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      My husband insulted me in front of his mother and sister — and they clapped. I walked away quietly. Five minutes later, one phone call changed everything, and the living room fell silent.

      27/08/2025

      My son uninvited me from the $21,000 Hawaiian vacation I paid for. He texted, “My wife prefers family only. You’ve already done your part by paying.” So I froze every account. They arrived with nothing. But the most sh0cking part wasn’t their panic. It was what I did with the $21,000 refund instead. When he saw my social media post from the same resort, he completely lost it…

      27/08/2025

      They laughed and whispered when I walked into my ex-husband’s funeral. His new wife sneered. My own daughters ignored me. But when the lawyer read the will and said, “To Leona Markham, my only true partner…” the entire church went de:ad silent.

      26/08/2025

      At my sister’s wedding, I noticed a small note under my napkin. It said: “if your husband steps out alone, don’t follow—just watch.” I thought it was a prank, but when I peeked outside, I nearly collapsed.

      25/08/2025

      At my granddaughter’s wedding, my name card described me as “the person covering the costs.” Everyone laughed—until I stood up and revealed a secret line from my late husband’s will. She didn’t know a thing about it.

      25/08/2025
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    India Story

    तलाक के 10 साल बाद पत्नी और बेटी सड़क किनारे चाय बेचती हुई मिली, फिर जो हुआ

    rinnaBy rinna22/10/202518 Mins Read
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    तलाक के 10 साल बाद पत्नी और बेटी सड़क किनारे चाय बेचती हुई मिली, फिर जो हुआ

    कभी जिन हाथों ने एक-दूसरे की हथेली थामकर वक्त से जिद की थी कि साथ रहेंगे, चाहे हालात जैसे भी हों, आज उन्हीं हाथों के बीच खामोशी की एक ऐसी दीवार खड़ी थी जिसे तोड़ने की हिम्मत न वक्त में थी, न हालात में। बस एक उम्मीद थी, जो सालों बाद फिर उसी मोड़ पर ले आई थी, जहां कभी साथ चला करते थे।

    विक्रम उस दिन किसी पुराने क्लाइंट से मिलने गया था। काम छोटा था, लेकिन लोकेशन वही पुरानी थी—वही मोहल्ला, जहां बरसों पहले वह अपनी पत्नी संगीता के साथ चाय पीने आता था। गलियां अब भी वैसी थीं, लेकिन दुकानों के नाम बदल गए थे। दीवारें फिर से रंग ली गई थीं, मगर कुछ यादें आज भी उन ईंटों में चुपचाप दबी हुई थीं।

    कार से उतरकर विक्रम जैसे अतीत में उतर गया। चलते-चलते जब वह नुक्कड़ तक पहुंचा, उसकी नजर एक छोटी सी दुकान पर पड़ी—लकड़ी का ठेला, जिस पर आम, केले, संतरे और कुछ सब्जियां रखी थीं। दूसरी तरफ एक पुराना गैस चूल्हा, जिस पर चाय खौल रही थी। बगल में दो बेंचें, एक लोहे की पेटी, और पास रखे कुछ गिलास और कपड़े का झोला। उस पूरे सेटअप के बीच एक औरत खड़ी थी—सांवली सी, पसीने से भीगी पेशानी, माथे पर बड़ा सा तिल, हाथों में चाय की केतली। कभी चाय छानती, कभी फल झाड़ती, कभी किसी ग्राहक से कहती, “क्या दूं साहब, चाय या फल?”

    विक्रम के कदम वहीं रुक गए। वह चेहरा, वह चाल, वह माथे का तिल—सब कुछ पहचानने जैसा था, पर यकीन करने जैसा नहीं। वह संगीता थी, वही संगीता जिससे उसने कभी सात फेरे लिए थे। वही संगीता, जिससे वादा किया था, “तेरे बिना अधूरा हूं मैं।” और आज वह धूप में खड़ी चाय और फल की दुकान चला रही थी—शायद जिंदगी के हालात से लड़ती हुई, शायद अपनी बेटी के इलाज का बोझ उठाती हुई, और सबसे ऊपर, शायद अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए हर सुबह खुद से एक नई जंग लड़ती हुई।

