क्या कभी आपने सोचा है कि एक छोटी सी नेकी आपकी जिंदगी में कितना बड़ा तूफान ला सकती है?
या शायद वही तूफान आपको एक ऐसी मंजिल पर पहुंचा दे, जिसके बारे में आपने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा। यह कहानी है करुणा की, एक ऐसी लड़की की जिसने एक भूखे अनाथ बच्चे के आंसू पोंछने की कोशिश की और बदले में उसे अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। लेकिन उसे क्या पता था कि अगले ही दिन एक ऐसा सच सामने आने वाला है जो उसके मालिक के होश उड़ा देगा और उसकी अपनी दुनिया हमेशा के लिए बदल जाएगी।
अध्याय 1: एक अनजानी मुलाकात
रात का वक़्त था। मुंबई की सड़कें अपने सन्नाटे में डूबी हुई थीं। रात के करीब एक बजे होंगे। हल्की सी बूंदाबांदी हवा में घुली थी, और सड़क किनारे पीली स्ट्रीट लाइटें धुंध में लिपटी हुई थीं। डॉ. ईशा मल्होत्रा, एक 32 वर्षीय न्यूरोसर्जन, अपनी कार से अस्पताल से लौट रही थीं। थकान उनकी आंखों में झलक रही थी, पर मन शांत था। एक और ज़िन्दगी बचाने की राहत उनके चेहरे पर तैर रही थी।
लेकिन कुछ ही पलों में उनकी ज़िन्दगी भी एक ऐसे मोड़ पर पहुंचने वाली थी, जहां उन्हें खुद अपनी सांसें किसी और के लिए थामनी पड़ेंगी। अचानक, उनकी नज़र सड़क के किनारे किसी पर पड़ी। कोई इंसान गिरा हुआ था। बारिश की बूँदें उसके ऊपर गिर रही थीं, कपड़े भीगे हुए थे, और उसकी एक बाँह किसी अजीब तरह मुड़ी हुई थी। ईशा ने कार रोकी।
थोड़ी झिझक के बाद वो कार से बाहर निकलीं, और झुककर देखा। वो कोई लगभग 35 साल का आदमी था, चेहरा कीचड़ से सना हुआ, होंठ सूखे हुए, और छाती धीमे-धीमे उठ-गिर रही थी। कोई पहचान नहीं, न फोन, न बटुआ। बस एक पुरानी चेन जिसमें एक छोटी सी टूटी हुई अंगूठी झूल रही थी। ईशा के भीतर का डॉक्टर जाग गया। उन्होंने बिना सोचे अपनी गाड़ी का दरवाज़ा खोला और उसे धीरे से अंदर बिठाया। “अब तुम अकेले नहीं हो…” उन्होंने धीमे से कहा। उस रात, जब बाकी लोग अपने-अपने घरों की ओर तेज़ी से भाग रहे थे, ईशा ने अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी रुकावट को अपने साथ बिठा लिया था।
वो आदमी तीन दिन तक बेहोश रहा। अस्पताल के कमरे में मशीनों की ‘बीप’ की आवाज़ें गूंजती रहीं। हर सुबह ईशा उसके पास जातीं, उसकी नब्ज़ टटोलतीं और चुपचाप खिड़की के बाहर बारिश देखतीं। कभी-कभी उन्हें लगता, जैसे वो उस अजनबी को पहले भी कहीं देख चुकी हैं, शायद किसी गुज़री हुई याद में, या किसी अनकहे वादे में।
तीसरे दिन शाम को जब वो कमरे में गईं, तो उसने आँखें खोलीं। कमज़ोर स्वर में उसने पूछा, “मैं… कहाँ हूँ?” “जीवित हो,” ईशा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “और सुरक्षित भी।” वो कुछ क्षण उन्हें देखता रहा, फिर बोला, “मुझे मर जाना चाहिए था।” ईशा ने उसकी तरफ़ देखते हुए कहा, “शायद ज़िन्दगी ने तुम्हें दूसरा मौका दिया है, और तुम उसे समझ नहीं पा रहे।”
