर तुम डराते भी हो या बस बातों से ही काम चलाते हो? वो भी जान गया होगा कि तुम्हारा दिल नरम है।” रवि हँस पड़ा, “दिल नरम नहीं भाभी, बस आप जैसी औरतें घर में हों तो गुस्सा टिकता नहीं।”
सुधा ने पल भर को उसकी तरफ देखा। चेहरे पर हल्की धूप पड़ी थी, जिससे उसका गाल और ज़्यादा दमक उठा। उसने झट से नजरें फेर लीं और परात में उंगलियाँ तेज़ी से चलाने लगी। बाहर नीम की शाख से एक पत्ता टूटकर उसके पाँव के पास गिरा। सुधा ने जैसे खुद से कहा, “कुछ बातें होती हैं जो कहना नहीं चाहिए, बस महसूस करना चाहिए।” रवि ने सुन तो लिया, पर कुछ बोला नहीं। बस वहाँ खड़ा-खड़ा उसे आटा गूंथते देखता रहा। उसके कानों में बैलों की घंटियों की आवाज़ गूँज रही थी, पर मन कहीं और अटका था।
शाम होते-होते पूरा घर फिर से अपने ढर्रे पर लौट आया। बड़े भैया, यानी सुधा के पति, शहर से लौटे तो थके हुए थे। खाते वक्त भी मोबाइल पर ऑफिस की बातें। सुधा ने चुपचाप परोस दिया। रवि बगल में बैठा बस सब देखता रहा। उसे लगता, इस घर में सबसे ज़्यादा चुप्पी भाभी की है, और सबसे गहरी भी।
रात को जब सब सो गए, तब रवि बरामदे में अपनी चारपाई पर लेटा हुआ था। हवा में हल्की ठंडक थी। पीपल के पत्ते खड़खड़ा रहे थे। तभी आँगन के भीतर से साड़ी की सरसराहट सुनाई दी। उसने देखा, भाभी पानी भरने आई थीं। दीपक की लौ में उनका चेहरा किसी पुराने गीत जैसा लग रहा था — अधूरा, मगर मधुर। रवि को लगा जैसे उसके अंदर कुछ पिघल रहा है, जैसे शब्द हों, जिन्हें बोलने की हिम्मत नहीं जुटी।
अगली सुबह गाँव में सावन की पहली फुहार आई। मिट्टी से उठती भीनी गंध पूरे आँगन में फैल गई। सुधा ने खिड़की खोली तो हवा में उड़ता उसका आँचल रवि के चेहरे से छू गया। उसने झट से पीछे हटकर कहा, “अरे भाभी, देखिए न, पूरा चेहरा भीग गया।” भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा, “बारिश सबको भिगो देती है रवि, कुछ चेहरे बाहर से भीगे लगते हैं, कुछ भीतर से।” रवि पल भर को देखता रह गया। उसे लगा जैसे इन शब्दों के पीछे कोई कहानी है, जो कह नहीं पाई वो।
दिन गुजरते गए। रवि अब रोज़ सुबह खेत से लौटकर भाभी की रसोई में जा बैठता। कभी सब्ज़ी काट देता, कभी बस चुपचाप उन्हें आटा बेलते देखता रहता। सुधा कभी कुछ कहती नहीं, बस मुस्कुरा देती। उस मुस्कान में एक अपनापन था, जिसमें रवि को अपनी माँ की छवि भी दिखती और कुछ ऐसा भी, जो समझ में नहीं आता। एक दिन रवि ने पूछ ही लिया, “भाभी, आपको कभी गाँव से बाहर जाने का मन नहीं करता?” सुधा ने हँसते हुए कहा, “कहाँ जाऊँ रवि? बाहर की दुनिया में मेरे लिए कुछ नहीं है। मेरा संसार तो यहीं है, इस आँगन में, इस तुलसी के पास, इस मिट्टी में।” रवि ने धीमे से कहा, “कभी-कभी लगता है, आप बहुत कुछ छिपाती हैं अपने भीतर।” भाभी ने आँखें झुका लीं, “हर औरत कुछ न कुछ छिपाती है, रवि। बस कुछ की बातें साड़ी के छोर में बंध जाती हैं, जो हवा में उड़ते हुए भी खुलती नहीं।”
सावन बीत गया, और अब खेतों में कटाई का समय आ गया। रवि दिनभर खेत में रहता, और शाम को जब लौटता, तो भाभी वहीं चौके के पास बैठी मिलतीं। बस अब उनकी आँखों में वो चमक नहीं थी। एक दिन भैया शहर चले गए, नौकरी के सिलसिले में कुछ महीनों के लिए। घर अब बस दो लोगों के बीच बँट गया था — भाभी और रवि। शाम की रसोई में अब बातें भी थोड़ी लंबी हो चली थीं। रवि अब भाभी से हर बात कह देता, खेत की, मौसम की, अपने डर की, सपनों की। भाभी बस सुनती रहतीं। उनकी आँखों में अपनापन था, पर उनकी हदें भी तय थीं।
एक दिन जब बारिश की रात में बिजली चली गई, तो भाभी दीया लेने निकलीं। उनका साड़ी का छोर फँस गया बांस की कुर्सी में। रवि ने पास जाकर साड़ी का पल्लू छुड़ाया। उनकी उंगलियाँ एक पल को छू गईं, और वही पल जैसे ठहर गया। दोनों ने नजरें नहीं मिलाईं, बस दीये की लौ में एक दूसरे की परछाई देखी। शायद कुछ कहना चाहते थे, पर शब्द गुम हो गए।
भैया लौटे तो घर फिर से सामान्य हो गया। रवि अब थोड़ा कम बोलता था। सुधा फिर वही पुरानी चुप्पी ओढ़े घूमती थी। बस अब उनकी आँखों में हल्की नमी रहती।
एक दिन रवि ने शहर जाने की बात कही। कहा कि अब वो खेती छोड़कर कोई काम सीखना चाहता है। सुधा ने सिर्फ इतना कहा, “जो भी करो रवि, अपनी सच्चाई कभी मत छोड़ना। रिश्ते तभी टिकते हैं जब दिल सच्चे हों, बाकी सब वक्त की बात होती है।” रवि चला गया।
और उसके जाने के बाद, सुधा कई दिन आँगन में बैठी उसकी बताई बातें दोहराती रहीं। बरामदे में रखी उसकी पुरानी टोपी तक को नहीं हटाया। कभी-कभी वो साड़ी का छोर हवा में लहरता तो सुधा उसे पकड़कर मुस्कुरा देती, जैसे किसी अधूरी बात को थाम लिया हो।
सालों बाद जब रवि गाँव लौटा तो घर बहुत बदल चुका था। भैया अब सेवानिवृत्त हो चुके थे। सुधा अब बूढ़ी हो चली थीं, पर उनकी आँखों की गहराई वही थी। उन्होंने रवि को देखा, बस मुस्कुरा दीं। कुछ नहीं बोलीं। और रवि भी कुछ नहीं कह पाया। बस हवा में वही एहसास था, साड़ी का वो छोर, जो कभी न खुल सका, और वो अधूरी बात, जो शायद अब पूरी हो भी गई थी, बिना बोले ही।
उस शाम पीपल के नीचे खड़ा रवि मिट्टी की खुशबू महसूस कर रहा था। भीतर एक सुकून था। उसे समझ आ गया कि कुछ रिश्ते शब्दों के नहीं होते, बस अहसासों के होते हैं। और जब दिल सच्चा हो, तो अधूरी बातें भी अपनी मंज़िल पा लेती हैं।