    विक्रम के होठ सूखने लगे। उसने जेब से रुमाल निकाला और चेहरा ढक लिया। अब वह पहले जैसा नहीं रहा था—चेहरा भर गया था, रंग साफ था, कपड़े महंगे थे, चाल में रुतबा आ गया था। लेकिन उस एक पल में, उस औरत के सामने खड़े होकर, वह फिर वही विक्रम बन गया था, जो कभी संगीता की हर बात उसकी आंखों से पढ़ लिया करता था।

    वह कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। भीड़ थी, लेकिन आवाजें सुनाई नहीं दे रही थीं—बस एक शोर था, अंदर से उठता हुआ। संगीता अपने काम में लगी रही। उसकी आंखों में थकान थी, पर इरादों में अब भी कोई समझौता नहीं था।

    विक्रम ने खुद को संभाला और धीरे-धीरे उसके पास पहुंचा। थोड़ा साइड में खड़ा हुआ। संगीता ने बिना देखे पूछा, “क्या लेंगे साहब, चाय या फल?”
    विक्रम की आवाज कांप रही थी, लेकिन उसने खुद को रोका। “एक कड़क चाय और कुछ आम दिखा दीजिए।”
    संगीता ने चाय छाननी शुरू की और झोले से आम की टोकरी निकाली। विक्रम की नजर उस टोकरी के पास रखी एक पुरानी तस्वीर पर पड़ी, जिसमें एक मासूम बच्ची की मुस्कुराती सी झलक थी—कमजोर चेहरा, लेकिन चमकती आंखें, जैसे अब भी किसी को पापा कहने की आस हो।

    वह ठिटक गया। वह तस्वीर उसकी रग-रग में उतर गई थी। लेकिन उसने अभी खुद से कुछ नहीं कहा, न सामने आने की हिम्मत की, न कुछ पूछने की। सिर्फ इतना बोला, “यह आम कैसे दिए?”
    संगीता बोली, “सुबह ही लाई हूं साहब। मीठे हैं, मुरझा गए हैं थोड़ा। ₹100 किलो, खाकर देख लीजिए।”
    विक्रम बोला, “सारे दे दो।”
    संगीता थोड़ी चौकी, फिर मुस्कुराई नहीं—बस झट से तोलने लगी। “8 किलो है, ₹800 होंगे। आप सब ले रहे हैं तो ₹640 दे दीजिए।”
    विक्रम ने चुपचाप जेब से दो ₹500 के नोट निकाले और पकड़ा दिए। फिर मुड़ने लगा।

    तभी पीछे से आवाज आई, “साहब, ₹200 ज्यादा दे दिए। भीख नहीं चाहिए।”
    विक्रम वहीं रुक गया। संगीता पास आई। उसके हाथ में ₹200 रखे और फिर उसी ठहरी हुई आवाज में बोली, “इज्जत बचाने को यह दुकान है, कमजोर नहीं हूं।”
    विक्रम की आंखें भर आईं। वह कुछ पल चुप रहा। फिर अपनी कांपती आवाज में बोला, “तुम्हारा पति कुछ नहीं करता क्या?”
    संगीता ने एक गहरी सांस ली। फिर चाय की केतली रखते हुए बोली, “12 साल पहले तलाक हो गया साहब।”

    विक्रम का दिल जैसे किसी ने निचोड़ लिया हो। वह एक पल के लिए थम गया। फिर अपने झोले को संभालता हुआ धीमे-धीमे उस दुकान से हटने लगा। पर उसकी आंखें अब भी उस तस्वीर पर अटकी थीं, जिसमें वह चेहरा था, जो आज भी शायद उसे पहचान सकता था।

    संगीता अब आम समेट रही थी। गैस का चूल्हा बंद कर चुकी थी। झोले में बचे हुए फल रखे और फिर उसी थके हुए ढंग से वह दुकान की पेटी उठाकर चल पड़ी। विक्रम अब भी थोड़ी दूरी पर खड़ा था। उसके हाथ में झोला था, लेकिन दिल में एक बवंडर। उसने खुद से पूछा, “क्या वह मेरी बेटी थी? क्या मैंने सच में सब कुछ खो दिया?”