वो आदमी खुद को करण कहता था। बस इतना ही बताया कि वो किसी छोटे शहर से मुंबई आया था काम की तलाश में। पर जब पुलिस ने उसके बारे में खोजबीन की, तो कुछ भी नहीं मिला, जैसे उसका कोई अतीत ही नहीं था। अगले कुछ हफ्तों में करण धीरे-धीरे ठीक होने लगा। अस्पताल की नर्सें कहतीं, ‘वो मरीज नहीं, जैसे कोई फरिश्ता हो।’ वो हर सुबह अस्पताल की बेंचों पर बैठा मिलता, किसी बच्चे को हँसाने की कोशिश करता या किसी बुज़ुर्ग के लिए पानी भर लाता। ईशा ने उसे अस्पताल में रहने की अनुमति दे दी।
वो अक्सर ईशा से कहता, “डॉक्टर, आप बहुत अलग हैं। लोग तो बस इलाज करते हैं, आपने तो जीना सिखाया।” ईशा मुस्करा देतीं, “शायद इसलिए क्योंकि मैं भी एक वक़्त पर खुद टूटी थी।” वो जवाब करण के दिल में उतर गया। दोनों के बीच एक अनकहा अपनापन पनपने लगा। कभी रात की ड्यूटी में कॉरिडोर में टहलते हुए दोनों कॉफी पीते, तो कभी बालकनी में बारिश देखते। छह महीने बीत गए।
एक सुबह ईशा अस्पताल पहुँचीं, तो पता चला करण बिना कुछ कहे चला गया था। उसके कमरे में बस एक पुराना नोट पड़ा था। “आपने जो रोशनी दी, वही अब दूसरों तक पहुँचानी है। अगर कभी ज़रूरत हो, आसमान की तरफ़ देखना, मैं वहीं रहूँगा।” ईशा ने वो पर्ची सीने से लगा ली। उस दिन वो पहली बार अपने पेशे में खुद को असहाय महसूस कर रही थीं। उन्होंने जिन्दगियाँ बचाईं थीं, पर एक को जाने से नहीं रोक पाईं।
अध्याय 2: एक अप्रत्याशित वापसी
पाँच साल बीते। ईशा अब ‘मल्होत्रा हेल्थकेयर फाउंडेशन’ की प्रमुख थीं। एक सुबह उनके पास एक कानूनी नोटिस आया: अस्पताल की बिल्डिंग को खरीदने का प्रस्ताव। रक़म इतनी थी कि पूरा संस्थान बदल सकता था। उन्होंने कागज़ पर नज़र डाली: ‘करण अरोड़ा वेलनेस ट्रस्ट’। उनकी उंगलियाँ काँप गईं। क्या वही करण?
अगले हफ़्ते, मीटिंग के लिए जो व्यक्ति आया, उसे देखकर ईशा के होंठ काँप उठे। सामने वही चेहरा था, अब सूट में, सलीके से संवरी दाढ़ी, आँखों में आत्मविश्वास और होठों पर वही पुरानी मुस्कान। “करण…” वो मुस्कुराया, “जी डॉक्टर, वही जो एक बार आपकी कार की पिछली सीट पर जीवन तलाश रहा था।” ईशा की आँखें नम हो गईं।
वो बोला, “आपने उस रात सिर्फ़ मुझे नहीं बचाया था, मुझे मेरा मक़सद दे दिया था। जब मैं ठीक हुआ, मैंने सोचा जो दर्द मैंने झेला है, कोई और न झेले। मैं विदेश गया, वहाँ मेडिकल टेक्नोलॉजी में काम शुरू किया। और अब मैं लौट आया हूँ उसी जगह जहाँ जीना सीखा था।” ईशा बस उसे देखती रह गईं। वो आगे बोला, “इस अस्पताल का एक नया विंग बनेगा, ‘उम्मीद विंग’, जहाँ इलाज मुफ्त होगा। क्योंकि इंसानियत की कोई कीमत नहीं होती।” ईशा ने उसकी ओर देखा, और हल्की हँसी के साथ कहा, “तुम अब डॉक्टरों से भी बड़ा इलाज कर रहे हो, करण।” वो बोला, “नहीं डॉक्टर, इलाज तो आपने किया था। जब बाकी सब आगे बढ़ रहे थे, आपने एक पल रुककर देखा था।”
कई साल बाद, मुंबई की उसी सड़क पर फिर वही बूंदाबांदी थी। एक कार रुकी, और एक लड़की नीचे उतरी, एक घायल पिल्ले को उठाकर अपने बैग में रख लिया। पास ही बोर्ड पर नाम चमक रहा था: ‘करण अरोड़ा मेमोरियल हॉस्पिटल – जहाँ हर जान मायने रखती है।’ कहानी वहीं पूरी हुई जहाँ शुरू हुई थी, एक इंसानियत भरी रुकावट पर। क्योंकि कभी-कभी ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत सफर, एक रुकने से शुरू होता है।