    वह ज्यादा सोच नहीं पाया। बस उसके कदम खुद-ब-खुद संगीता के पीछे चल पड़े। वह गली तक थी—बिजली के झूलते तार, छतों से टपकती बूंदें, दीवारों पर नाम मिटे हुए पोस्टर, और हर दरवाजे पर थकी हुई जिंदगी। लेकिन संगीता जहां जाकर रुकी, वह घर अलग था—एक छोटा सा टूटा-फूटा मकान, जिसके सामने बरामदे में दो खटिया पड़ी थीं। एक खटिया पर एक बूढ़ी औरत—सूखे हाथ-पैर, धंसी आंखें, चुपचाप आकाश की ओर देख रही थी। दूसरी खटिया पर एक दस साल की लड़की—कमजोर सांवली, सुनी आंखें, बिखरे बाल, एक खिलौना उसके पास रखा था, लेकिन वह उसे छू भी नहीं रही थी।

    विक्रम वहीं रुक गया। संगीता ने घर का दरवाजा खोला, बोझ उतारा और भीतर चली गई। पर विक्रम की निगाह उस बच्ची पर अटक गई थी—वह बच्ची जो बस खटिया पर लेटी थी, न हिल रही थी, न किसी से कुछ कह रही थी। वह पायल थी—उसकी अपनी बेटी। अब कोई तस्वीर नहीं, अब कोई झलक नहीं, अब सच सामने था।

    विक्रम ने धीरे से एक कदम बढ़ाया, लेकिन उसके सीने में कुछ कसने लगा। उसकी बेटी इतनी कमजोर, इतनी चुप। उसे याद आया वह दिन जब पायल एक साल की थी और उसकी गोद से उतरने का नाम नहीं लेती थी। आज वह खटिया पर अकेली पड़ी थी और लगता था जैसे जिंदगी से भी नाराज हो।

    वह और पास नहीं जा सका। बस दीवार के साए में खड़ा होकर देखता रहा। उसकी आंखें भर आईं और दिल से सिर्फ एक ख्याल निकला—इतनी मासूम जान मेरी गलती क्यों भुगत रही है?

    तभी अंदर से संगीता बाहर आई—एक गिलास में पानी लेकर। जैसे ही उसकी नजर विक्रम पर पड़ी, वह थोड़ी देर के लिए ठहर गई। फिर बिना कुछ कहे उसके पास आई। चेहरे पर न गुस्सा था, न हैरानी—बस एक थकी हुई लेकिन स्थिर आवाज, “यहां तक आ ही गए?”

    विक्रम कुछ बोल नहीं पाया। उसने बस आंखें झुका लीं। संगीता ने पायल की ओर देखा, फिर वापस विक्रम की आंखों में झांकते हुए बोली, “अब देख भी लिया, अब शायद समझ भी आ गया होगा कि अकेले कितना मुश्किल होता है सब कुछ उठाना।”

    विक्रम की आवाज कांप रही थी, “यह पायल है ना?”
    संगीता की आंखों में नमी आ गई, लेकिन उसने कोई इल्जाम नहीं लगाया।
    “हां, यह वही है, जो कभी तुम्हें पापा कहती थी। और अब सिर्फ बीमार पड़ी रहती है।”

    विक्रम के होठ कांप गए। उसने खुद को बमुश्किल संभाला। फिर धीमे से बोला, “मुझे नहीं पता था कि चीजें इतनी…”
    संगीता ने बात बीच में ही काट दी, “पता होता तो क्या करते?”
    विक्रम चुप हो गया। उसने पायल की ओर देखा, जो अब भी वही थी। उसी खटिया पर।

    थोड़ी देर बाद पायल ने धीरे से करवट ली और अपनी सुनी आंखों से एक बार सामने देखा। वह नजरें विक्रम से मिलीं। विक्रम घबरा गया, झट से पीछे हो गया, जैसे किसी गुनाह में पकड़ा गया हो। पर पायल ने कुछ नहीं कहा। वह सिर्फ देख रही थी, जैसे कोई भूली हुई पहचान याद करने की कोशिश कर रही हो।

    और उसी पल संगीता ने कहा, “अब अगर वाकई कुछ करना चाहते हो, तो एक बार सीधे उसके सामने जाकर खड़े हो जाओ। न भूत की तरह, न छुपकर—बस एक बार बाप बनकर।”

    विक्रम कुछ नहीं बोला। बस दीवार से पीठ लगाकर खड़ा रह गया। पायल अब भी देख रही थी, लेकिन उसकी आंखों में न डर था, न खुशी—बस एक सवाल था, जो शायद उसे खुद भी समझ नहीं आ रहा था। पायल अब खटिया से थोड़ा उठकर बैठ चुकी थी। उसके चेहरे पर वही थकी हुई मासूमियत थी, जो अक्सर उन बच्चों में देखी जाती है जो बोलते कम हैं और सहते ज्यादा हैं।

    उसने अपनी मां की ओर देखा, फिर उस अनजान आदमी की तरफ, जो दीवार के पास थोड़ी दूरी से उसे देख रहा था—वह आदमी, जिसकी आंखों में डर भी था, पछतावा भी, और एक अनकही पहचान की उम्मीद भी।

    संगीता खामोशी से पायल के पास गई, धीरे से उसके सिर पर हाथ फेरा और बहुत हल्के स्वर में कहा, “बेटा, यह तुम्हारे पापा हैं।”

    पायल कुछ नहीं बोली। बस आंखें उठाकर विक्रम को देखा, फिर नीचे देखती रही। विक्रम अब खुद को रोक नहीं पाया। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और पायल के सामने जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। कांपती आवाज में उसने कहा, “मैं बहुत सालों तक चुप रहा, बेटा। बहुत बड़ी गलती कर दी मैंने—तुम्हें भी छोड़ दिया, तुम्हारी मां को भी, और खुद को भी खो बैठा। पता नहीं अब हक रह गया है या नहीं, पर क्या तुम बस एक बार मुझे माफ कर सकती हो?”

    पायल की आंखों में सीधा गुस्सा नहीं था, लेकिन कोई भाव भी नहीं था—बस एक खालीपन था, जो कह रहा था, “इतने साल कहां थे, पापा?”

    कुछ पल खामोशी रही। फिर पायल ने धीरे से हाथ बढ़ाया और विक्रम के आंसुओं से भीगे चेहरे को छुआ। कोई शब्द नहीं निकले उसके होठों से, पर स्पर्श में वो सब था, जो एक बच्ची ने कभी कह नहीं पाया था। फिर पायल उठी और धीरे से विक्रम के गले लग गई—बहुत धीमे से, बहुत देर तक। विक्रम ने अपनी बेटी को सीने से चिपका लिया। वह रो रहा था, पर अब उसकी रुलाई में कमजोरी नहीं थी, बल्कि वह पीड़ा थी, जो सालों से उसकी आत्मा में बंद थी।

    संगीता पास ही खड़ी थी। उसकी आंखें भीग चुकी थीं। वह कुछ नहीं बोली, बस पायल के सिर पर हाथ रख दिया।

    कुछ देर बाद पायल फिर से खटिया पर लेट गई थी, धीरे से करवट लेकर दीवार की ओर मुंह कर लिया। शायद उसकी आंखें बंद थीं, या शायद वह अब भी उस स्पर्श को अपने सीने में समेट रही थी।

    विक्रम वहीं जमीन पर बैठा था—चुप, नि:शब्द। उसकी आंखें पायल पर थीं, पर उसके भीतर कुछ और ही चल रहा था। उसका मन बार-बार कह रहा था, “अब उससे पूछ, क्या तू उसका पापा बन सकता है फिर से? अब संगीता से कह, कि तू उसके साथ फिर से जिंदगी जीना चाहता है।”

    लेकिन उसकी आंखें संगीता की ओर गईं—वह अब भी खामोश खड़ी थी। न कोई इशारा, न कोई रोक। बस वही पुरानी थकावट थी उसकी पलकों में, जिसे किसी सफाई की जरूरत नहीं थी।

    विक्रम ने चुपचाप अपनी हथेलियां जमीन पर रखीं, धीरे से खुद को उठाया और फिर एक बार पायल की ओर देखा। उसने चाहा कि कुछ बोले, पर होठों तक आए शब्द, दिल के दर्द में डूबकर फिर लौट गए। वह मुड़ा, एक कदम चला, फिर रुका—जैसे दिल पीछे खींच रहा हो, लेकिन जुबान कह रही थी, “अभी नहीं।”

    उसने बिना कोई आवाज किए गली से बाहर कदम रख दिए—न दरवाजा खटका, न अलविदा कहा। बस चल पड़ा, जैसे कोई हार कर नहीं, बल्कि किसी वक्त का कर्ज चुकाने फिर से लौटने का वादा लेकर गया हो।

    गाड़ी के पास पहुंचा, दरवाजा खोला, लेकिन बैठने से पहले आसमान की ओर देखा—सुना-सुना आकाश, शांत हवा, और बहुत गहराई से उठती एक आवाज, “तू लौटेगा ना?”

    रात भर विक्रम सो नहीं सका। करवटें बदलते हुए उसकी आंखों के आगे बस एक ही तस्वीर घूमती रही—पायल का चेहरा, वो नजरें, जो कुछ नहीं बोलीं, पर सब कुछ कह गईं। उसने तकिए पर सिर रखा, लेकिन नींद जैसे सिर्फ उस बेटी के पास चली गई थी, जिससे मिलने में उसे 9 साल लग गए थे।

    उसने खुद से कहा, “मैं आज सिर्फ देखकर लौट आया हूं। लेकिन अब देना बाकी है वह प्यार, वह साथ और वह सम्मान, जो एक बेटी को सबसे पहले उसके पापा से मिलना चाहिए।”

    रात नींद में नहीं, बस आंखों में बीती थी। विक्रम पलंग पर पड़ा रहा, करवटें बदलता रहा, और बार-बार वही एक पल याद आता रहा—पायल का वह चुपचाप गले लगना और संगीता की वह शांत निगाहें, जिसमें सवाल भी थे और शायद जवाब भी।

    सुबह होते-होते वह उठ खड़ा हुआ। पर उसके कदमों में अब डर नहीं था, बल्कि एक संकल्प था। वह सीधा उस कोने वाली दुकान पर गया, जहां से वह कभी संगीता के लिए चूड़ियां खरीदा करता था। आज पहली बार उसके हाथ कांप नहीं रहे थे, बल्कि उसके चेहरे पर वही ठहराव था, जो किसी ने वक्त से बहुत कुछ सीखने के बाद पाया हो।

    उसने एक छोटा सा पैकेट बनवाया—जिसमें थी कुछ रंगीन चूड़ियां, एक जोड़ी बालियां, और एक सिंपल सा मंगलसूत्र। कुछ कीमती नहीं, लेकिन हर चीज में एक अधूरे रिश्ते की भरपाई छुपी थी।

    वह वहां से सीधा किराने की दुकान गया—दूध, फल, दवाइयां, बिस्किट, कुछ किताबें और एक छोटी सी डॉल। सब कुछ वह अपने हाथों से पैक करवाता रहा। वह नहीं चाहता था कि आज फिर कोई बच्ची उसे सिर्फ एक गले लगाने वाले अजनबी की तरह देखे। आज वह पूरी तरह पापा बनकर जाना चाहता था।

    दोपहर ढलने लगी थी। गर्मी भी कुछ कम हो गई थी। विक्रम ने कार का डिक्की बंद की और उसी गली की तरफ बढ़ गया, जहां कल उसकी जिंदगी का सबसे गहरा आईना उसे मिला था।

    गली अब भी वैसी ही थी—टपकती टंकियां, तंग दरवाजे, और हर चौखट पर वही थकी हुई जिंदगी। लेकिन आज विक्रम का चलना अलग था—कल उसके कदम कांप रहे थे, आज उसकी चाल में भरोसा था।

    संगीता का घर नजदीक आने लगा और दूर से ही उसे पायल खटिया पर बैठी दिखी। आज वह लेटी नहीं थी—बैठकर कोई पुरानी कॉपी में कुछ लिख रही थी। उसके पास वही खिलौना रखी थी, जिसे शायद सालों से किसी ने छुआ भी नहीं था।

    विक्रम रुक गया। उसने एक गहरी सांस ली और फिर धीरे-धीरे उस घर की ओर बढ़ा, जिसे उसने खुद से कभी बहुत दूर कर दिया था। पायल ने उसे देखा, और इस बार उसके चेहरे पर वो अजनबियत नहीं थी। वह थोड़ी चौंकी जरूर, पर आंखों में एक हल्की चमक थी। “पापा,” उसने धीमे से कहा।

    विक्रम रुक नहीं सका। उसने झट से अपनी बाहें फैलाईं और पायल दौड़कर उसके गले लग गई। इस बार वह लिपटने में नहीं हिचकी, जैसे अब भरोसा हो गया हो कि यह गले लगना बस एक पल की चीज नहीं, अब यह रोज का होगा।

    वह उसे गोद में उठाए भीतर पहुंचा। संगीता दरवाजे पर खड़ी थी—वह उसे देख रही थी, न मुस्कान थी, न सवाल, बस इंतजार का सन्नाटा उसकी आंखों में।

    विक्रम ने पायल को खटिया पर बैठाया, फिर डिक्की से लाया थैला खोला—दवाइयां, दूध, किताबें, फल, खिलौने, सब कुछ निकालकर एक-एक करके सामने रख दिया। और फिर जेब से वह छोटा पैकेट निकाला और संगीता की तरफ बढ़ा दिया, “यह तुम्हारे लिए है,” उसने धीरे से कहा।

    संगीता कुछ पल उसे देखती रही, फिर पैकेट खोला और चूड़ियों के बीच रखा हुआ मंगलसूत्र देखकर चौंक गई। उसकी आंखें भीग गईं। उसने कुछ बोलना चाहा, लेकिन आवाज भीतर ही टूट गई। विक्रम उसके पास आया, बहुत धीमे से बोला, “उस दिन तुमने कुछ नहीं कहा था, लेकिन तुम्हारी आंखों में मैं देख पाया था कि तुमने अभी सब पूरी तरह खोया नहीं है। अगर माफ कर सको, तो इस बार सिर्फ मेरी बेटी को नहीं, मुझे भी अपना बना लो।”

    संगीता कांप रही थी। उसने हाथ बढ़ाया, मंगलसूत्र थामा और बहुत देर तक उसे देखती रही। फिर धीरे से कहा, “अगर आज के बाद फिर वही गलती की, तो यह चूड़ियां फिर कभी नहीं पहनूंगी।”

    विक्रम की आंखें भर आईं। उसने सिर झुका लिया, और बस इतना कहा, “इस बार तुमसे नहीं, अपने आप से भी कोई झूठ नहीं बोलूंगा।”

    उस शाम विक्रम पहली बार उस घर में ठहरा, जहां कल तक वह चुपचाप खड़ा रहता था, और आज उसी घर के अंदर से पायल की खिलखिलाहट सुनाई दे रही थी। संगीता रसोई में थी, चूल्हे पर चाय चढ़ी थी, और गैस की धीमी आवाज के साथ चूड़ियों की छनक भी गूंज रही थी। वह मंगलसूत्र अब उसकी गर्दन में था, जिसे सालों पहले आंसुओं में बहा दिया गया था।

    पायल दरवाजे के पास बैठी, अपनी नई किताबों के पन्ने पलट रही थी, और बीच-बीच में विक्रम को देखकर मुस्कुरा रही थी, जैसे हर बार आंखों से कहती हो, “अब कभी मत जाना पापा।”

    विक्रम चुपचाप खिड़की के पास बैठा था। उसका चेहरा थका हुआ नहीं था, बल्कि शांत था। कई सालों बाद उसे कोई दौलत, कोई दुकान, कुछ भी याद नहीं आ रहा था—बस यह तीन जिंदगियां दिख रही थीं, जो आज एक साथ सांस ले रही थीं।

    पर सुख की शुरुआत से पहले कुछ अधूरे पन्ने बंद करने जरूरी थे।

    अगले दिन सुबह विक्रम फिर अपनी दुकान पर पहुंचा। जैसे ही अंदर गया, उसका बड़ा भाई सामने आ गया—वही चेहरा, वही आवाज, लेकिन अब उसकी आंखों में ताज्जुब था। “विक्रम, कहां था दो दिन से, फोन भी बंद। दुकान का हिस्सा अभी रुका है।”

    विक्रम शांत रहा। धीरे से कुर्सी खींची, बैठा, और फिर वही एकदम स्थिर आवाज में कहा, “अब से यह दुकान और यह जिंदगी मेरी होगी। मेरी मर्जी से चलेगी।”

    भाई चौका, हंसने की कोशिश की, “क्या मतलब है तेरा?”
    विक्रम उसकी आंखों में आंखें डालकर बोला, “मतलब यह कि अब मैं अपने रिश्तों को फिर से जीना चाहता हूं। अपने गुनाहों को माफ नहीं, सुधारना चाहता हूं।”

    “तू पागल हो गया है क्या?” भाई चिल्लाया, “तेरी जिंदगी तो हमने संभाली। तू तो कहीं का नहीं रहा था।”
    विक्रम ने बात काट दी, “हां, मैं कहीं का नहीं रहा था। क्योंकि मैं खुद को खो चुका था। अब मैंने खुद को वापस पा लिया है—संगीता और पायल के पास जाकर।”

    “वो औरत जो तुझे छोड़ गई थी?” भाई जहर उगलने लगा।
    विक्रम उठा, कदम आगे बढ़ाए, और बिल्कुल पास जाकर बोला, “नहीं, वो औरत जो कभी मेरा सब कुछ थी, और जिसे मैंने चुप रहकर खो दिया था। अब मैं चुप नहीं रहूंगा।”

    भाई तमतमा गया, “तो क्या अब दुकान छोड़ देगा?”
    विक्रम ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “नहीं, अब दुकान मेरे साथ चलेगी। पर इंसानियत के साथ, पैसों के पीछे दौड़ते हुए नहीं—बेटी की हंसी और पत्नी की इज्जत के साथ।”

    भाई कुछ नहीं बोल सका। कई सालों बाद वह अपने छोटे भाई को एक आदमी की तरह खड़ा देख रहा था, जो अब झुक नहीं रहा था।

    विक्रम उस दिन घर लौटते हुए रास्ते में चुप रहा, लेकिन उसके अंदर की शांति उसके चेहरे पर दिख रही थी। उसने फल लिए, दवाई ली, और दो नए स्कूल बैग भी खरीदे। फिर संगीता के घर पहुंचा, तो संगीता दरवाजे पर खड़ी थी, जैसे इंतजार कर रही हो।

    विक्रम ने झोले रखे, पायल को आवाज दी, और चुपचाप बोला, “अब कोई तुम्हें हमसे अलग नहीं कर पाएगा।”
    पायल दौड़ कर आई और उसकी कमर से लिपट गई।
    संगीता पीछे से आई और उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।

    तीनों चुप थे, लेकिन उस खामोशी में अब कोई दर्द नहीं था।

    कहानी यहां समाप्त नहीं होती। बल्कि यहीं से एक नई शुरुआत होती है—जहां बिखरे हुए रिश्ते फिर से एक कमरे में सांस लेने लगे, और एक टूट चुका इंसान फिर से एक पिता, एक पति और सबसे पहले एक इंसान बन गया।

    सीख:
    कभी-कभी हम चुप रहकर उन बातों को होने देते हैं, जो रिश्तों को भीतर से तोड़ देती हैं। पर जब वक्त दूसरा मौका दे, तो वह सजा देने नहीं आता, बल्कि आईना लेकर आता है, जिसमें हम देख सकें कि हमने कितना कुछ खो दिया।

    क्या आपने भी कभी किसी अपने को सिर्फ इसलिए खो दिया क्योंकि आप घरवालों के कारण बोल नहीं पाए या वक्त रहते साथ नहीं दे पाए? नीचे कमेंट में जरूर बताइए। क्या आप आज भी किसी के लौटने का इंतजार कर रहे हैं?

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    मिलते हैं एक नई सच्ची भावुक कहानी के साथ।
    तब तक अपनों का ख्याल रखें, रिश्तों की कीमत समझें।
    जय हिंद!

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